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सोमवार, 6 अप्रैल 2020

कौन सी दौलत भरूँ - सुमित शर्मा

उफ! जलन बाती के तन की, दीये को दिखती नहीं।
लौ तो अंदर तक जली, पर पेंद को दीप्ति नहीं।
कौन सी दौलत भरूँ अब, बिन तली की टोकरी में।
फट गया बादल यहाँ, और नदी को तृप्ति नहीं।

घिस   गए    जूते    मगर, मंजिल ने रक्खा फासला।
हम  कदम  कैसे  बढ़ाते? होश   था,   न    हौसला।
फिर भी अपना खूँ जलाकर, हम  सुलगते  चल  पड़े।
राख होकर जब बढ़े तो, सामने  था  जल-जला।

हो चुकी जो राख रोटी, दुबारा  सिंकती  नही।
यह हकीकत जलजले को, क्यों भला दिखती नहीं?
कौन सी दौलत भरूँ अब बिन तली की टोकरी में?
फट गया बादल यहाँ, औ' नदी को तृप्ति नहीं।

मैं अभी तक होश में हूँ, प्यास हो तो फिर कहो।
बुझ रही पावक, तपन की आस हो  तो  फिर  कहो।
लाश   में   भी  श्वास  का, अनुप्रास जो तुम ढूँढते हो।
मृत्यु-क्षण   के   दर्द   का, अहसास हो तो फिर कहो।

हाँ!  कृत्रिम   संवेदना, बाज़ार में बिकती नहीं।
ये हकीकत ग्राहकों को, क्यों भला दिखती नहीं
कौन सी दौलत भरूँ अब बिन तली की टोकरी में?
फट गया बादल यहाँ, औ' नदी को तृप्ति नहीं।

✍✍✍✍✍✍
पं० सुमित शर्मा 'पीयूष'
अध्यक्ष : जनचेतना सा. सा. समिति (बिहार)
संपर्क : 7992272251

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