आज समाज के उस हिस्से की तरफ से लिखने का प्रयास कर रहा हूँ जिसे हम समाज का हिस्सा नहीं मानते। यद्यपि उनकी कोई गलती नहीं और न ही उन्हें इस बात का कोई अफसोस है परंतु हमारी हेय दृष्टि उन्हें कैसा सोचने पर मजबूर कर देती है? एक किन्नर की नज़र से पढ़ें।
रूप से कुरूप हैं, विद्रूप हैं।
हम स्वयं संताप का स्तूप हैं
न सुबह की ओस, न रुत शाम की,
हम दिवा की चिलचिलाती धूप हैं।
नर हैं, नारी, क्या बताएँ हम तुम्हें?
हम तो कुदरत का जना अवसाद हैं।
हम त्रिशंकु हैं गति और कर्म का।
ठोकरें खाती हुईं फरियाद हैं।
हम बिना अग्नि के ही जलती हुई,
राख में लिपटी हुई उन्माद हैं।
आस हैं अस्तित्व की, अधिकार की,
हेय से मुक्ति के हम मोहताज हैं।
खाक में मिलता कोई हम ख्वाब हैं।
हम प्रकृति का उभय अपवाद हैं।
हम जनन के हक से भी वंचित यहाँ।
हम नपुंसकता के बस पर्याय हैं
दोष क्या दें कुदरती कुंठा को हम?
हम तो बेमन से लिखा अध्याय हैं।
हम विधाता का भरे बाजार में
जानकर थोपा गया अन्याय हैं
यूँ कहो कि लाश हैं चलती हुई,
औ लतीफों का असल अभिप्राय हैं।
मुस्कुराहट बाँटते हैं, गम छुपा
हम तो अभिनय के प्रचुर भंडार हैं।
कोढ़ हैं सृष्टि के मानव जात की,
खुद में ही दबती कोई चीत्कार हैं।
हम बिना अपराध के अपराध हैं।
हम प्रकृति का उभय अपवाद हैं।
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~ पं० सुमित शर्मा 'पीयूष'
अध्यक्ष : विश्व जनचेतना ट्रस्ट भारत (बिहार)
संपर्क : 7992272251
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