विषय : पुष्प
एक फूल खिला बरसों के बाद, घर के बंजर ओसारे में।
माँ की ममतामय मिट्टी में, बाबा की बाँहों के क्यारे में।
उस फूल की सुंदरता ऐसी, जैसे रति ने हो स्वांग भरा।
ज्यों भरी स्निग्धता कूट-कूट, पंखुड़ियों तक में पराग भरा।
अधरों पर स्मित सी लकीर, ऐसा कुदरत ने खींचा था।
लज्जा औ लरज की डाली को, खुद शील-स्नेह ने सींचा था।
इस डर से कि न सूख सके, औ रहे सुरक्षित डाली में।
माँ-बाप लगे रहते नित-दिन, उस बेटी की रखवाली में।
ज्यों-ज्यों पौधा वह बड़ा हुआ, औ तने पे अपने खड़ा हुआ।
तब सख्त-पना था टहनी में, स्वभाव पुष्प का कड़ा हुआ।
माँ-बाप का नित सौगुण सिंचन अब तो न तनिक सुहाता था।
घर की ड्योढ़ी से झाँक उसे, बाहर का पथिक लुभाता था।
एक रोज वह सूर्योदय से पूर्व, अन्तस् पीड़ा से जाग गई।
छुप-छुप कर के अपनों से ही, वह पथिक संग फिर भाग गई।
माँ-बाप बिलखते थे निशि-दिन, अपनी उस पुष्प की करनी पर।
पत्ते तक करते थे विलाप, सौंदर्य बचा न टहनी पर।
बीत गए दिन शनै: शनै:, इस बात के अरसे गुजर गए।
उस पुष्प के अल्हड़ बचपन के, यादें यादों से उतर गए।
तब एक रोज माँ ने देखा, कुछ तितलियों की आहट पर।
वह फूल विक्षत हो बिखरी थी, अपने ही घर की चौखट पर।
बेजान हुई, निष्प्राण हुई वह, अब चौखट पर लेटी थी।
था वेश भिखारन सा उसका, जो इस घर की ही बेटी थी।
माँ चीख उठी कर हाय-हाय, यों पीट वक्ष को करतल से।
निर्वस्त्र पुष्प की काया को, ढँक दिया सुलगते आँचल से।
उस ममता की शक्ति से ऐसी, पुष्प-देह में आग उठी।
कब तक बेसुध सोई रहती वह? सिसक-सिसक कर जाग उठी।
वह बोली, माँ मैं छली गई, इस जगत के मिथ-आकर्षण से।
झूठे विश्वास के धागे से, मिथ्या के प्रेम-प्रदर्शन से।
मैं तो अपनी ही करनी से, माँ रोज मौत-एक मरती थी।
नित पथिक की बाहें निष्ठुरता से मेरे पंख कतरती थी।
एक रोज तो हद हो गई कि जब उसने भारी मदिरा-मय में।
एक पशु की भाँति बेच दिया, मुझको जबरन वेश्यालय में।
ज्यों-ज्यों लिबास कतरा जाता, मैं भी कतरन हो जाती थी।
हर रोज उर्वशी सी सजती, औ फिर उतरन हो जाती थी।
मैं कतरा-कतरा हुई थी माँ, एक रोज जो आई शामत थी।
उस होनी का होना सचमुच माँ मेरे लिए कयामत थी।
उस कोठे की एक कोठर में, मुझको बेहोश कर चले गए।
दस-बीस भेड़ियों के सम्मुख, मुझको परोस कर चले गए।
उन भूखे सभी दरिंदों ने, सब हदें पार कर डाली माँ।
कर गए चीथड़े अस्मत के, सब तार-तार कर डाली माँ।
दस दिन भूखा-प्यासा रक्खा, जब अदा बची न करवट पर।
तब मार-पीट कर फेंक गए, मुझको मेरे ही चौखट पर।
किस मुँह से अब माफी माँगूँ, माँ शब्द मेरे लड़खड़ा रहे।
माँ छोड़ दो मेरी लाश यहीं, यह चौखट पर ही पड़ा रहे।
मैंने खुद का तक न सोचा, मैं कितनी बड़ी अभागी हूँ?
अब सदा के लिये सोने दो, सौ बार तो मरकर जागी हूँ।
कुछ बोलो माँ आखिरी बार, अब तुम्ही को सुनना चाहूँ मैं।
लोरी ही चलो सुना दो न, एक नींद ही बुनना चाहूँ मैं।
कुछ पल तक न आवाज हुई, न हुआ हवा का कोई असर।
दो लाशें अब थी पड़ी हुई, दोनों चौखट के इधर-उधर।
✍✍✍✍✍✍✍✍
रचनाकार : पं० सुमित शर्मा 'पीयूष'
संपर्क : 7992272251
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
हिंदी साहित्य वैभव पर आने के लिए धन्यवाद । अगर आपको यह post पसंद आया हो तो कृपया इसे शेयर कीजिये और comments करके बताये की आपको यह कैसा लगा और हमारे आने वाले आर्टिक्ल को पाने के लिए फ्री मे subscribe करे
अगर आपके पास हमारे ब्लॉग या ब्लॉग पोस्ट से संबंधित कोई भी समस्या है तो कृपया अवगत करायें ।
अपनी कविता, गज़लें, कहानी, जीवनी, अपनी छवि या नाम के साथ हमारे मेल या वाटसअप नं. पर भेजें, हम आपकी पढ़ने की सामग्री के लिए प्रकाशित करेंगे
भेजें: - Aksbadauni@gmail.com
वाटसअप न. - 9627193400