**** दीमक ***
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बड़े जतन से द्वेष मिटाकर, हम संपर्क में आये थे।
हम अतीत के घाव भुला कर, प्रेम निभाने आये थे।
हमने फिर बुनियाद थमा दी, कब्र खोदने वालों को।
जज्बातों की डोर सौंप दी, रूह रौंदने वालों को।
छल का छद्म-वस्त्र डालकर, वो मन-घर मे उतर गए।
'अपना' 'अपना' कहकर सारे, घर के पाये कुतर गए।
इनकी नजर लगी थी मेरे हिस्से के अंगूरों पर।
बेवजह विश्वास कर लिया, इन कपटी लंगूरों पर
पता नहीं था ये अजगर जिह्वा निकाल कर बैठे थे।
संतों की पोशाक में इतना जहर पालकर बैठे थे।
हम जबतक सुध लेते तबतक वो कमाल कर बैठे थे।
हम दो कौर न खाए, वो थाली खंगाल कर बैठे थे।
अपने कपट की कैंची से, विश्वास का धागा काट गए।
मेरे हिस्से की चौखट भी, 'दीमक' देखो चाट गए।
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~पं० सुमित शर्मा 'पीयूष'
अध्यक्ष : विश्व जनचेतना ट्रस्ट भारत (बिहार)
संपर्क : 7992272251
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