अपने पिता-तुल्य गुरु (श्रीमान जी) श्री सत्येंद्र प्रसाद सिंह, 'प्रधानाध्यापक : ज्ञान भारती, विज्ञान क्लब, बाढ़ (पटना)' एवं माता-तुल्य गुरुमाता श्रीमती ममता देवी (दीदीजी) को समर्पित मेरी यह नूतन रचना।
(तर्ज : ये तो सच है कि भगवान है)
जिस डाली में बचपन खिला, उस डाली का भी शुक्रिया।
जिस माली ने सींचा मुझे, उस माली का भी शुक्रिया।।
संस्कृति सींचकर, जिसने पोषण दिया।
ज्ञान के पुंज से, जिसने रोशन किया।
उंगलियाँ थामकर, शब्द जिसने गढ़े,
सत्य की खाद का, जिसने भोजन दिया।
दोपहर की वो "ममता" भरी, उस "थाली" का भी शुक्रिया।
जिस माली ने सींचा मुझे, उस माली का भी शुक्रिया।।
शिष्टता संचयन, प्रेम का पल्लवन,
ज्ञान-गंगा के गोमुख का सु-प्रस्फुटन।
ऐसी भागीरथी, को मेरा सौ नमन,
उनके पग-तल के प्रालेय का आचमन।
धार को जिसने दे दी दिशा, उस कुदाली का भी शुक्रिया।
जिस माली ने सींचा मुझे, उस माली का भी शुक्रिया।।
हम तो बे-पैर थे, उन्होंने पाँव दी,
अक्षरों की नदी में, हमें नाव दी
झुर्रियाँ गाल पर अब जताती हैं ये,
धूप उसने सही, पर हमें छाँव दी।
खुद जलीं पर, हमें रच गईं, उस पराली का भी शुक्रिया।
जिस माली ने सींचा मुझे, उस माली का भी शुक्रिया।।
✍✍✍✍✍✍✍
~पं० सुमित शर्मा "पीयूष"
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