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रविवार, 5 अप्रैल 2020

डॉ सरला सिहँ की कुछ कवितायें

01--रण
तुम चुप कैसे हो ?
कैसा है रण ये तेरा ?
दर्द नहीं होता सीने में,
देख वीरोंसंग अपघात ।
कैसे चुप सह जाते हो,
उनके गन्दे कृत्यों को ।
दो के सिर काटे कायर ने,
पीछे से आघात किया ।
वीर लड़ते हैं सामने आकर,
उसने पीछे से वार किया ।
सैनिक कहलाने लायक 
हैं ही नहीं कायर वे तो ।
कैसे पाक कहलाते हैं वे ,
काम घिनौने हैं जिनके ।
इंसा होकर इंसा का सिर काटे,
राक्षस से भी बदतर हैं वे ।
दो के बदले दस को मारो,
तब सच्चा बदला होगा ।
कायर को तो सबक सिखाना,
अनिवार्य रूप से जरूरी है ।
कैसी माँ के थे कपूत वे,
कैसे गुरू अवगुणी से शिक्षा पायी,
जिसने ऐसा कृत्य किया था,
पामर ,कायर ,आततायी, राक्षस ।


डॉ.सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली


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          02-  तलाक

तीन तलाक भी सती प्रथा की ही तरह
गलत है प्रथा समाज की मेरे ये भाई ।
वहाँ जलाया जाता था मृत के साथ में,
साथ पूरे धूमधाम और गाजे बाजे के।
कहा जाता औरत से बन रही वो देवी,
जा रही है अपने पति के साथ स्वर्ग में।
पर नहीं भेजा जाता था पति को कभी,
उसकी मृत पत्नी के साथ स्वर्ग  धाम।
आखिर क्या पति का फर्ज नहीं था वो,
निभाता वो निजमृतपत्नी का भी साथ।
यहाँ भी काट दिये हाथ औरत के और,
छीन लिए अधिकार उसके चालाकी से।
हथियार था तलाक का बड़ा ही धारदार ,
हंस सकती खुलकर नहीं रो सकती ही है।
जरा सी गलती हुई तो तलाक का ख़ौफ,
बस गुलामी की जंजीरों में बंधी  रहती है।
कहाँ जाये गरीब बेबस औरत दुनिया में ,
वो आदमी के गुलामी में बस तड़पती है ।
यही अधिकार महिलाओं को भी दे दो तुम ,
जब चाहें तुम्हें दे दें वे तलाक आजा़द हों ।
पर तुम्हें क्या तुमपर कोई असर नहीं होगा,
समाज तुम्हारा है कानून भी तुम्हारा ही है ।
हटा दो अब तो ये तलाक की जंजीर तुम ,
नारी के गले में पहना रखा है कब से भाई ।
आजादी की हवा में लेने दो उसे भी सांस ,
वो भी तुम्हारी तरह इंसान है जीवन से युक्त।

डॉ.सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली ।

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.  03.. दर्द

जमाने में दर्द बहुत है हो सके तो बता दीजिए,
दर्देदिल कुछ कम हो जायेगा मुस्कुरा दीजिए।

इस जमाने में स्वार्थी जनों की भरमार साथी ,
हो सके तो ये दोस्त उनको अब भुला दीजिए ।

छोड़ दे साथ पैमाने का सुन मेरे भोले साथी ,
चीज है जो बुरी अब उसको हटा ही दीजिए ।

कर भला तो होगा भला ये रीत कितनी पुरानी ,
दूसरो के दुखदूर कर सुखचैन उनको दीजिए ।

कर सकूँ कुछ का तो हृदय परिवर्तन ये साथी,
शारदे सरला को ऐसा मानस मना बना दीजिए।

डॉ.सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली

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        04 --इंसानियत
        *********
इंसान हो 
इंसानियत का धर्म
हमेशा निभाया कीजिए ।
मानव का
जन्म लेकर साथी
कर्म सही कीजिए।
राह हो
कंटकों से भरा हुआ
भय न मन में कीजिए ।
सत्य का 
पथ ही पकड़ना
असत्य छोड़ दीजिए ।
चार दिन की
ज़िन्दगानी है ये
इसको न गंवा दीजिए।
हो सके गर
दुनिया का साथी ,
कल्याण किया कीजिए।
इंसान हो
इंसानियत का धर्म
 हरदम निभाया कीजिए ।

डॉ.सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली ।

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     05--  जिन्दगी
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हर पल में ही ये बदल जाती है,
जाने कितने ही रंग ये दिखाती है ।

जो अभी अभी सुनहली सी लगे,
कि तभी वो साँवली हो जाती है ।

जन्नत के ऐश जो नजर आते कभी,
कभी वो जहन्नुम सी नजर आती है ।

लगे निहायत से लोग लगे अपने जो,
रिश्ते वही परायों में बदल जाती है ।

अरमान की जो कली खिलती कभी,
कभी टूट कर  वो ही बिख़र  जाती है ।

पैसों की खनक से उपजे रिश्ते जग में,
पैसों के साथ ही वो दफन हो जाती है ।

राख का ढेर है सुन्दर सी काया प्राणी,
फिर ये क्यों अभिमान में खो जाती है ।

तिनका भी संग नहीं जाता गर हमारे,
दौलत पाने को क्या-क्या कर जाती है।

जिन्दगी चार दिन की मेहमान है बस,
फिर भी क्यों ये जीती न जीने देती है ।

खुशियों की खुशबू से भर दे ये दुनिया ,
फिर तड़पा करके ही क्यों खुश होती है।

इंसा इंसानियत सब समान है जग में,
इंसा के नियंता को क्यों बाँट देती है ।

जिन्दगी हर पल ही बदल जाती है ,
कभी हंसाती है तो कभी रुलाती है।

डॉ.सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली

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   06--सुनो कान्हा !
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कान्हा अब तो बता दो,
बीत गई सदियां कई ।
मेरे अनुत्तरित प्रश्न का 
उत्तर अब तो दे दो ।
चाहते थे मुझे कितना,
बता दो आज तुम ।
मैं तो जीवनसंगिनी
बनना चाहती थी
तुम्हारी कान्हा ।
तुम तो मथुरा के
शासक भी बने ।
विवश किस लिए थे
बना न सके मुझे
जीवनपथ का साथी ।
बचपन से किशोरावस्था
बीता था तुम्हारे साथ
फिर क्यो आखिर
मुझे नहीं मिल सका
अधिकार मेरा ।
क्यों नहीं आखिर,
मैं बन सकी 
तुम्हारे जीवनपथ
की साथी ।
अब तो बता दो
दे दो मेरे
अनुत्तरित प्रश्न का
उत्तर कान्हा ।
मुझे दिव्यत्व से कर
आजाद कान्हा ।
बनाते  मुझको
निज पथ की पथिक ।
बनते श्रृंगार मेरा 
पा न सकी जिसको ।
नहीं कान्हा अब और
सहा जाता नहीं ।
दे दो मेरे प्रश्न का उत्तर
सदियों से अनुत्तरित है जो ।

डॉ.सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली  ।
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   07-  किसान
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 सरहद पर जैसे सेना डटती है ,
   भारत माँ की है रक्षक बनकर ।
     खेतों में वैसेही किसान रहता है ,
        भारत का अन्नदाता है बनकर ।
 किसान के ही बलपर सारा है,
   भोजन पाता देश जीवनआधार ।
      सम्मान करो  किसान का जो है ,
         पालनकर्ता सबके ही जीवन का ।
बदहाल आज वो ही किसान है,
  देता सबको मेहनत उपजाकर।
   ऐसी में बैठे क्या जानेंगे दुनिया में,
     खेती है क्या  खेती करना क्या है ।
पैसे के बल पर इतराने वाले है,
   उनका शोषण करते जीभरकर।
      दस का अन्न खरीदें दो में फिर ,
        अपनी तिजोरी  चौगुना करते है।

डॉ.सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली ।

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               08- ''जन्मदात्री''
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नारी नारायण सम है
 जन्मदात्री दुनिया की ।
  उसके समक्ष झुकते  है,
   नर भी और नारायण भी ।
जन्मदात्री नारी दुनिया की,
  सर्वोत्तम रचना प्रभु की है।
    मातृरूप के आगे झुकती,
      सारी सृष्टि धर रूप अलग।
दुनिया की रचना प्रभु ने की,
  सृष्टिकर्ता माँ को दिया बना ।
     धरतीसम है सहनशील माँ ,
       माँ से बड़ा न कोई भी है ।
एक नहीं न दो चार माह नहीं,
  पूरे नौ माह गर्भ में पलता है ।
   तब जाकर सृष्टि का एक जीव,
     इस धरती पर आ पाता है भाई।
आसान नहीं है माँ का बनना,
  इक जीवन को धरती पर लाना।
    इसीलिए तो जन्मदात्री नारी ,
     नर नारायण दोनों से भारी है ।

 डॉ.सरला सिंह स्निग्धा 
 दिल्ली

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       09-उड़ान
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कर बैठते है उम्मीद
दूसरों से कभी कभी
खुद से भी ज्यादा ।
भूल जाते है हम
पराये पंख पर उड़ना
आसान है जितना
दर्द से भरा भी है ।
जैसे ही छिन जायेंगे
पंख पराये पंछी तो,
उड़ नहीं पाओगे ।
आदत के कारण भी
पंख पराये उड़ने की ।
उड़ना ही है गर तुझको
छूने की तमन्ना है क्षितिज़ ।
खुद पर ही कर भरोसा
उड़ना तू खुद के पंखों पर।
यही होगी तेरी सच्ची
अपनी बुलंद उड़ान ।
न करना कभी ऐसी उड़ान
लगे हों पंख गैरों के ।
खुद के पंखों पर भरोसा
रखना साथी हरपल ।

डॉ.सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली
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 10- थोड़ी सी चैन
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मिल गयी थोड़ी सी चैन
दहकते से मन को ।
तड़प रहा था कब से
इंसाफ के लिए ।
किसी के गंदे 
नरराक्षस कृत कृत्य हेतु ।
माफी लायक ही न थे
घिनौने राक्षसी कृत्य ।
नहीं गलत है ये भी
शायद राक्षस भी न करते
ऐसे अक्षम्य कृत्य ।
जानवर भी कहलाने के
लायक नहीं ऐसे प्राणी ।
वे तो बस पापी पापी
केवल पापी ।
अक्षम्य उनके कृत्य ,
केवल बध के योग्य ।

डॉ.सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली
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