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रविवार, 12 अप्रैल 2020

रोई घर की रोटी थी - सुमित शर्मा

सिसक रही डब्बों में भरकर
आई बोटी-बोटी थी।
चीख रहा था घर का चूल्हा,
रोई घर की रोटी थी।

रोती थी चीत्कार संगिनी,
धड़ से पृथक भुजाओं पर।
रोते थे सब बाल-सखा,
हर गलियों पर, चौराहों पर।

रोती थी संतान कि जिसने,
मुख ना ढंग से खोला था।
रोते सभी खिलौने थे,
रोता सुनसान हिंडोला था।

लिए अंजुरी में बेटे का 
मांस, वो मइया रोई थी।
टुकड़ों में, व्याकुल हो ढूंढती
सांस, वो मइया रोई थी।

दिल के सौ उद्गार छिपे थे,
बेबस पिता की आंखों में।
कितने ही चीत्कार दबे थे,
बेबस पिता की आंखों में।

बहना ने कमरे में खुद को,
बंद कर लिया भीतर से।
और दहाड़ें मार-मारकर,
रोने लगी वो भीतर से।

दो ही टुकड़ों में अपना,
अवतार ये कैसा भेज दिया?
राखी के बदले भइया,
उपहार ये कैसा भेज दिया?

तब समाज के रोम-रोम में,
क्रोध अतुल भर आया था।
जब उनका बेटा टुकड़ों में,
बंट कर के घर आया था।

पुरखों की परिपाटी पर,
औ पुलवामा की माटी पर।
घर का सुत कुर्बान हो गया,
काश्मीर की छाती पर।

✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻
~पं० सुमित शर्मा 'पीयूष'
अध्यक्ष : विश्व जनचेतना ट्रस्ट भारत (बिहार)
संपर्क : 7992272251

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