ग़ज़ल :-
इसीलिए तो कहीं और दिल लगा रहे हैं
हम एक बिछड़े हुए शख़्स को भुला रहे हैं।
हमें ये डर है तअल्लुक़ न टूट जाए कहीं
सो जान बूझ के उससे फ़रेब खा रहे हैं।
वही सफ़ीना उन्हें ग़र्क़ करना चाहता है
वो जिस सफ़ीने को साहिल की सम्त ला रहे हैं।
जो मिल गया है अगर उससे मुतमइन हैं हम
बिछड़ने वाले की तस्वीर क्यूँ बना रहे हैं।
हमें पता है मुहब्बत की बंदिशें "दानिश"
किसी ग़ज़ल के कभी हम भी क़ाफ़िया रहे हैं।
रघुनंदन शर्मा "दानिश"
इसीलिए तो कहीं और दिल लगा रहे हैं
हम एक बिछड़े हुए शख़्स को भुला रहे हैं।
हमें ये डर है तअल्लुक़ न टूट जाए कहीं
सो जान बूझ के उससे फ़रेब खा रहे हैं।
वही सफ़ीना उन्हें ग़र्क़ करना चाहता है
वो जिस सफ़ीने को साहिल की सम्त ला रहे हैं।
जो मिल गया है अगर उससे मुतमइन हैं हम
बिछड़ने वाले की तस्वीर क्यूँ बना रहे हैं।
हमें पता है मुहब्बत की बंदिशें "दानिश"
किसी ग़ज़ल के कभी हम भी क़ाफ़िया रहे हैं।
रघुनंदन शर्मा "दानिश"

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