◆राधेश्यामी छंद या मत्त सवैया◆
शिल्प~[16,16मात्राओं पर यति
चरणान्त में 2(गुरु),
4 चरण ,दो दो चरण समतुकांत]
हृदयहार मैं हार गया सब,
कर विहार जीत उपहार लो|
हार गले में डाल प्रिये तुम,
निहार सरस कर गलहार लो||
बहार की फुहार है भीनी,
आ जाओ यही मनुहार है|
समाहार हो मम जीवन का,
हार हार करता गुहार है||
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दिलीप कुमार पाठक "सरस"
*मत्त सवैया ~छंद*
16,16 पर यति, चार चरण, दो दो समतुकान्त|
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कागज सबको लुभा रहा है,
कागज सबको नचा रहा है|
कागज में सब सिमट गया है,
कागज सब कुछ पचा रहा है||
दोषारोपण अस्त्र शस्त्र सह,
जंगी बैठे सब ट्वीटर में|
वही पुराना छलिया कागज,
अब घुस आया कम्प्यूटर में||
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
मत्त सवैया ~छंद
विषय~हार
हृदयताल जब सूख गये फिर,
आनंद कमल कैसे खिलते|
उथले पानी की डुबकी में,
हाथों को कब मोती मिलते||
थकित पथिक की प्यास बुझाकर,
तैयार उसे बस करना है |
मीठे पानी का झरना तुम,
तुमको तो प्रतिपल झरना है||
मन टूटा या हारे मन से,
या कह लो जीते जी मरना|
आगे बढ़के कुछ कर देखो,
पथ बाधा से कैसा डरना||
सब कुछ सम्भव है इस जग में,
कुछ करने की मन में पालो|
हार बुरी है हार न मानो,
लो खुशियों की जीत सँभालो||
बीत रहा है समय सुनहरा,
पल पल का कोई मोल नहीं है|
समझ रहा सब संकेतों को,
आत्मशक्ति की जीत यहीं है||
काम करो कुछ ऐसा जग में,
भोर अरुण~सा नित वंदन हो|
पग पग पर सब पलक बिछायें,
प्रतिपल अभिनव अभिनंदन हो||
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
*मत्त सवैया ~छंद*
16,16 पर यति, चार चरण, दो दो समतुकान्त|
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कागज सबको लुभा रहा है,
कागज सबको नचा रहा है|
कागज में सब सिमट गया है,
कागज सब कुछ पचा रहा है||
दोषारोपण अस्त्र शस्त्र सह,
हर जंगी बस ट्वीटर में है|
वही पुराना छलिया कागज,
घुस आया कम्प्यूटर में है||
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
मत्त सवैया ~छंद
विषय~हार
हृदयताल जब सूख गये फिर,
आनंद कमल खिलते कैसे|
उथले पानी की डुबकी में,
हाथों मोती मिलते कैसे|
थकित पथिक की प्यास बुझाकर,
तैयार उसे बस करना है |
मीठे पानी का झरना तुम,
तुमको तो प्रतिपल झरना है||
मन टूटा या हारे मन से,
है जीते जी मरने जैसा|
आगे बढ़के कुछ कर देखो,
पथ बाधा से डरना कैसा||
सब कुछ सम्भव है इस जग में,
कुछ करने की मन में पालो|
हार बुरी है हार न मानो,
लो खुशियों की जीत सँभालो||
बीत रहा है समय सुनहरा,
पल पल का कोई मोल नहीं है|
समझ रहा सब संकेतों को,
आत्मशक्ति की जीत यहीं है||
भोर अरुण~सा नित वंदन हो,
जग में कुछ ऐसा कर जायें|
प्रतिपल अभिनव अभिनंदन हो,
पग पग पर सब पलक बिछायें||
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दिलीप कुमार पाठक "सरस"
मत्त सवैया ~छंद
विषय~हार
फिर हृदयताल जब सूख गये,
कैसे आनंद कमल खिलते|
उथले पानी की डुबकी में,
कब हाथों को मोती मिलते||
है थकित पथिक प्यासा आया,
बस प्यास मिटा दुख हरना है |
तुम मीठे पानी का झरना,
प्रतिपल तुमको तो झरना है||
मन टूटा या हारे मन से,
या कह लो जीते जी मरना|
आगे बढ़के कुछ कर देखो,
पथ बाधा से कैसा डरना||
सब कुछ सम्भव है इस जग में,
कुछ करने की मन में पालो|
है हार बुरी हार न मानो,
लो खुशियों की जीत सँभालो||
पल पल बीते धीरे धीरे,
पल पल का कोई मोल नहीं है|
सब समझ रहा संकेतों को,
है आत्मशक्ति की जीत यहाँ||
कुछ काम करो ऐसा जग में,
नित भोर अरुण~सा वंदन हो|
पग पग पर सब पलक बिछायें,
प्रतिपल अभिनव अभिनंदन हो||
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दिलीप कुमार पाठक "सरस"
राधेश्यामी/मत्त सवैया~छंद
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दिन अति प्यारा अक्षय तृतीया,
लीन्हो परशुराम अवतारा|
है तेज धार फरसा हाथों,
जब तब दुष्टों को संहारा||
फरसाधारी तेजवान अति,
खलबल का रक्त बहाया था|
जो ऋषि मुनि को करे प्रताड़ित,
वह फरसा नीचे आया था||
वह दिन सबको याद अभी तक,
जब शिवधनु योद्धा देख रहे|
था सिया वरण का दिन प्यारा,
सब देख भाग्य की रेख रहे||
शिवधनु तो वह शिवधनु ही था,
सब लज्जित होकर बैठ गये|
सबकी मूछें झुकी झुकी सब,
जलके रस्सी सम ऐंठ गये||
सीता देख राम मुस्कायीं,
फिर देखा है उस शिवधनु को|
फिर देखा है पिता जनक को,
मानो यहु वर मेरे मनु को||
फिर छुअत राम के धनु टूटा,
फिर फरसाधारी आ धमके|
फिर खचाखची थी फरसा की,
फिर लखन क्रोध में आ चमके||
क्रमशः ---------
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दिलीप कुमार पाठक "सरस"
राधेश्यामी /मत्त सवैया छंद
💐🙏🏻💐🙏🏻💐🙏🏻💐
बारह वर्ष गये कब कैसे,
दूल्हा दुलहिन द्वय मिलवाये|
थीं एक घटा वह सावन की,
घनकेश सरस मुख पर छाये||
मम प्यास हृदय की बढ़ आयी,
फिर तन मन ने ली अँगड़ाई |
वह अधरों पर बूँद सोम की,
जाने कब की तृषा बुझाई||
वह विवाह की सरस रात थी,
थी एक छुअन पहली पहली|
जब नैन मिले नैनों से आ,
साँसों ने साँसों से कह ली||
दोनों के हाथों जय माला,
धड़कन में थी तेजी आयी|
थी कभी परायी सकुचायी,
वह मम जीवन में मुस्कायी||
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
: राधेश्यामी /मत्त सवैया छंद
कब कैसे बारह वर्ष गये,
दूल्हा दुलहिन द्वय मिलवाये|
थीं एक घटा वह सावन की,
घनकेश सरस मुख पर छाये||
मम प्यास हृदय की बढ़ आयी,
फिर तन मन ने ली अँगड़ाई |
वह अधरों पर ज्यों बूँद सोम
तन में खिलती अति तरुणाई||
थी वह विवाह की सरस रात,
थी एक छुअन पहली पहली|
जब नैन मिले नैनों से आ,
साँसों ने साँसों से कह ली||
दोनों के हाथों जय माला,
धड़कन में थी तेजी आयी|
थी कभी परायी सकुचायी,
वह मम जीवन में मुस्कायी||
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
राधेश्यामी/मत्त सवैया ~छंद
राधेश्यामी छंद मनोहर,
यति सोलह सोलह पर होती|
समतुक वाले दो चरणों से,
जलती राधेश्यामी जोती||
यदि समकल से प्रारम्भ करो,
तो सुन्दर लय बन जाती है |
चार चरण में अंत गुरू हो,
राधेश्यामी कहलाती है ||
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
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