यदि आज राम राजा होते, यदि होता अब-तक राम-राज.
रावण के अधिवक्ता बनकर, उठते न कहीं फिर प्रश्न आज.
जनता न व्याभिचारी होती, शासक यदि होते धर्मनिष्ठ.
तब शिष्य राम से भी मिलते, यदि होते कोई गुरु वशिष्ठ.
दर्पण, अर्पण की मूर्तिमान छवि होते हैं शासक, गुरुजन.
उनके ही बिम्ब झलकते हैं जनता में सच्चरित्रता बन.
वीरता-धीरता उनसे ही, सत्यता उन्हीं से फलती है.
जैसे चलते हैं ये दोनों, जनता भी वैसे चलती है.
यदि राजा कर्म-धर्म साधक, जनपालक, न्यायहितैषी हो.
प्रगति गति उसके शासन की क्या कहें भला फिर कैसी हो.
व्यापार फला-फूला रहता, जनता में भरता रोष नहीं.
धन-धान्य अतुल्य उपजते हैं खाली होते हैं कोष नहीं.
बादल भी उमड़-घुमड़कर नित जलराशि अपार लुटाते हैं.
हरियाकर हर्षाती धरती, धरती से मन हर्षाते हैं.
झरझर झर-झर बहते रहते, नदियों की धार नहीं रुकती.
स्वाभिमान के प्रश्नों पर जनता फिर कभी नहीं झुकती.
वैसे ही सच्चे गुरुओं से, गुरुता परिभाषित होती है.
शासक अनुशासित होते हैं, जनता अनुशासित होती है.
फिर गुरु का तो दायित्व नित्य शासक से कहीं अधिक होता.
गुरु का प्रभाव सदियों चलता, शासक का भले क्षणिक होता.
यह सृजन और संहार शक्ति उसके ही खेल अनूठे हैं.
है एकमात्र गुरु सत्य और सब दृश्य यहाँ के झूठे हैं.
जगती की ऐसी राह कौन, जिस पर पग पहले धरे नहीं.
क्या युद्धपंथ, क्या शान्तिमन्त्र, गुरु से तो कुछ भी परे नहीं.
आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ (उ.प्र.)
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