*विषय : भूख*
दिनांक : 13 जुलाई 2019
स्तनों में क्षीर न थी आज भी रुखसार की,
औ कदाचित् हद नहीं थी अहद के किलकार की।
किस तरह से वह मिटाती भूख फिर परिवार की,
रोटियां ना शेष थीं भंसार में उधार की।
कोई कुंठा नहीं, वह बस क्षुधा का अनुराग थी।
पीर थी इतनी कि बच्चों के उदर में आग थी।
और शाहिद भी नहीं था सिर टिकाकर रोने को,
दर्द का संचय ही थी वह, शून्य का संभाग थी।
सौ टके की सांस थी और तीन दिन का फासला,
भूख की ज्वाला पे इख्तियार उसका न चला।
औ किसी ने दो टके की मदद तक बख्शी नहीं,
तो विवश नारी अजी बतलाओ करती क्या भला?
भूख का जब खेल न था, खेल अपने हाथ का,
तम ने गर्दन धर लिया फिर चौदसी की रात का
कंपकंपाते करों से ममता ने माया तोड़ दी,
घोंट ही डाला अजी उसनेे गला नवजात का।
बिलबिलाते भूख से कितने अहद मरते यहाँ,
ऐसी ही स्थिति है अजी सैंकड़ों रुखसार की।
जब कोई युक्ति न सूझी क्षुधा के प्रतिकार की
तो कहानी खत्म कर दी भूख के आधार की।
✍✍✍✍✍✍✍✍
~पं० सुमित शर्मा 'पीयूष'
अध्यक्ष : विश्व जनचेतना ट्रस्ट भारत (बिहार)
संपर्क : 7992272251
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