शक्तिपूजको हे ! व्रत नवरात्रि का उठा के
लोक-परलोक में तो भर पुण्यालोक लो।
किन्तु दूजी ओर अत्याचारों से है त्रस्त नारी
कभी कोई उसके भी दुःख को विलोक लो ।
कर्मकाण्ड छोड़ काण्ड कर्म के रचाओ आज
धर्म यही है कि हर उसके ये शोक लो ।
कन्यापूजा केवल कहायेगी सफल जब
कन्याओं पे उठती कटारियों को रोक लो ।
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वृक्ष वन आदि कोई बचे ही नहीं हैं कहीं
पूजा में कहाँ से वन्य सामग्री को लाओगे ।
तालाबों को खाकर पचा गए शहर सभी
तो फिर कहाँ से आज कमल चढ़ाओगे ।
प्रकृति स्वरूपा भगवती देखती है तुम्हें
कितना उजाड़ोगे या कितना बनाओगे ।
धरती का सर्वनाश कर देने वालो, पूजा-
-कितनी ही करो देवी को न रिझा पाओगे ।।
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गर्व में रहे थे सदियों से भारतीय जन,
जगती में ज्ञान का प्रकाश किया हमने.
कथ की तो सभी देश परिभाषा देते रहे,
किन्तु, हाँ, अकथ पर भाष किया हमने.
वीरता में पृथु, दानवीरता में थे दधीचि,
ऐसे न सिकन्दर हताश किया हमने.
ख़ुद को भुला के हाय, औरों के पथों पे भागे
इसी से ही ख़ुद का विनाश किया हमने
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विकसित होने को विकासशील रहे नित्य,
किन्तु शील,श्वांस में ज़हर भर गया है.
अंदर ही अंदर पनपने लगा है कोढ़,
चेहरा भले ही बाहरी निखर गया है.
ऊपर से, चिन्ता लेशमात्र दीखती न कहीं,
जाने व्यक्ति किस नशे से गुज़र गया है.
'तोमर' ये किसे जगा रहे ललकार कर,
लाशें ही बची हैं, आदमी तो-मर गया है.
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आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ
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