अधरों पर मुस्कान भी है, और माथे पड़ता बल भी है।
आँखें चमक रहीं हैं, भीतर मेंड़ काटता जल भी है।।
अपना हुनर बड़ा पक्का है, हर तकलीफ छुपाने का।
सतह देखकर भ्रम मत पालो, अंदर उथल-पुथल भी है।।
मेरे हृदय की व्यथा, अहो! तुमने जरा सी कम आँकी।
तुमने अड़ियल पर्वत देखे, उड़ती धूल नहीं फाँकी।।
यही काल का मारा पर्वत, अंदर-अंदर रोता है।
जब उसके पोषित जल से ही, मृदा-अपरदन होता है।।
बाहर दिखता समतल समतल, भीतर कुछ हलचल भी है।
सतह देखकर भ्रम मत पालो, अंदर उथल-पुथल भी है।
भीग रही है धरती देखो, बारिश कोने-कोने में।
संचय करती जाती है जल, छोटे-बड़े भगोने में।
यही धरा जब फटकर पपड़ी पपड़ी बस रह जाती है।
बादल की दुहरी नीति, हाँ तभी समझ में आती है।
इसी धरा पर जंगल भी है, यहीं पड़ा मरुथल भी है।
सतह देखकर भ्रम मत पालो, अंदर उथल-पुथल भी है।।
किसी मनुज के चेहरे से ही, हाल आँकना उचित नहीं।
उसको खाने दो जो खाये, थाल ताकना उचित नहीं।
जीवन की सच्चाई सुन लो, बात बहुत ही छोटी है।
हर कोई मजदूर यहाँ है, सबका ध्येय ही रोटी है।।
दो कौर जुटाना कल भी था, दो कौर जुटाना कल भी है।
सतह देखकर भ्रम मत पालो, अंदर उथल-पुथल भी है।।
✍✍✍✍✍✍
~पं० सुमित शर्मा "पीयूष"
अध्यक्ष : ज.सा.सा.समिति (बिहार)
सम्पर्क : 7992272251
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