जिनपर जख्म दिया अपनों ने, मैं वो हिस्से भूल रहा हूँ।
जिनसे यदा-कदा विचलित था, मैं वो किस्से भूल रहा हूँ।।
भूल रहा हूँ उन लोगों को, जिसने अवसर खूब भुनाया।
जिन्हें रास मैं न आ पाया, मैं वो रिश्ते भूल रहा हूँ।।
भूल रहा हूँ उन यादों को, जिनके घाव नहीं भर पाते।
शनै:-शनैः सब भूल रहा हूँ, सने-स्वार्थ-में रिश्ते-नाते।।
चमक रहे थे सिर पर आकर, उनकी भी सच्चाई देखी।
गोधुल में सूरज को मद्धम, देख रहा हूँ मैं उतराते।।
प्रतिदिवस, प्रतिपहर चुकाई, सारी किस्तें भूल रहा हूँ।
जिन्हें रास मैं ना आ पाया, मैं वो रिश्ते भूल रहा हूँ।।
उन बंदों को भूल रहा हूँ, जिसने खंजर पीठ-पजाया।
मेरे नाम का इतर लगाकर, जिसने अपना हित चमकाया।।
जिसने बीज द्वेष के बो-कर, नैतिकता का दम्भ भरा है।
खाद खिन्नता के दे-देकर, अजी क्लेश का पौध उगाया।।
छल के सभी छुहाड़े और, प्रपंची-पिस्ते भूल रहा हूँ।
जिन्हें रास मैं न आ पाया, मैं वो रिश्ते भूल रहा हूँ।।
जिनसे मेरा हित न साधा, मैं वो बातें भूल रहा हूँ।
जिसने सुबह रोक रखी थी, मैं वो रातें भूल रहा हूँ।।
भूल रहा हूँ उस सर्दी को, जिसमें ठिठुर रही थी साँसें।
सब कीचड़-कीचड़ कर डाला, वो बरसातें भूल रहा हूँ।।
कल की बीती सारी बातें, आज, अभी-से भूल रहा हूँ।
जिन्हें रास मैं न आ पाया, मैं वो रिश्ते भूल रहा हूँ।।
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~पं० सुमित शर्मा 'पीयूष'
अध्यक्ष : विश्व जनचेतना ट्रस्ट भारत (बिहार)
संपर्क : 7992272251
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