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रविवार, 12 अप्रैल 2020

हाँ माना, मैंने ना कर दी, मुझको इस निर्णय का हक था - सुमित शर्मा

हाँ माना, मैंने ना कर दी, मुझको इस निर्णय का हक था।
लेकिन तुम्हारा मुझ पर यूँ, इस तरह भड़कना नाहक था।

तुम एक तरफ़ा थे डूब गए, मेरे तन की सुंदरता पर।
इस चेहरे के गोरेपन पर, इस देह की स्निग्ध सुघड़ता पर।

वह रोज मेरा पीछा करना, उस कॉलेज के दरवाजे तक।
बेढंगा सा लगता था सब, तुम जो समझो उसको बेशक।

मैं नजर झुकाकर चलती थी, उसे प्यार समझते थे न तुम?
मेरे दिल पर एक अपना ही, अधिकार समझते थे न तुम?

अपने मित्रों को दिखला कर, तुम मोल लगाते थे मेरा।
वह माल मेरी है, यह कहकर, सम्मान बढ़ाते थे मेरा।

एक सीमा होगी, यह विचार, चुपचाप मैं ये सब सहती थी।
हर-रोज पीड़ित बन जाती थी,पर किसी से कुछ न कहती थी।

उस दिन तो तुमने हद कर दी, जब हाथ सड़क पर पकड़ लिया।
मेरा झटका दे देने पर, तुमने  मुझको  ही  जकड़  लिया।

तुमसे बचने का पास मेरे, न दूजा कोई सहारा था।
तब ना कहकर मजबूरी में ही तुम्हें तमाचा मारा था।

मैं मान रही थी तब तुमको, तो अक्ल जरा आई होगी।
मैं क्षमा माँग लूँगी फिर से, नुकसान की भरपाई होगी।

पर मद में चूर थे मर्द बड़े, तुम हार भला कैसे जाते?
अपना पौरुष दिखलाये बिना, बिसार भला कैसे जाते।

मैं ही तो बड़ी अभागी थी, अपनी किस्मत से छली गई।
जो तुम्हें समझ कर शर्मिंदा, मैं क्षमा माँगने चली गई।

तब वक्ष-वीथिका धरकर तुमने, मुझको परे धकेल दिया।
कुछ कहने से पहले तुमने, मुँह पर तेजाब उड़ेल दिया।

मैं लहर गई, हाँ लहर गई, औ कतरा-कतरा कतर गई।
मैं छुपा रही थी चेहरे को, चमड़ी हाथों में उतर गई।

मैं समझ सकी षड्यंत्र नहीं, अग्नि में मेरा अतीत गया।
मैं भौंचक सी जल रही थी बस, पुरुषार्थ तुम्हारा जीत गया।

अब देखो विकृत शक्ल लिए, मैं दर-दर ठोकर खाती हूँ।
जब करूँ सामना दर्पण का, मैं खुद से ही डर जाती हूँ।

जो पा न सके तो जला दिया, यह प्यार तुम्हारा कैसा था?
यह शक्ल मेरी, शरीर मेरा, अधिकार तुम्हारा कैसा था?

तुमने तो हमको जीते-जी, एक लाश बना कर छोड़ दिया।
हर पल ही घुटते रहने का, अहसास बना कर छोड़ दिया।

सब गई नीलिमा आँखों की, अधरों की स्निग्धता बिसर गई।
भौंहें टेढ़ी, नथुना टेढ़ा, चेहरे की चमड़ी सिकुड़ गई।

इस जलन की पीड़ा क्या लिक्खूँ? हर रोज ही तिल-तिल मरती हूँ।
शक्ल की अपनी देख विकृति, हर एक शाम हहरती हूँ।

मैं नहीं अकेली धरती पर, लाखों ने इसको झेला है।
सबपर बस एक ही मकसद से, नर ने तेजाब उड़ेला है।

है प्रेम उसे बस काया से, मिथ्या का प्यार जताता है।
जबरन अधिकार जताता है, फिर हमें शिकार बनाता है।

नर जो चाहे कर सकता है, उसके पौरुष का तोल नहीं।
नारी उपभोग की वस्तु है, उसकी पसंद का मोल नहीं।

अब सब्र की सीमा टूट गई, सब टूट गया है धैर्य मेरा।
तुमने किस हक से छीन लिया, प्रकृति मेरी, सौंदर्य मेरा?

गर अभी तुम्हें मैं हाँ कर दूँ! क्या रज में रस कर सकते हो?
इस बिगड़े शक्ल की आकृति, क्या तुम वापस कर सकते हो?

पर नहीं! तुम्हें तो बस जबरन, अधिकार जताना आता है।
औ पा न सके जबरदस्ती, तो उसे मिटाना आता है।

ईश्वर न करे, कि अनुभव हो, एक दिन ऐसी ही जलन तुम्हें।
तेजाब से जली दिखलाए, जब शक्ल तुम्हारी बहन तुम्हें।

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रचनाकार : पं० सुमित शर्मा 'पीयूष'
संपर्क : 7992272251
अध्यक्ष : ज.सा.सा.समिति (बिहार)

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