जब धरा-धाम पर पाप बढ़ जाता है
मानवी समाज पे विनाश मंडराता है
तब ये गगन ले हिलोर अंगड़ाता है
कालचक्रगति फेरने को कृष्ण आता है
कारा में विधाता ने ये घननाद किया था
दुष्टवृत्तियों में उपजा विवाद दिया था
हर सभी ऋषिगणों का विषाद लिया था
सुप्त चेतना में भर आह्लाद दिया था
दूर करने को धर्मपथिकों के दंश को
सिद्ध करने को पौराणिक अवतंश को
महापुण्य का प्रताप देने चन्द्र वंश को
कृष्ण अवतार होगा मारने को कंस को
वसुदेव तेरा भाग्य-तम हर लेगा ये
तेरा नाम जग में अमर कर देगा ये
पूरी सभ्यता का ही चरित्र बदलेगा ये
नव्य लक्ष्य मानव समाज के रचेगा ये
पाप की ये संस्कृतियाँ पलट जाएँगी
अहमन्यताएं वीरों की सिमट जाएँगी
धर्म से अधर्म की घटाएँ हट जाएँगी
युग दृष्टियों से धुंध छँट-छँट जाएँगी
एकाएक कोई तेजपुञ्ज उभरा वहाँ
सीधे अंतरिक्ष से हो सूर्य ज्यों गिरा वहाँ
दौड़े आये यक्ष, नाग, देव, अप्सरा वहाँ,
थम गया मानो कालचक्र का धुरा वहाँ
हर्षमयी जयकार चहुँ ओर हो उठी.
मानो कि समूची जगती ही मोर हो उठी.
मुक्त परतन्त्र मन की हिलोर हो उठी.
कोठरी में अर्द्धरात्रि में ही भोर हो उठी.
दामिनीे सी तीव्र तेजयुक्त दृष्टि उनकी
भाद्रवृष्टि ही समूची देहयष्टि उनकी
पग धरती पे व्योम में थी मुष्टि उनकी
छवि को निहार हुई धन्य सृष्टि उनकी
कालरात्रि की कराल कालिमा समेटकर
किलकारते थे श्याम गोद लेट-लेटकर
जग को अपूर्व अद्वितीय सूर्य भेंटकर
चले वसुदेव लत्तों-पत्तों में लपेटकर
मेघगर्जनाएँ और-और तीव्र हो गईं.
पहरे में लगीं सेनाएँ सशस्त्र सो गईं.
सोईं क्या कि मानो वे ऐसे अचेत हो गईं.
जैसे बुद्धि जागते ही वासनाएँ खो गईं.
पुत्र सात चले गए भले वसुदेव के.
युगों-युगों के थे पुण्य खिले वसुदेव के.
देवों के भी मान आगे तुले वसुदेव के.
बेड़ियाँ खुलीं कि भाग्य खुले वसुदेव के.
-
आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ
मानवी समाज पे विनाश मंडराता है
तब ये गगन ले हिलोर अंगड़ाता है
कालचक्रगति फेरने को कृष्ण आता है
कारा में विधाता ने ये घननाद किया था
दुष्टवृत्तियों में उपजा विवाद दिया था
हर सभी ऋषिगणों का विषाद लिया था
सुप्त चेतना में भर आह्लाद दिया था
दूर करने को धर्मपथिकों के दंश को
सिद्ध करने को पौराणिक अवतंश को
महापुण्य का प्रताप देने चन्द्र वंश को
कृष्ण अवतार होगा मारने को कंस को
वसुदेव तेरा भाग्य-तम हर लेगा ये
तेरा नाम जग में अमर कर देगा ये
पूरी सभ्यता का ही चरित्र बदलेगा ये
नव्य लक्ष्य मानव समाज के रचेगा ये
पाप की ये संस्कृतियाँ पलट जाएँगी
अहमन्यताएं वीरों की सिमट जाएँगी
धर्म से अधर्म की घटाएँ हट जाएँगी
युग दृष्टियों से धुंध छँट-छँट जाएँगी
एकाएक कोई तेजपुञ्ज उभरा वहाँ
सीधे अंतरिक्ष से हो सूर्य ज्यों गिरा वहाँ
दौड़े आये यक्ष, नाग, देव, अप्सरा वहाँ,
थम गया मानो कालचक्र का धुरा वहाँ
हर्षमयी जयकार चहुँ ओर हो उठी.
मानो कि समूची जगती ही मोर हो उठी.
मुक्त परतन्त्र मन की हिलोर हो उठी.
कोठरी में अर्द्धरात्रि में ही भोर हो उठी.
दामिनीे सी तीव्र तेजयुक्त दृष्टि उनकी
भाद्रवृष्टि ही समूची देहयष्टि उनकी
पग धरती पे व्योम में थी मुष्टि उनकी
छवि को निहार हुई धन्य सृष्टि उनकी
कालरात्रि की कराल कालिमा समेटकर
किलकारते थे श्याम गोद लेट-लेटकर
जग को अपूर्व अद्वितीय सूर्य भेंटकर
चले वसुदेव लत्तों-पत्तों में लपेटकर
मेघगर्जनाएँ और-और तीव्र हो गईं.
पहरे में लगीं सेनाएँ सशस्त्र सो गईं.
सोईं क्या कि मानो वे ऐसे अचेत हो गईं.
जैसे बुद्धि जागते ही वासनाएँ खो गईं.
पुत्र सात चले गए भले वसुदेव के.
युगों-युगों के थे पुण्य खिले वसुदेव के.
देवों के भी मान आगे तुले वसुदेव के.
बेड़ियाँ खुलीं कि भाग्य खुले वसुदेव के.
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आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ
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