भावनाओं ने कहा तो अंजुरी भर गीत ले कर आ रहे हम।
विघ्न भी हैं सघन राह में निशिचर खड़े आघात को तम।
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संगठित निशिचर हुए और भद्रजन में द्वेष है।
बुद्धि का अभिमान अतिशय नेह न अब शेष है।
भावनाएँ शून्य हैं अब वो स्वयंभू बन गये खुद,
बुद्धि का वो आचमन हैं दे रहे अतिशेष है।
दैव होने का है किंचित भाव उनको हो रहा भ्रम।-01
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इन्द्र सम है आचरण पग हैं भ्रमित पावन बने ग़ुलनाग से।
मेनकाएँ और रम्भा की शरण में प्रेमरस हैं पी रहे अनुराग से।
मिल चुका आशीष सत्ता की शरण में गोद बैठे दिख रहे,
लिख रहे नूतन कथानक स्वर्ग सुख ज्यों खेलते वो फाग से।
चल रहा अनुकूल मौसम जा चुका अब जो रहा कल तक विषम।-02
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आज प्रतिभा है उपेक्षित गढ़ रहे नूतन नवल प्रतिमान हैं।
नीतिगत मत पूँछिए जो वो कहें तो मानिए इंसान हैं।
टकटकी हम हैं लगाए आश जागी अंजुली भर आचमन की,
दैव समझा मतिभ्रमित खुद को नहीं वो मानते इंसान हैं।
कालजय की राह में वो जा रहे मुझको गिराकर है वहम।-03
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स्वरचित कापीराइट गीतकार,
प्रदीप ध्रुवभोपाली, भोपाल,म.प्र.
दिनाँक.11/12/2019
मो.09589349070
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