पाठकों पर छोड़ दो, खुद की
समीक्षा का जरा दायित्व तुम।
स्वयं का लिक्खा हुआ, गर
स्वयं को ही भा गया, तो दोष है।
रच दिया यौवन, तो फिर तन के
उभारों की तनिक चिंता न कर।
'मैं ही मूर्त्तिकार हूँ', यह अहम्
मति को खा गया, तो दोष है।
सृजन से वात्सल्यता का बोध हो,
तबतलक इस प्रेम का रसपान कर।
श्रेष्ठता के भान का चिथड़ा चंदोआ,
खुल के सर पे आ गया, तो दोष है।
पाठकों का भी बड़ा दायित्व है, उन
का समीक्षा से ही बस अभिप्राय हो
मन समीक्षा से उतर कर, अप-
हरण पर आ गया, तो दोष है।
क्षम्य है, जबतक निहारा जाय
कवियों की तरह सौंदर्य को।
नज़र का टाँका लुढ़क कर,
स्तनों पर आ गया तो दोष है।
पुत्र की तरह सृजन को
पोषता है, हर सृजनकर्त्ता सुनो।
हर के मौलिकता किसी की
कोई दूजा खा गया तो दोष है।
✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻
~पं० सुमित शर्मा 'पीयूष'
अध्यक्ष : विश्व जनचेतना ट्रस्ट भारत (बिहार)
संपर्क : 7992272251
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