मैं उनकी दोहरी नीति,
पकड़ बैठा तो अपराधी।
जबदस्ती पिता की गोद,
चढ़ बैठा तो अपराधी।
वो हक से बोलते थे कि,
तुम्हारा हक बराबर का।
मैं अपना हक भी पाने को,
जो लड़ बैठा तो अपराधी।
मैं शाखा जिस तरु का था,
उसे चंदन समझता था।
मेरी बगिया भले छोटी,
इसे नंदन समझता था।
लिपट कर भ्रात की भाँति,
यहाँ एक साँप बैठा था।
मैं उसके दंश को बेशक,
कोई चुम्बन समझता था।
के पहले विषवमन के, फन
जकड़ बैठा तो अपराधी।
मैं अपना हक बचाने को,
जो लड़ बैठा तो अपराधी।
✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻
~पं०. सुमित शर्मा 'पीयूष'
अध्यक्ष : विश्व जनचेतना ट्रस्ट भारत, बिहार
संपर्क : 7992272252
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