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गीत उपवन और झरने नदी बह रही।
गीत पर्वत सदृश ये सदी कह रही।
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पीर है इक सदी की जो संभाब्य है।
ये तो वृत्तांत लघु में महाकाव्य है।
गीत सुर में जो ढलती मचलती हुई,
गीत वो धूप और स्वेद का काब्य है।
गीत है जो ब्यथा ज़िन्दगी सह रही।
गीत पर्वत सदृश ये सदी कह रही।-01
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गीत अल्लढ़ मचलती नदी धार है।
गीत केवट की अनुपम वो पतवार है।
जो लगा दे कि उस पार ये ज़िन्दगी,
गीत वो सौम्य नाविक की मनुहार ही।
काब्य की धार उर में है जो बह रही।
गीत पर्वत सदृश ये सदी कह रही।-02
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गीत जो जो किला लाल बिन चल रही।
गीत मज़दूर कवि के हृदय पल रही।
गीत आभार है इस वतन के लिए,
राष्ट्र के भक्त उनके हृदय ढल रही।
अब बचाओ भी मर्यादा जो ढह रही।
गीत पर्वत सदृश ये सदी कह रही।-03
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गीत कविता का ब्यापार बिल्कुल नहीं।
मात्र प्रियतम का मनुहार भर ये नहीं।
गीत है लोरियाँ माँ की वात्सल्य मय,
गीत जीवन का आसार भर ये नहीं।
ये सदृश जो विहंगम सरित बह रही।
गीत पर्वत सदृश ये सदी कह रही।-04
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गीत टूटे हुए दिल का आसार है।
सुख की अनुभूति का गीत आगार है।
जो चरम कल्पनाओं में हो अग्रसर,
सृष्टि और ज़िन्दगी का परम सार है।
गीत है अस्मिता उर में जो रह रही।
गीत पर्वत सदृश ये सदी कह रही।-05
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★★★ ★★★ ★★★ ★★
स्वरचित,कापीराइट,गीतकार,
प्रदीप ध्रुवभोपाली,भोपाल,म.प्र.
दिनाँक.27/01/2020
मो.09589349070
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