आखिर देखो सीख लिया, हमने ये सबक जमाने से।
सत्य पराजित हो सकता है, बार बार झुठलाने से।
यहाँ खून के रिश्ते मौका देख दगा कर देते हैं।
ये कलयुग है यहां दुआं भी, जहर मिलाकर देते हैं।
रिश्तों की बेबस टहनी जब, काट जला दी जाती है।
उसपर भी स्वारथ की खुली हथेली सेंकी जाती है।
झोंकी जाती है मर्यादा, ईर्ष्या की चिंगारी में।
धुआँ-धुआँ हो जाते रिश्ते, 'लिहाज' की लाचारी में।
बड़ी बेरुखी से फिर भी, ये कह देती भन्सारी है।
"अगिये के है शौक तपाना, टहनी दांव के यारी है।"
अजी! दम्भ के आसमान पर, इतराते मंडराते हैं।
उन्हें गर्व है, धरा के लिये, बादल पूजे जाते हैं।
सर्व विदित है धरती का ही, जल बादल को जाता है।
इसी का हिस्सा खाकर बादल, जगह जगह बरसाता है।
बड़ी बेशर्मी से फिर भी, कहती "कुदरत महतारी" है।
"बदरे के है शौक बरसना, धरती दांव के यारी है।"
~पं० सुमित शर्मा 'पीयूष'
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