मेरी जान कितना सताने लगी है.....
वो सपनों में फिर से हां आने लगी है.....
निगाहों में मेरी थी तस्वीर जिसकी...
वहीं आंख फिर क्यों सजाने लगी है.....
खयालों की दुनिया में डूबे हैं ऐसे...
वहीं रात दिन फिर चुराने लगी है.....
ये बातें वही हैं रुकी जो अधर पर..
सभी सामने आज आने लगी है.....
मुलाकात होती कभी जो सड़क पर...
हमें देख कर मुस्कुराने लगी है.....
जरा यार देखो हुआ क्या जुबां को...
मोहब्बत के गीतों को गाने लगी है.....
कहीं मैं चुरा लूँ न उसके ये दिल को...
यही सोचकर दिल छुपाने लगी है.....
कभी हमने पूछा मुहब्बत है हमसे...
दबे पांव शरमा के जाने लगी है.....
उन्हें प्यार हमसे तो होने लगा है...
सहेली से अपनी जताने लगी है.....
वो आए हैं छत पे तो मिलने को हमसे...
मगर क्यूं दुपट्टा सुखाने लगी है.....
ये डर है कोई देख लेगा हमें तो...
वो छुप छुप के नजरें मिलाने लगी है.....
कहा उसने हमसे मुहब्बत है तुमसे...
वो चाहते को अपनी बताने लगी है....
अभी तक तो किस्सा था सपनों का
हकीकत में पारस को पाने लगी है......
रचनाकार - पारस गुप्ता
(शायर दिलसे)
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