एक बार फिर बजा चुनावी बिगुल यहाँ,
एक बार फिर वादे थोपे जायेंगे.
एक बार फिर हम लोगों की पीठों पर,
ख़ालिस खादी खंज़र घोंपे जायेंगे.
बाग़ बहारों की सतरंगी बातें ले,
बंजर में कुछ पौधे रोपे जायेंगे.
जिन आँखों से दृष्टि नोचकर फैंक चुके,
उन आँखों को सपने सौंपे जायेंगे.
कैसी राजनीति में नीति नई आई,
किन जन्मों का बैर हाय, ये लेती है.
पहले निष्ठुरता से पैर तोड़ देती है
फिर स्नेहिलता से बैशाखी देती है
वे कहते, तुम खड़े हो सको पैरों पर
ऐसा दिन हम कभी नहीं आने देंगे.
तुम हमको सत्तासुख देते जाओ, हम-
ख़ैरातों में कमी नहीं आने देंगे.
हा ! जाने इसने अपनी जन्मपत्री पर,
कैसे विषम ग्रहों का क्रूर लगन पाया.
सत्तर वर्षों में भारत का यह वोटर
भिखमंगे से अधिक न कुछ भी बन पाया.
-
आदित्य तोमर
वज़ीरगंज, बदायूँ (उ.प्र.)
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