अब न विश्वास रहा बातों में या काम में,
ख़ुशी दीखती ही नहीं कहीं ख़ासो-आम में,
भाव गिर गया आते-आते जैसे शाम में,
लोकतन्त्र बिक रहा कौड़ियों के दाम में,
कहीं टोपियों की होली जलवाई जा रही,
कहीं आग हरिधाम में लगाई जा रही,
कीमत कहीं उठाई या गिराई जा रही,
भारत की अस्मिता भी लुटवाई जा रही,
राजनीति ने ये कैसे बन्दे बना रक्खे हैं,
सत्ताभोग ने ये सभी अंधे बना रक्खे हैं,
सेवा नहीं, सबने ये धंधे बना रक्खे हैं,
जन को कुचलने के फन्दे बना रक्खे हैं,
मतदान ऐसा दान है जो फलता नहीं,
अब इस दान से निदान मिलता नहीं,
मति बंद होती मार्ग भी निकलता नहीं,
बलि का विधान यह टाले-टलता नहीं,
राजनीतिजन्य कोलाहल, काँव-काँव में
लोभी-पापियों की नगरी में, ठाँव-ठाँव में
उन तक ध्यान बरबस चला जाता है
एक वही रूप हमें ढांढस बँधाता है
एक कर्म, एक धर्म धारते रहे हैं वे
भारती की आरती उतारते रहे हैं वे
उनके ही दम से हमारा अभिमान है
उन वीरों का ऋणी तो पूरा हिन्दुस्तान है
प्रणाम है, प्रणाम है, प्रणाम है, प्रणाम है
उन रण बांकुरों को सादर प्रणाम है.
-
आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ
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