हिंदी साहित्य वैभव

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शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

9:58 pm

आज जन्मदिन है युवा साहित्यकार विकास भारद्वाज जी का आइये लुत्फ लेते है उनकी कुछ ग़ज़लों का......


आज रू-ब-रू होते हैं उस कम उम्र के उस बड़े शायर से... जिसकी कहन दाँतों तले उँगलियाँ दबाने पे मजबूर कर देती है...

हम बात कर रहे हैं यूपी के शहर बदायूं से ता'अल्लुक़ रखने वाले नौजवान शायर अक़्स बदायूंनी जी की... शायरीबाज़ी का एक अलग अंदाज़ अक़्स जी की शायरी को बेहद खास बना देता है...आइए लुत्फ़ लेते हैं अक़्स बदायूंनी जी की ख़ूबसूरत सी ग़ज़लों के कुछ शेरों का...

मुझसे तेरी आंखो  की  क़यामत  नही  देखी  जाती ।
यार   तेरी  जुल्फो  की  शरारत  नही   देखी  जाती ।।

इक नज़र मुझसे मिला लें जो तू फिर महफिल में ।
देखने    वालों    की    हैरत   नही   देखी   जाती ।।

तुम्हारे बिन मुझे अब अपना घर अच्छा नही लगता ।
नही हो साथ तुम अब ये सफ़र अच्छा नही लगता ।।

गरीबों  की  बस्तीं  में  आती जब भी आधियां हमकों ।
तबाही  का  कभी - कोई  मंजर  अच्छा  नही लगता ।।

बढो तुम जिंदगी से प्यार होगा ।
पढो सपना तभी साकार होगा ।।
     
करो माँ - बाप की सेवा निस्वार्थ ।
तभी जीवन सदा गुलजार होगा ।।

किया सम्मान तुमने जो बडों का ।
वहाँ फिर आपका सत्कार होगा ।।

लबों का आज जो खामोश होना ।
समझ आया तुम्हें इनकार होगा ।।

थोड़ी उलझन में  हूँ  पर  बुज़दिल  नही ।
साथ हो तुम  फिर  कोई  मुश्किल  नही ।।

इस  तन्हा  दिल  को  ले  जायें  हम  कहाँ ।
बिन  तुम्हारे  जमती  अब  महफिल  नही ।।

ये  तन्हाई  और  ये  आलम  बडा  खुदगर्ज है ।
उम्र  भर  अब  हम  भरेगें  जिंदगी  इक  कर्ज़ है ।।

जिंदगी  से  यूँ  कभी  तेरा  मिटेगा  नाम  क्या ।
हर  वरक  में  तू  फसाने  की  तरह  अब  दर्ज   है ।।

हम   मुहब्बत   से  मुहब्बत   का'  सिला   देते   है  ।
बर्षों'  से  बिछडें'   उन्हें  दिल  से'  मिला   देते   हैं ।।

यूं   तो  रिश्तों  में  हो  जाती  है  गलतफहमी  पर  ।
हम   दिलों   की   दूरियां   दिल  से  मिटा  देते  हैं ।।

1:07 am

कलम अनवरत् फिर चलती जायेगी तब हमें खूबसूरत सी मंजिल हासिल होगी - विकास भारद्वाज

गुरू जी चरणों में मेरी कुछ पंक्तियां समर्पित :-

गुरू-चरणों से गुरू - ह्र्दय तक, गुरू-प्रेम से सींचेगा जब रूह अपनी होगी ।
कलम अनवरत् फिर चलती जायेगी तब हमें खूबसूरत सी मंजिल हासिल होगी !।
गुरू ही दर्पण, शिक्षा के द्वारा जनमानस-समाज को जागृत करते,
गुरू की डांट से न इतराना इसमें हमारी छुपी हुई भलाई होगी ।।

हम रोज अभ्यास करे, गुरू जी बड़े प्यार से सिखाते है ।
गुरू जी के आशीर्वाद से ही हम अच्छा सृजन कर पाते है ।।
गुरू का तुम अपमान न करना वो सिर्फ सम्मान चाहते हैं,
जीवन में आने वाली कठिनाईयों से हमें अवगत कराते हैं ।।

© विकास भारद्वाज
  27 जुलाई  2018


गुरुवार, 26 जुलाई 2018

9:14 pm

हिन्दुस्तान में सुहागिन महिलाएं करवा रही मुड़न - राजेश मिश्र

ये उमा रमा का साहस है ये वीरों की परिभाषा है
जो ढोल पीटते हिन्दू का धरती पर घोर कुहासा है
बेदर्दी जल्लादों सा व्यवहार यहां पर होता है
कुछ चंद लफंगे हसते हैं मजबूरों का दिल रोता है
ये राम राज का शासन है या खरदूषण सा जंगल है
अपना ही मार रहा खुद को देखो ये कैसा दंगल है
कुछ नकभिन्ने प्रत्येक जगह पर नाक बड़ी भिन्नाते हैं
जिन पर न मरी मुशरिया है खुद को आजाद बताते है
नक्सल वादी की तरह आज व्यवहार निभाया जाता है
सत्रह सालों के तपस्वी को बेकार बताया जाता है
यहां दिखते नही सुधारक हैं उनको ये शर्म मुबारक हो
इन वाणी के जल्लादों को लाशों की बड़ी तिजारत हो
दयनीय दशा से ये गुजरे परिभाषा कैसे छूट गयी
दुर्योधन दिखे असंख्यों हैं गिनती की भाषा छूट गयी
इस तानाशाही शासन ने खेल मौत का खेला है
इन पढ़े लिखे मासूमों ने हर बार वक्ष पर झेला है
वाजीगर ने हर बार कहा मैं काम तुम्हारा कर दूँगा
मन में उनके अभिलाषा थी मैं जहर जिस्म में भर दूँगा




राजेश मिश्र
बीसलपुर (पीलीभीत)

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

9:33 pm

सात सौ हिन्दू शिक्षा मित्र मर चुके लेकिन सरकार मौन

कैसे मानू कट्टर हिन्दू मर रहे आज हिन्दू भाई
तुम ढोल पीटते छाती पर औ बजा रहे हो सहनाई
इनके घर में मातम पसरा सन्नाटा मुझे दिखा भारी
इन मासूमों पर जुल्म ढहा करते उन्नीस की तैयारी
गंगा पर बसे बनारस में रैली में तुमने वोला था
जुम्मेदारी अब मेरी भाषण में शव्द ये तोला था
माँ गंगा ने भी सुने शव्द वह सोच रही मन में होगी
माँ से भी झूठ वोलते हैं बदनामी जन जन में होगी
मर चुके उन्हीं की लाशों पर सत्ता लेकर इठलातें हैं
इनके घर जाकर देखो तो भूखे बच्चे चिल्लाते है
जब जब कोई बेबस रोकर दिल ही दिल में जलता है
चाहे जो सत्ता भोगी हो सिंहासन उसका हिलता है
कौरव दल में सब योद्धा थे फिर कुरूक्षेत्र क्यों हार गये
वनवास भले ही भोगा हो पर पाण्डव बाजी मार गये
सत्य सनातन सनातनी परिभाषा नही दिखी मुझको
जख्मों पर मरहम लगा सके वो आशा नही दिखी मुझको
जो खुद को कहते रामभक्त वो झूठ बोलते दिखे मुझे
पाँच साल तक अपनों की ही पोल खोलते दिखे मुझे
महिला भी मरी ये पुरुष मरे बच्चों ने चिता जलायी है
सत्ता के चौकीदारों का एक शव्द न पड़ा दिखाई है
बड़े बड़े फनकारों ने दो शव्द नही वोले इन पर
दाताओं ने आकांओ के दिल रहम नही डोले इन पर
नीति राम की नही दिखी मर्यादा नही दिखाई दी
सूर्य वंश जैसी कोई परिभषा नही दिखाई दी
जो नीति नही अपना सकते वो राम को क्या अपनायेगें
जो पड़ा अयोध्या में तम्बू उसको कैसे हटबायेंगें
जिसके भगवान हो तम्बू में वह सोते दिखे कोठियों में
उसके न कलेजा दिखा शेर है पानी भरा बोटियों में
बेबस मजबूर दुखी का जो जमकर उपहास उडाते हैं
वो गीदड ही रह जाते हैं वो शेर नहीं कहलाते हैं
घर घर का शिक्षा मित्र जगा तो सत्ता को हिलवायेगा
अभी समझ रहे जिसको लल्लू इतिहास बदल कर जायेगा
💐💐💐💐💐💐💐💐
जय हिन्द जय भारत
राजेश मिश्र

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

10:45 pm

गांव का घर - अनन्तराम चौबे

गांव हमारा सुन्दर प्यारा
गांव का घर है अलग न्यारा ।
बचपन की है याद दिलाता ।
बरसात का मौसम याद है आता ।
पानी रोज वहाँ गिरता था ।
हफ्तो सूरज दर्शन नही देता ।
आंगन गलियो मे कीचड़ रहता ।
मूसलाधार जब बारिश होती ।
गांव की नदी उफान पर रहती ।
नदी मे तैरते मस्ती करते
साथी सभी इकट्ठे रहते ।
नदी मे खूब नहाते रहते ।
स्कूल रोज पढने को जाते
नागा न स्कूल का करते ।
बाढ बहुत जब नदी मे आती
घर के आंगन तक आ जाती ।
गलियो मे पानी भर जाता
घर से निकलना मुश्किल होता ।
बरसात शुरू जब होती थी
घर के सामने के बाड़े मे
माँ भुट्टा ककड़ी भिन्डी
के पेड़ लगा देती थी ।
भुट्टा बड़े जब हो जाते
रोज भूजकर खाते थे
वही नाश्ता करते थे ।
एक हाथ की ककड़ी होती
खाने के साथ उसको खाते ।
अब तो गांव गांव नही लगता
शहर के जैसा अब वो लगता ।
अभी भी गांव मे घर है अपना
बचपन की याद जब आती
मन को भावुक वो कर देती ।

अनन्तराम चौबे 'अनन्त'
    जबलपुर म प्र

      
6:10 pm

धन औ शोहरत त्यागिये अब दोस्ती इंसान से आओ निभायें - प्रदीप ध्रुवभोपाली

धन औ शोहरत त्यागिये अब दोस्ती इंसान से आओ निभायें।
भूँख से जो हैं हताहत और दुखी आओ गले उनको लगायें।
धर्म जाति के बखेड़े राजनैतिक आपसी मे हैं लड़ाते,
हिन्द पर क़ुर्वान हों सब देशवासी ये तराना गुनगुनायें।
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ओजकवि प्रदीप ध्रुवभोपाली, भोपाल.दिनाँक-15/07/2018,मो.9893677052
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4:56 am

नई रोशनी नई पहल ~विमोचन एवं सम्मान समारोह दौसा(राजस्थान) ~यात्रावृत्त

जैसा कि प्रजातन्त्र स्तम्भ का प्रकाशन के चीफ आ0 अनिल कुमार गुप्ता जी ने पहले ही अवगत करा दिया था कि दौसा में विमोचन और सम्मान समारोह 15 जुलाई 2018 को करेंगे|प्रतीक्षा की घड़ी धीरे धीरे समाप्त हुई, कार्यक्रम से पाँच दिवस पूर्व निमन्त्रण भी प्राप्त हो गया,दौसा जाने की तैयारी शुरू ही साहब|

     मैं और प्रयास दोनों लोगों ने दौसा जाने हेतु कमर कस ली, दो दिन पूर्व ही घर से निकल पड़ा,बरेली आ0 प्रयास जी की बहिन जी के यहाँ रात्रि बितायी,पूड़ी सब्जी का आनंद लिया और सो गया, सुबह ट्रेन थी छः बजे, सुबह साढे चार बजे आँख खुली, प्रयास जी को जगाया,जल्दी जल्दी दैनिक कार्यों को किया,चाय नाश्ता कर रेलवे जंक्शन की ओर मैं और प्रयास जी भान्जे की बाइक से भागा, टिकट लिया और आला हजरत ट्रेन पर चढ़ गया, सीट भी मिल गयी ,फिर क्या था शुरू हुआ सफ़र |

ठसाठस भरी ट्रेन चल पड़ी साहब|बातें करते, फोन करते, झपकियों के मध्य शाम पाँच तीस पर सफर समाप्त हो गया|आ0 अनिल सर ले सम्पर्क साधा, बोले जंक्शन को बाहर मिलो,मैं जंक्शन को बाहर आया, पान खाया और दस मिनट में आ0.अनिल सर श्वेत कार में सवार दिखाई दिए, मेरा फोन घनघना उठा, फोन पर मैंने कहा सर आपके पीछे हूँ, तब तक कार के करीब मैं और प्रयास जी पहुँच गये, गेट खोल झट अन्दर पहुँचा, आ0 अनिल सर पूरी आत्मीयता से मिले, उनकी अनुभवी आँखों में अपनेपन की चमक पाकर हम दोनों गद्गद हो उठे|कार कार्यक्रम स्थल की ओर चल पड़ी, रास्ते भर बातचीत का सिलसिला चलता रहा|आ0 अनिल सर को ड्राइवर प्रिय खलील जी भी काफी दिलचस्प व्यक्ति थे|लो जी कार्यक्रम स्थल पर पहुँच गया|वहाँ हमारे कुछ रचनाकार साथी आ चुके थे, जिनसे परिचय प्राप्त हुआ, कुछ ही क्षणों में एक कार्यालय जैसे कक्ष में अपने रचनाकार साथियों के मध्य थे, जिनमें एक प्रकाशन के संरक्षक महोदय आ0 रघुनाथ मिश्र सहज जी थे, जिनकी सहजता आत्मीयता, भाषाशैली, व्यक्तित्व सभी कुछ सम्मोहित सा कर रहा था, आपसे काफी कुछ सीखने को मिला, सहज, सजल, सरस प्रयास ,लक्ष्मी के साथ बातों का, सहित्य चर्चा का एक सेतु सा बनता चला जा रहा था, जैसा कि साँझ की मोहकता अपनी ओर बुला रही थी, हाथ मुँह धोकर ,चाय नाश्ता किया, इस बीच आ0 मीनाक्षी परीक जी से बात कर काफी अच्छा लगा, आपकी आत्मीयता, आपकी वाकपटुता, सच्ची सहनशीलता प्रेरणाप्रद थी|आप ही कार्यक्रम की संयोजिका थीं, कार्यक्रम स्थल की रमणीयता अलौकिक थी देवभूमि होने के साथ साथ प्राकृतिक वातावरण की सोंधी खुशबू मन को आह्लादित कर रही थी|चाय नाश्ता करके मैं और प्रयास जी आ0.अनिल सर की कार से घूमने चले गये, घूम के वापस आये तो देखा कि भोजन का प्रबन्ध हो चुका है, आ0 मीनाक्षी जी के पतिदेव पूरी निष्ठा से आवभगत में लगे हुए थे|हम सभी रचनाकार आ0.सहज जी के साथ बातचीत कर रहे थे, आ0.अनिल सर ने आगामी योजना ~भूमिका बतायी ,सहज जी का तेज और चेहरे की मुस्कान बहुत भायी|
इसी बीच मुहब्बत गजल संग्रह के प्रकाशन की बात हुई, जिसके प्रकाशन का जिम्मा प्रजातन्त्र प्रकाशन ने लिया, कबर पृष्ठ शीघ्र भेजने को बोला ताकि आई एस बी एन नम्बर शीघ्र प्राप्त हो सके तो आपको उपलब्ध करा सकें,मुद्रण का समस्त कार्य जनचेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति को ही प्रदान किया गया है |इस संकलन का विमोचन एवं समारोह उ0 प्र0 में ही होगा|
भोजन लग चुका था, हम सभी साहित्यकार भोजन पर टूट पड़े, आ0 मीनाक्षी जी का प्रेम भोजन में रस बनकर स्वाद को बढ़ा रहा था|दाल चावल रोटी कद्दू की सब्जी वाह्हह्हह्ह वाह्हह्हह्ह सब उठ गये मैं खाता ही जा रहा था |आ0.मीनाक्षी जी स्वयं परोस कर सबको खिला रहीं थीं और आनंदित हो रहीं थी|
भोजन कर हम सब सोने चले गये, सबके अलग अलग कमरे थे, सब अपने अपने कमरे में लेट गये, हम और प्रयास जी, काफी देर बात करते रहे, कब सो गये पता न चला|कुछ साथी देर रात में आये, आ0.अनिल सर और आ0 मीनाक्षी जी सबको रिसीव करते रहे|
सुबह उठा ही था कि एक बच्ची चाय जे गयी थी, चाय पी और दैनिक कार्य से निवृत्त हुआ ही था कि आ0.अनिल सर कमरे में आ गये ,काफी देर कार्यक्रम के सन्दर्भ में बात हुई, हमने बोला कि जनचेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति की ओर से आपका और मीनाक्षी जी को सम्मानित करना है कुछ समय कार्यक्रम प्रदान करें, जिसकी स्वीकृति मिल गयी थी|चाय नाश्ते का बुलावा आ गया|बहुत ही स्वादिष्ट पोहा बना था खूब खाया, चाय पी|फिर रचनाकार साथियों के आने का सिलसिला चल पड़ा|हम और प्रयास जी घूमने चले गये आ0 अनिल दा की कार से|लौट कर आया तो भोजन चल रहा था|रायता,पूड़ी,सब्जी ,नमकीन बूँदी, लड्डू वाह्हह्हह्ह वाह्हह्हह्ह मजा आ गया, सभी साहित्यकार साथियों के अपने अपने समूह बन गये, सब बातों में मशगूल हो गये, कार्यक्रम प्रारम्भ होने की घोषणा हुई, तब सबका सम्मोहन टूटा|सुन्दर मंच सजाया गया था, जो एक इतिहास रचने की तैयारी में था|पहले सरस्वती वंदना एक बच्ची के नृत्य के साथ, फिर स्वागतगान और नृत्य, एक नृत्य आ0 मीनाक्षी जी के बेटे ने भी किया जो बहुत ही सुन्दर था| साझा संकलन नई रोशनी नई पहल का विमोचन, आ0 मीनाक्षी जी का प्रतिवेदन और उनके द्वारा रचित एक संकलन ~यथार्थ के झरोखे से, का विमोचन हुआ |
फिर सम्मान कार्यक्रम शुरू हुआ |सबका सम्मान पूरी निष्ठा से हो रहा था, संचलन बाबूराम जी कर रहे थे |मुझे भी सम्मानित करने का मौका मिला|इसी बीच प्रयास जी और मैने जनचेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति की ओर से आ0 अनिल कुमार गुप्ता जी और आ0 मीनाक्षी जी को उनके संकलनों के लिए सम्मानित किया|
साढ़े पाँच बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ, सब अपने अपने गन्तव्य की ओर लपके|मैं और प्रयास जी आ0 सहज जी से, आ0 अनिल दा से और आ0 मीनाक्षी जी से विदा लेकर रास्ते की भोजन सामग्री लेकर अपने घर की ओर रवाना हो गया, बरेली आकर कुमार कौशल जी, विकास भारद्वाज सुदीप जी को जंक्शन पर बुलाया, ससमय दोनों भाई आ गये,

प्रतीक्षाल़य में दो घण्टे साहित्यिक चर्चा के बाद कौशल जी को तीन पुस्तक और सम्मान पत्र प्रदान किया फिर विकास जी प्रयास जी और मैं आटो से आगे बढ़ा, रास्ते में विकास जी उतर गये, और फिर ऑटो सो उतर बीसलपुर की इस पर सवार होकर घर आ ही गया|
बहुत ही सुन्दर लाजबाब ऐतिहासिक कार्यक्रम की आ0 मीनाक्षी जी, आ0.अनिल दादा, गुरु तुल्य आ0 सहज दादा के साथ सभी साथियों को बहुत बहुत हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ |

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दिलीप कुमार पाठक "सरस"
जय जय
😄🙏😄
4:30 am

अपने मित्र की पाँच वर्षीय बच्ची के निधन का कारुणिक चित्रण - दिलीप कुमा पाठक

अन्तर्मन  के  क्रन्दन  को  मैं , अन्दर  रोक  नहीं पाया|
पाँच साल की बच्ची को जब, निज हाथों से दफ़नाया||

पाला पोसा बड़ा किया उस, माँ की बिटिया छली गयी|
क्रूरकाल  के  हाथों  में  वह, झट  हाथों से चली गयी||

चार  रोज  मैं  पूर्व गया था, उसके पापा से मिलने|
पापा चाचाजी आये हैं, लगी कली सी वह खिलने||

देखो  चाचा  मेरे  तन  पर , बड़े  बड़े से छाले हैं|
दर्द बहुत ही होता मुझको, खाने तक के लाले हैं||

ठीक शीघ्र हो जाओगी तुम, मैंने उसको समझाया|
अन्तर्मन के क्रन्दन को मैं, अन्दर रोक नहीं पाया ||

उस दिन बारिश थमी हुई थी, दो पहर मात्र ही गुजरे थे|
फूटे  छालों  पानी  बहता,  ले  उसको  कब  ठहरे  थे||

नजर एक पापा पर डाली, फिर कातर मुँह मोड़ लिया|
दवा हेतु बाइक पर जाते, पथ में ही दम तोड़ दिया||

गोदी में पापा की बिटिया, घर  को  कैसे लौटाया|
अन्तर्मन के क्रन्दन को मैं, अन्दर रोक नहीं पाया ||

घर की दीवारें चीख रहीं,हाहाकार मची भारी|
आज विधाता चला रहा है,माँ के सीने पर आरी|

फिर गश खाकर गिरी विचारी ,अँसुअन आँचल धोया है|
धरतीतल की बात कहें क्या, आसमान भी रोया है||

पीट पीट के छाती हारे, ये जग है काल सताया||
अन्तर्मन के क्रन्दन को मैं, अन्दर रोक नहीं पाया ||

                  © दिलीप कुमार पाठक "सरस"

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

11:48 pm

नायिका की मनः स्थिति - बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"

आज दिल ये हुआ है पपीहा,
याद प्रीतम की आने लगी है ।

काली घिरती घटाँऐ सुहानी ,
मेरे दिल को सताने लगी है ।।

तुम बिना ऐसे तड़पू मैं  साथी
जल बिना जैसे मछली तड़पती ।

हो रही बूँदे सावन की कातिल ,
आग तन में लगाने लगी है ।।
🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻
बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"
   डबरा



गुरुवार, 12 जुलाई 2018

9:50 pm

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह से अक्स बदायूँनी की जी कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल  क्र० 1

बहर-.हज़ज मुसद्दस सालिम
🌸 वज़्न - 1222  1222  1222
अरकान-  मुफाइलुन मुफाइलुन मुफाइलुन
🌸 क़ाफ़िया— आ...स्वर
🌸 रदीफ़ --- क्यूँ नहीं आया...

नए    साँचे    में   ढलना   क्यूँ    नहीं  आया ।
हमें   खुद   को   बदलना  क्यूँ    नहीं  आया ।।
मिला  धोखा  हमें  जब   लोगों  से  फिर भी ।
हमें    इंसाँ    परखना    क्यूँ    नहीं    आया ।।
जिसे   देखो,   जुबाँ   पर   झूट   हैं, आखिर ।
हमें    सच   को   छुपाना   क्यूँ  नही  आया ।।
हरिक   पल   जिंदगी   तेरा    नया   किस्सा ।
हमें    काँटो   पे   चलना   क्यूँ   नहीं  आया ।।
किसी   ने   शूलों    की   राहें   बना   डाली ।
हमें   ज्वाला   में   तपना   क्यूँ  नही  आया ।।
हया   ए   राह,  मिलती   ठोकरें   फिर   भी ।
हमें   गिरकर   सभलना   क्यूँ   नही  आया ।।
समय    का   फेर   तो  देखो  हमें  अब  भी ।
कठिनता   से   निकलना  क्यूँ   नहीं  आया ।।

अक़्स बदायूँनी
    

ग़ज़ल क्र० 2

🌸 वज़्न - 212  212  212  212
बहर-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
अरकान-फाइलुन फाइलुन फाइलुन फाइलुन
🌸 क़ाफ़िया— आ स्वर
🌸 रदीफ़ ---  कर दिया

प्यार   में   उसने   मुझको   फ़ना  कर  दिया ।
ख़ाक  सा  था  मैं  मुझको  खुदा  कर  दिया ।।

उसके   लहजे   ने   कायल   हमें  था  किया ।
हक  मुहब्बत  का  उसने  अदा   कर   दिया ।।

चेहरे     पर     सदा     मुस्कराहट     रहे ।
प्यार  में  हमनें  दिल  आईना  कर  दिया ।।

इश्क   उसका   वफा   से    मुकर  ही  गया ।
जख़्म  दिल  का  यूँ  उसने  हरा  कर  दिया ।।

याद  कर   तुझको   आँखों  से  आँसू  बहें  ।
यार   तुम  ने  अज़ब  फासला   कर   दिया ।।

अब   कहाँ  मिलते  हैं  खुशमिजाजी  से  वो  ।
उम्र    भर    को   हमें   गमज़दा   कर   दिया ।।

हाँ  बहुत  गहरा  रिश्ता  था  इक  शक़्स  से  ।             
जिसको   चाहा  था  उसने  दगा  कर  दिया ।।

© अक़्स बदायूँनी


गजल क्र○ 3

बहर- 122 122 122 122
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
काफिया- आने
रदीफ़- लगे हैं

बिना  बात  के  मुस्कुराने  लगे  हैं ।
हमें  प्यार  वो  यूँ  जताने  लगे  हैं ।।

कभी  माँगते  थे  हमें  वो  दुआ  में ।
वही  होंठ  अब  गुनगुनाने  लगे  हैंं ।।

जिसे  हम  भुलाना  अजी चाहते पर ।
सुबह  शाम  वो  याद  आने  लगे  हैंं ।।

तरसते  रहें  फक्त  दीदार  को  हम ।
उसी   चेहरे   को   भुलाने   लगे  हैंं ।।

ढहाये  हैं जुल्मों  सितम  याद  करके ।
हमें   हाल   ए   दिल  बताने  लगे  हैंं ।।

गुजरने  लगी  रात  जबसे  तड़प  कर ।
वही  दर्द   दिल  का  छुपाने  लगे  हैंं ।।

किया  साथ  चलने  का  वादा  जिन्होंने ।
वही   आज   सब   हिचकिचाने  लगे  हैंं ।।

© विकास भारद्वाज "अक्स बदायूँनी"



गजल क्र○ 4

बह्र           :  २१२२ २१२२  २१२
अरकान   : फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
काफिया    : अा स्वर
रदीफ      :  छोड़िये

रोज   का    झूठा    बहाना    छोडिये ।
अब   हमारा   दिल   दुखाना  छोड़िये ।।

जो बनाये   दोस्त   पैसों   से  सुनो ।
दोस्ती   को   आजमाना    छोड़िये ।।
 
अब हमारे  दिल  की  तुम  हो  आरज़ू ।
ख्वाब   में   आकर   सताना   छोड़िये ।।

शाम  को   बागों  में  आ  हमसे  मिलों ।
आज   से   मैख़ाने    जाना    छोड़िये ।।
 
आज  से   सुनना   हमारी  भी  ग़ज़ल ।
गीत    अब   तो   गुनगुनाना   छोड़िये ।।

हाँ बहुत  ठोकर  मिली  मुझको सुनो ।
जिंदगी   अब   तो   रुलाना  छोड़िये ।।

लोग  अब  डरते  न  क्यूँ   भगवान  से ।
आग   घर - घर  अब  लगाना  छोडिये ।।

© विकास भारद्वाज "अक्स बदायूँनी"



गजल क्र○ 5

बह्र           : 1222  1222  1222  1222
काफिया    :  आ
रदीफ        :  लेना दिवाली पर
                                                       
दिलों   की   दूरियाँ   सबसे   मिटा   लेना  दिवाली  पर ।
सभी  को  अब  गले  से  तुम  लगा  लेना दिवाली  पर ।।

जरा  मन  के  अँधेरे  को  मिटा  इस   बार  तुम  देखो ।
मुहब्बत का  दिया  दिल  में  जला  लेना  दिवाली  पर ।।

पुराने   हो   गये  रिश्तें  नया  करके  दिखाओ  तुम  ।
बनाया  जो  कभी  रिश्ता  बचा  लेना  दिवाली  पर ।।

गली  में  आज  निकलेगा  चमकता  चाँद ए  गौरी ।
जला  के  दीप  थोड़ा  मुस्कुरा  लेना  दिवाली  पर ।।

रहा  ताउम्र   सबसे   दूर   घर   को   छोड़  परदेशी ।
जरा  तू  प्यार  लोगो  पर  लुटा  लेना  दिवाली  पर ।।

© विकास भारद्वाज "अक्स बदायूँनी"



ग़ज़ल  क्र० 6

वज़्न -1222 1222 122
🌸 क़ाफ़िया -आ स्वर
🌸रदीफ- हुआ हूँ

ग़में     तन्हाई     में     खोया    हुआ   हूँ ।
किसी   की   याद   का   मारा   हुआ  हूँ ।।

आते   वो   याद,   तन्हा   शाम,  यानी ।
अभी  तक  दर्दे - दिल  पाला  हुआ  हूँ ।।

किसी   पल   मौत   के  आगोश  में  ग़ुम ।
हो   कर   इक   टूटा  ही  तारा   हुआ  हूँ ।।

जहाँ   पर   छोड़कर   जो   वो   गये  थे ।
वहीं    पर    मैं   अभी   ठहरा   हुआ  हूँ ।।

उसी    ने    इश्क    में     की    बेवफाई  ।
समंदर   सा   मैं    तब   खारा   हुआ  हूँ ।।

© विकास भारद्वाज "अक्स बदायूँनी"



ग़ज़ल  क्र० 7

बह्र -  1222    1222     1222       1222
काफ़िया - अर
रदीफ -  अच्छा नहीं लगता

तुम्हारे  बिन  मुझे अपना ये घर अच्छा नही लगता ।
नही हो साथ तुम अब ये सफ़र अच्छा नही लगता ।।

युं  तो  चलते  रहे  थे साथ तुम कल तक हमारे पर ।
चुराते  हो  हमींं  से  अब  नज़र अच्छा नहीं लगता ।।

न  खेलों  तुम  किसी  की जिंदगानी से सितमगर बन ।
अमन  औ  चैन  के  बदले  कहर  अच्छा  नहीं लगता ।।

तेरी  यादों  के  साये  से अभी  दिल  को तसल्ली है ।
पुरानी  बातों  को अब  सोचकर अच्छा नहीं लगता ।।

परिंदे  अब   कहाँ  अपना  ठिकाना   ढूढेगें   लोगो ।
गर्मी  की  धूप  में  सूखा  शज़र  अच्छा नही लगता ।।

कभी  जो  झुग्गियों  पे आँधियाँ  रूठें तो सच हमको ।
गरीबों  की  निगाहों  में  ये  डर  अच्छा  नहीं  लगता ।।

© विकास भारद्वाज "अक्स बदायूँनी"

ग़ज़ल  क्र० 8
बहर-.हज़ज मुसद्दस सालिम
🌸 वज़्न - 1222  1222  1222  1222
अरकान-  मुफाइलुन मुफाइलुन मुफाइलुन मुफाइलुन
🌸 क़ाफ़िया— आन..स्वर
🌸 रदीफ़ --- लगती हैं....
मुझे   तेरे   बिना   दुनिया   बहुत  वीरान  लगती  है ।
भली  ये  जिंदगी  लेकिन  मुझे  शमशान लगती  है ।।
बहुत कोशिश की  हैं  ये  जिंदगी  तुझको बचाने की ।
चले   ये   साँस   जो   मुझे   ही   अंजान  लगती  है ।।
जो   वृद्धाश्रम   में    बूढी   माँ   को  छोड़  आये  हैं ।
सुनों  वो  बूढी  महिलायें   मुझे  भगवान  लगती  हैं ।।
न  जाने  कब  गुजर  जाये  सफ़र  ए  जिंदगानी  का ।
मुझे  तो  एक  दो  दिन  की  ही  ये महमान लगती हैं ।।
मिले  जिसको  सही  राहें  जो  अब के दौर  में  लोगों ।
अजी  ये  जिंदगी  उसको  बहुत  आसान  लगती  हैं ।।
कभी  देखा  नही  मैंने - तुझे  पर  आज  देखा  तो ।
लगा  बर्षों  पुरानी  अपनी  तो  पहचान  लगती  है ।।
©विकास भारद्वाज "अक्स बदायूँनी"


9:50 pm

ग़ज़ल - अब मरीज़े इश्क़ को कैसा ठिकाना चाहिए - चित्रा भारद्वाज

अब  मरीज़े  इश्क़ को कैसा ठिकाना चाहिए
आतिशे दिल को हवा पर आशियाना चाहिए

लग गईं हैं दाँव पर साँसें बिसाते इश्क़ में
इस तरफ या उस तरफ तय हो ही जाना चाहिए

रूह को तेरी जरूरत इस कदर है जाने जां
जीस्त के खातिर जरूरी आब ओ दाना चाहिए

दिन ढले ही लौट आते हैं परिंदे शाख पर
हो गयी अब रात तुझको लौट आना चाहिए

अब थकन तक जा चुकी हैं हसरतें दीदार की
खुश्क आँखों में 'सुमन ' दरिया समाना चाहिए
चित्रा भारद्वाज ' सुमन '
5:30 am

शाइरी की बुनियाद ही मुतालआ यानी अध्ययन - फ़ैयाज़

पढ़ना क्यों ज़रूरी है?
_________________
शाइरी की बुनियाद ही मुतालआ यानी अध्ययन होती है. बग़ैर पढ़े आप बहुत दिनों तक शाइरी नहीं कर सकते या अच्छी शाइरी तो कर ही नहीं सकते. वज्ह यह है कि आप अपनी उम्र के 20- 22 सालों के तजरबे को 20- 22 ग़ज़लों तक ही बयान कर सकते हैं. उसके बाद आपकी सोच अपने आप को दोहराती है और बारहा आप एक ही ज़ाविए से या एक ही मौज़ूअ पर शे'र कहते रह जाते हैं. यह तो सभी जानते हैं बल्कि सच भी यही है कि बेश्तर शाइरी की शुरुआत इश्क़ में पड़कर होती है. जो कि उस शाइर की शुरूआती और सबसे ख़राब शाइरी होती है. उसके बाद हिज्र के आते- आते कुछ ठीक- ठाक होने लगती है लेकिन वह भी कुछ दिनों तक ही क़ाइम रह पाती है. लिहाज़ा हमारा किताबों की जानिब रुख़ करना लाज़िमी ही नहीं बल्कि हमारी मजबूरी भी बन जाता है. हमें पढ़ना इसीलिए भी चाहिए हम हर क़िस्म के शाइर की शाइरी को नज़दीक से समझ सकें. उनके शे'र बनाने के तरीक़े को समझ सकें. तमाम शाइर एक ही बात को इतने मुख़्तलिफ़ लहजे में कहते मिलेंगे कि आपको उनका हर शे'र नया ही लगेगा. ज़बान और उसका इस्तेमाल हम लुग़त से क़तई नहीं सीख सकते न ही किसी उस्ताद को इतनी फ़ुर्सत है और न ही आपको. सो भी हमें पढ़ना चाहिए ताकि हम जान सकें कि कैसे किस लफ़्ज़ को कहाँ इस्तेमाल किया जाता है. यह एक लम्बी प्रोसेस है और इसमें अगर 10- 12 साल भी लग जाएँ तो भी बड़ी बात नहीं.
पढ़ने को लेकर मुझसे हज़ार बार यह सवाल पूछा गया कि क्या और कैसे पढ़ना है. इसके मुताल्लिक़ मेरा जवाब यह है कि सबकुछ पढ़ने के लिए ही लिखा गया है. शाइरी पढ़ना तो ज़रूरी है ही साथ- साथ कहानी, उपन्यास भी अगर आप पढ़ेंगे तो भी आपके इल्म में इज़ाफ़ा ही होगा और वह इसीलिए क्यों कि कहानी या उपन्यास एक नहीं बल्कि कई किरदार के बनने- बिगड़ने की प्रोसेस को समझने में हमारी मदद करते हैं. हम उन्हें पढ़कर अपनी ज़िन्दगी के आगे की ज़िन्दगी का अनुभव कर पाते हैं. हमारे अपने ज़ाती तजरबे में एक जादुई इज़ाफ़ा सिर्फ़ अध्ययन के माध्यम से किया जा सकता है. जब भी कोई नया शाएर पढ़ें तो पहले पढ़े जा चुके शाएर को दिमाग़ में रखते हुए पढ़ें कि इसमें और उसमें क्या फ़र्क़ है? कैसे ये दोनों शाइर एक दूसरे से जुदा हैं. अगर आपने नया- नया (यानी इससे पहले कभी कुछ नहीं पढ़ा) पढ़ना शुरूअ किया है तो पढ़ते वक़्त यह भूलकर पढ़ें कि आप भी कुछ लिख लेते हैं. पढ़ते- पढ़ते हमें अक्सर लगने लगता है कि एक शे'र होने वाला है लेकिन वो शे'र उस वक़्त आपको भले ही ख़ूब अच्छा लगे लेकिन चंद रोज़ बाद आप ख़ुद ही उसे ख़ारिज करने में संकोच नहीं करेंगे लिहाज़ा हमें पढ़ते वक़्त लिखने से बचना है. शाइर का चुनाव आप अपनी समझ के हिसाब से करें. शाइरी से शाइर की ज़ाती ज़िन्दगी समझने की कोशिश करने के बजाए उस शे'र को समझने की कोशिश करें. हर एक लफ़्ज़ को बारीकी से पढ़ें और सोचें की अगर लिखे गए लफ़्ज़ की जगह कोई और लफ़्ज़ होता तो शे'र कैसा होता? शे'र के सतही मआनी के इलावा उसमें निहाँ तमाम पहलू कुरेदने की कोशिश करें. एक ग़ज़ल को समझने में एक दिन, एक हफ़्ता या पूरा महीना भी लगता है तो लगने दीजिए लेकिन आगे तब तक न बढ़िए जब तक आपको वह समझ में न आ जाए. अगर आप महीनों या साल- साल भर शे'र नहीं कह पा रहे हैं तो इसका यह मतलब क़तई नहीं होता है कि आपके अंदर का शाइर मर गया है या मरता जा रहा है. हो सकता है वो शाइर चुप- चाप कुछ धमाका करने की तैयारी कर रहा हो. आज के तजरबे को आज ही कह देने से शे'र बहुत कम ही अच्छे होते हैं. सो इससे भी बचकर चलें. ख़यालों को पकने दिया करें.
हमें कुछ लिखने के लिए नहीं बल्कि कुछ सीखने के लिए पढ़ना है. हमें पढ़कर सब याद करना है फिर सब भूल जाना है फिर अपना लिखना है. अगर आपको यह प्रोसेस और मेरी बात समझ में आ गयी होगी तो यक़ीनन आप अच्छी शाइरी कर पाएंगे.
______________
फ़ैयाज़



5:18 am

हमदर्दी- मन मे दिल मे दुख पैदा कर दे। मन की भावनाओ को विचलित कर दे - अनन्तराम चौबे

मन मे दिल मे
दुख पैदा कर दे।
मन की भावनाओ
अनन्तराम चौबे 'अनन्त'
    जबलपुर म प्र
    9770499027
को विचलित कर दे ।
वही तो हमदर्दी है
वो शव्द ही ऐसा है
हमदर्दी हो जाती है ।
हमदर्दी से कोई
किसी का दिल
भी जीत सकता है ।
हमदर्दी तो कदम
कदम पर रहती है ।
नफरत को भी
क्षण मे बदल दे ।
हमदर्दी ऐसी होती है ।
नफरत करने वालो से
भी हमदर्दी हो जाती है ।
सुअर जानवर ऐसा है
दूर सभी उससे रहते है ।
सुअर के बच्चे को
कुत्ते पकड़ ले अपनी
जान बचाने को जोर
जोर से चिल्लाता है ।
देखने वाले के दिल मे
हमदर्दी हो जाती है ।
बच्चे के उस दर्द को
देखकर हमदर्दी
सबको होती है ।
कुत्तो से छुड़ाकर
सुअर के बच्चे की
मिलकर जान बचाते है ।
हमदर्दी का रिश्ता ऐसा है
किसी से भी जुड़ जाता है ।
दुख दर्द का नाता ऐसा है
हमदर्दी से जुड जाता है ।
कोई आतंकी कोई डाकू
कोई दुष्कर्मी दुराचारी
जब भी मारा जाता है ।
तब हमदर्दी नही होती है ।
क्ररता के भाव से मन
मे हमदर्दी नही होती है ।

बुधवार, 11 जुलाई 2018

11:16 pm

ग़ज़ल - जो भी रहने को था रहा ही नहीं - पुष्पराज यादव

जो भी रहने को था रहा ही नहीं
उसने रिश्ता कोई रखा ही नहीं

सब इसे लाइलाज कहते हैं
इश्क के रोग की दवा ही नहीं

तुम मुझे यूँ भी भूल सकती हो
सोच लो, मैं कभी मिला ही नहीं

उसको मुझ जैसा इश्क करने का
रोग लगना था पर लगा ही नहीं

अब मुझे लूटने को आये हो
जब मेरे पास कुछ बचा ही नहीं

पुष्पराज यादव (स्त्रोत : फेसबुक)

 
10:06 am

वीर सपूत मंगल पाण्डे की शहादत पर प्रस्तुत रचना - राजेश मिश्र प्रयास

देश भक्त बलवीरों का झरना प्रताप का वहता है
वतन की खातिर मिट जाते बस नाम अमर वो रहता है
मंगल पाण्डे भड़क गये थे उस अग्रेजी वर्दी से
कारतूस बनवाते गोरे गाय सुअर की चर्बी से
यूरोपी रेजीमेन्ट बनी थी भारतीयों की भर्ती से
भूमिदेव अंगार उगा यू पी बलिया की धरती से
बीस बर्ष की आयु युवा इस बटालियन का हिस्सा था
बढ रही छावनी बैरकपुर कुछ दिलदारी का किस्सा था
गोरे अफसर रोज नये कुछ पत्ते खोला करते थे
भारत के वीर सपूतों को देहाती वोला करते थे
मिलकर के सब सैनिक वोले जो कारतूस चलवाते हो
तुम गाय सुअर का लेप चढा नापाक हमें करवाते हो
यदि सभी चाहते आजादी तो कोई तो मृगराज बनो
मिलकरके जान लुटा देंगे बस तुम पहली आवाज बनो
बस पवनपुत्र बन जाओ तुम हम सब अंगद बन जायेंगे
इन गद्दारों की लंका में अब लंका दहन मचायेंगें
भारतीय बलिदानों से बंगाल की धरती पावन थी
विद्रोह उठा था जब पहला सन अठरह सौ सत्तावन थी
केहरि बन करता सिंसनाद वह अद्भुत योद्धा मंगल था
थीं लोड रायफल हाथों में वो इतिहासों का दंगल था
ललकार रहे साथी आओ मिलकर यह फर्ज निभाना है
भारत की लाज बचानी है हमें अपना धर्म बचाना है
आक्रोश भरा था हृदय में वो वगावती तेवर में थे
थीं पिस्टल लोड रायफल भी सब शस्त्र रुप जेवर में थे
जनरल हर्से ने फोर्स सहित फिर आगे जाकर घेर लिया
मंगल को करलो गिरफ्तार ईश्वर पाण्डे को आदेश दिया
उसने आदेश नही माना ऐसा कैसे कर सकता हूँ
यदि मंगल कुर्बानी देगा मैं साथ साथ मर सकता हूँ
कर्नल बाँग बढा आगे मंगल ने उस पर बार किया
लेकर तलवार भिडे दोनों कर्नल मुँह के बल डार दिया
भारतीय सिपाही था पलटू थी सेखी बडी कमीने में
धोखे से बार किया उसने तलवार भोक दी सीने में
पल्टू ने ही कर गिरफ्तार अपनों को फसवाया है
गद्दार कमीना दगाबाज वो मन ही मन हर्षाया है
उन फिरंगियों ने मिलकरके फाँसी का हुक्म सुनाया है
राजेश मिश्र इस वर्णन को रोते रोते लिख पाया है
जो दर्द दबे हैं सीने में वो दर्द लिखा हम करते हैं
हसते फाँसी जो झूल गये वो मर्द लिखा हम करतें हैं

राजेश मिश्र प्रयास 
कोषाध्यक्ष जनचेतना साहित्यिक साँस्कृतिक समिति रजि0 226
जिलाध्यक्ष राष्ट्रीय ब्राह्मण महासंघ ---जिला (पीलीभीत)

यह भी पढें 

कश्मीर का साढे तीन साल के गठबंधन पर रचना पढे  - राजेश मिश्र


1:59 am

ग़ज़ल :- तितली से दोस्ती न गुलाबों का शौक़ है - चिराग़ शर्मा

तितली से दोस्ती न गुलाबों का शौक़ है ।
मेरी तरह उसे भी किताबों का शौक़ है ।।

वरना  तो  नींद  से  भी नही कोई ख़ास रब्त,
आँखों को सिर्फ़ आपके ख़्वाबों का शौक़ है ।

हम आशिक़-ए-ग़ज़ल हैं तो मग़रूर क्यों न हों,
आख़िर ये शौक़ भी तो नवाबों का शौक़ है ।।

उस  शख़्स  के फ़रेब से वाक़िफ़ हैं हम मगर,
कुछ अपनी प्यास को ही सराबों का शौक़ है ।।

गिरने दो ,ख़ुद संभलने दो ,ऐसे ही चलने दो,
ये  तो  चराग़  ख़ानाख़राबों  का  शौक़ है ।।
 चिराग़ शर्मा (फोटो स्रोत : फेसबुक)

1:14 am

अदब की दो मशहूर शख्सियतें - एक के लिए ताजमहल एक शहंशाह की मोहब्बत की निशानी है, एक ऐसी कहानी है, जो कभी खत्म नहीं हो सकती, जबकि दूसरे शायर के लिए यह एक ऐसी इमारत है, जो गरीबी और गरीबों का मजाक उड़ाती है...

अदब की दो मशहूर शख्सियतें - शकील बदायूनी और साहिर लुधियानवी।

एक के लिए ताजमहल एक शहंशाह की मोहब्बत की निशानी है, एक ऐसी कहानी है, जो कभी खत्म नहीं हो सकती, जबकि दूसरे शायर के लिए यह एक ऐसी इमारत है, जो गरीबी और गरीबों का मजाक उड़ाती है। आपके लिए ताजमहल क्या है। 

आप भी इन दोनों शायरों की तखलीक पर गौर कीजिए 

शकील बदायूनी :- 
शकील बदायूनी (स्रोत : गूगल)

इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी हैं
इसके साये मे सदा प्यार के चर्चे होंगे
खत्म जो हो ना सकेगी, वो कहानी दी है
एक शहंशाह ने बनवा के...

ताज वो शम्मा है उल्फत के सनमखाने की
जिसके परवानों मे मुफलिस भी, जरदार भी है
संग-ए-मरमर में समाए हुए ख्वाबों की कसम
मरहले प्यार के आसान भी, दुश्‍वार भी हैं
दिल को एक जोश इरादों को जवानी दी है
एक शहंशाह ने बनवा के...

ताज इक जिंदा तसव्वुर है किसी शायर का
इसका अफ़साना हकीकत के सिवा कुछ भी नहीं
इसके आगोश में आकर ये गुमां होता है
जिंदगी जैसे मुहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं
ताज ने प्यार की मौजों को रवानी दी है
एक शहंशाह ने बनवाके...

ये हसीं रात ये महकी हुई पुरनूर फिजां
हो इजाजत तो ये दिल इश्क का इजहार करे
इश्क इंसान को इंसान बना देता है
किसकी हिम्मत है मुहब्बत से जो इनकार करे
आज तकदीर ने ये रात सुहानी दी है
एक शहंशाह ने बनवाके...

स्रोत :- Rekhta.org से

साहिर लुधियानवी :-
साहिर लुधियानवी (स्रोत : गूगल)

ताज तेरे लिए इक मजहर-ए-उल्फत1 ही सही
तुम को इस वादी-ए-रंगीं2 से अकीदत3 ही सही
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे...
बज्म-ए-शाही4 में गरीबों का गुजर क्या मानी
( 1-मोहब्बत की निशानी, 2- सुंदर स्थान, 
3- आदर/ पसंद, 4- रॉयल कोर्ट)

सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही1 के निशां
उस पे उल्फत भरी रूहों2 का सफर क्या मानी
(, 1- राजसी वैभव, 2-प्रेमिका)


मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशरीर-ए-वफा1
तूने सतवत2 के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मकाबिर3 से बहलने वाली,
अपने तारीक4 मकानों को तो देखा होता
(1- मोहब्बत/ विश्वास के इस दिखावटी पर्दे के पीछे, 
2- धन/वैभव 3.मकबरा 4. अंधियारे)


अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक1 न थे जज्बे उनके
लेकिन उनके लिये तश्शीर2 का सामान नहीं
क्यूंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफलिस3 थे
(1- सच, 2- प्रचार, 3-गरीब)


ये इमारत-ओ-मकाबिर, ये फासिले, ये हिसार1
मुतल-कुलहुक्म2 शहंशाहों की अजमत3 के सुतून4
दामन-ए-दहर5 पे उस रंग की गुलकारी6 है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अजदाद7 का खून
(1.किले, 2-सनकी, घमंडी, 3-महानता, 4-निशानी, 
5- दुनिया के दामन पर, 6-फूल और शराब, 7- पूर्वज)


मेरी महबूब! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी सानाई1 ने बख्शी है इसे शक्ल-ए-जमील2
उनके प्यारों के मकाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद3
आज तक उन पे जलाई न किसी ने कंदील4
(1-कलात्मकता, कारीगरी, 2-खूबसूरत रूप, 
3-बिना किसी पहचान के, गुमनाम, 4-मोमबत्ती)


ये चमनजार1, ये जमुना का किनारा, ये महल
ये मुनक्कश2 दर-ओ-दीवार, ये महराब, ये ताक
(1- बगीचा, 2-आकर्षक)

मंगलवार, 10 जुलाई 2018

9:05 pm

सहा है दर्द किस हद तक यह मैंने आशनाई में - राजेश शर्मा

सहा है दर्द किस हद तक यह मैंने आशनाई में ।
जिगर भी हो गया घायल यह तेरी बेवफाई में ।।
मेरी गलती है यह मैंने तुझे चाहा जो शिद्दत से,
तड़पकर मर नहीं जाऊँ कहीं तेरी जुदाई में ।।

राजेश शर्मा प्र. अ. व कवि बरेली
7:36 pm

ग़ज़ल - ज़ुबाँ को जब हमारी डर से - आनन्द तन्हा

ज़ुबाँ को जब हमारी डर से फ़ालिज मार जाता है ।
मुक़ाबिल झूठ के तब  सच  हमेशा  हार जाता है ।।

यक़ीनन  कुछ  कमी तो है, हमारे  इंतिखाबों  में,
तभी तो शहर से चुन कर कोई मक्कार जाता है।

किसी नेता का बेटा  फौज  में  भर्ती  नहीं होता,
अरे, सरहद पे लड़ने के लिये  दमदार जाता है।

हमेशा मुस्कुरा कर हम,  झुका लेते हैं सिर अपना
हमेशा   वार  उसका   इस  तरह  बेकार जाता है।

बचाये आबरू कैसे बहन-बेटी किसी की, जब,
उसे लेकर, रियाकारों के घर, परिवार जाता है।

चलो माना,कि दौलत की बदौलत सैर की तुमने,
वहाँ पर, तुम कहाँ पहुंचे जहां फ़नकार जाता है।

ग़ज़ल का शेर भी होता है , जैसे तीर नावक का,
बहुत है मुख़्तसर लेकिन जिगर के पार जाता है।

इंतिखाब- चुनाव, रियाकारों-पाखंडियों,
मुख़्तसर- छोटा/संक्षिप्त

आनन्द तन्हा जी 

6:44 pm

कविता - मां ममता की मूरत होती, करुणा की धारा - भानु शर्मा रंज

मां ममता की मूरत होती, करुणा की धारा है वो
अनंत नेह हृदय में उसके,नेह की किनारा है वो
नौ माह कोख में रखती है, ममतामयी अकेली वो
प्रसव की असहनीय दर्द को,हसकर मां ही झेली वो

हर बार जन्म लेता रब भी, मां का आंचल पाने को
कभी राम कभी मोहन बने, ममता दुलार पाने को
गीता रामायण में देखो, मां की अमर कहानी है
परिभाषित कर न सका कोई, मूरत वो बलिदानी है

दया भाव ममता औ करुणा, ये उसकी परिभाषा है
बला छूए न यहाँ पुत्र को, ये उसकी अभिलाषा है
आंचल में छुपा कर रखे वो,हमें सौ सौ दुआओं से
करती उस रब से विनती वो,हम बचे इन बलाओ से

अंगुली पकड़ सिखाय चलना,गिर गिर संभलना होता
गर चोट लगे हमको जब भी, मां दिल का रोना होता
हर पाठ सिखाया है मां नें, प्रथम पाठशाला मां है
मां तो मां होती जग जननी, मां की क्या उपमा है

अपना निवाला खिलाया है, खुद भूखा तक सोयी है
सबके अश्रु पोछने वाली, अंदर में वो रोयी है
हमनें जब आंखे नम देखी, पूछा आंसू क्यो आंखो में
मां हंसकर कहती है कुछ नहीं,तिनका गिरा है आंखो में

बच्चे की मूक ध्वनि को भी,मां सहज ही पहचाने है
क्यो रोय लाल मेरा ये मां, पल में ही ये जाने है
भूख लगे लाला को तो मां, छाती का दूध पिलाती है
चांद मामा की लोरी सुना, अपने लाल को सुलाती है

आजा निंदिया रानी जरा, मेरे लाल को सुला जाना
हो सावन की शीतल बूँदों, प्रीत सुधा पिला जाना
रब सारी जगह नहीं होता,इसलिए मां को बनाया है
रब का ही रूप मात होती, मां ही रब का साया है


प्रेम की मूरत है अद्भुत मां, दया करुणा ममता मां है
सृष्टि टिकी जिसके हृदय पर,अद्भूत साहस क्षमता मां है
जिसकी परिभाषा होय ज्ञान, मूढ़ भी बन जाये ज्ञानी
मां हंसवाहिनी रज से ही, तर जाता है अज्ञानी

मां रामायण का मंत्र है, जीवन की वो गीता है
अग्निपरीक्षा में तपी गयी, जनकदुलारी सीता है
कुरान बाइबिल पावन वाणी, आंखो का मां पानी है
उमा रमा गंगा ब्रम्हाणी, मां जगदंबा भवानी है

ब्रम्ह को पालन झुलाती है, वो अनुसूइया माता है
संतान के भाग्य को बदल दे, वो मां भाग्यविधाता है
रब को जनने वाली मां है, मां ही सृष्टि की निर्माता
मां जीवन भी है आत्मा का,तब जीवन जग में आता

चारधाम मां के चरणों में, मंदिर-मस्जिद क्यो जाते
घर में भूखा बैठा है रब,और मंगल गीत क्यो गाते
मां को हृदय में बसा लेना , भवसागर तर जायेगा
रब को भी पा लेगा तू सुन, जीवन संवर जायेगा

भानु शर्मा रंज
श्रंगार और ओज कवि
धौलपुर राजस्थान
7374060400



5:50 am

देखकर मुझको तेरा वो मुस्कुराना - सना परवीन

देखकर मुझको तेरा वो मुस्कुराना याद है,
निगाहें दीदार कर फिर नजरें चुराना याद है।
याद है मुझको खनकती चूड़ियों के संग,
रफ्ता रफ्ता तेरा वो गुनगुनाना याद है।
वो खिला गुलशन गुलाबी खूबसूरत
वो बेलौस चाहत और पाकीजा मुहब्बत,
गुजरे साथ लम्हे जहन में आज भी हैं,
बेबात पर मुझको तेरा वो बातें बनाना याद है।
लिखूं जज्बात मैं दिल से याद में तेरी
बिछा दूँ धड़कनो को मैं राह में तेरी,
नहीं है मोल कोई 'सना' की शायरी का,
आज भी तेरा अंदाज-ऐ-शायराना याद है।

सना परवीन 'मेहनाज'
हरदोई

5:40 am

नज़्म - ●सच्चे प्यार का आखिरी तोहफा - आंसू● - अक़्स बदायूँनी

तुमने जो खत किताबों में मेरी छुपाये
वो आज भी मोह्ब्बत की खुशबू देते है
तुमसे शिकायत भी बहुत सी है
जिंदगी की तमाम हसरतें अधूरी रह गयी   
पर जिदंगी में वक्त के साथ
सब कुछ बदल गया,
साथ बीते लम्हें ,यादें भी बहुत सी,
बरसों से सभाली हुई ,
पर नए फसानों ने सादगी से
तरंगें भी बदल दी हैं
इंतज़ार था मेरी आँखों में,
थकी पलकें बंद होती नहीं थी,
अपने बिस्तर पर लेट तन्हा !!
रात गुजारी है मैने खयालों मे तेरे !!
पर नए सपनों ने मासूमियत से,
टूटा मैं जब हिम्मत कोशिशों से मिलीं
तेरा मेरा अफसाना अधूरा रह गया
सच्चे प्यार का आखिरी तोहफा
आंसू बन के रह गया
सवाल बहुत से होंगे तुम्हारे भी,
सालों से जो पुछा करती थी,
फैसला तुम्हारा था
हमारी खामियां ढूढने का
हम तो तुझे सिर्फ चाहते थे
मै शराब नही अब
ख्याल जाम भर के पीता हूँ
तुम्हारे झूठे लफ्ज़ और अधूरे वादे से
मैंने भी, फिर तुमसे दूरी कर ली,
खो कर हक़, न पूछना हमसे कुछ,
ख़्वाबों में उनका चाँद सा चेहरा,
आँखों से आँसूओं की बरसात
इन्तज़ार , इज़हार , मुलाकात
सब किया है हमने
अब तुम ही बताओ जाना
प्यार की गहराई मैं कैसे बँया करता
सच्चे प्यार का आखिरी तोहफा -
आंसू बन के मिला

                        © अक्स बदायूँनी
                             27 जून 2017
5:22 am

नज़्म - क्या किसी नज़र का मैं ख़्वाब हूँ - चारु अग्रवाल "गुंजन"

क्या किसी नज़र का मैं ख़्वाब हूँ ?
या किसी के दिल का करार हूँ;
मैं अपनी ही आँखों में ढल गयी...
देखा गौर से...मैं बदल गयी

एक खोज़ हूँ, एक प्यास हूँ
ख़ुद में भटकती सराब हूँ;
मुझको गलत न समझना
थोड़ा दूर हूँ थोड़ा पास हूँ,

पाया न ख़ुद को; खोती रही
मैं पलकों पर ख़्वाब पिरोती रही,
कभी दिल की राह में मिल गयी
लगा दुनिया फिर से बदल गयी,
ठोकर पे ठोकर लगी मगर
टूटी नहीं; संगसार हूँ,

कोई कहे कि मैं रात हूँ
या फिर जलता चराग हूँ;
जो तीरगी में जलती रही
बनी मोम, बस पिघलती रही
दिखी रोशनी जहाँ जहाँ मेरी;
बस वहीं तलक निसार हूँ,

ये उठती गिरती नज़र कहे
कोई आरजू दिल में दबी रहे
मुझमें निहाँ है जो दर्द भी
वो भी हँसे; वो भी कहे
अब ख़ुद पे हूँ फ़िदा बहुत
ख़ुद की ही जानेबहार हूँ;
मैं हूँ नशा इक प्यार का
ख़ुद में घुली शराब हूँ...
न हूँ कम किसी उम्मीद से
बेहिसाब हूँ; बेहिसाब हूँ...!
                     ★ चारु अग्रवाल "गुंजन" ★
3:54 am

सकल कर्म है जीवन सार - डॉ० राहुल शुक्ल 'साहिल'

चौपई/जयकरी छंद🎋
विधान~ चार चरण,प्रत्येक चरण में 15 मात्राएँ, अंत में गुरु लघु, दो-दो चरण समतुकांत

जय जय हो सबकी जयकार|
जयकरी छन्द करे पुकार||
राम नाम का हो मनुहार|
सकल कर्म है जीवन सार||

शाला में नित सुंदर छंद|
भाव जगाते प्रभु के वंद||
मधुर-मधुर सी मधु मकरन्द|
शब्द बोलते जय बृज नंद||

राधारानी की जयकार|
जन जन में होवे सहकार||
कृष्ण कृपा से हो जग पार|
भजन मुक्ति का है आधार||

प्रेम दया है मनु का धर्म|
तन मन से हो सेवा कर्म||
कोमल पावन हिय हो नर्म|
सरल सरस हो जीवन मर्म||

© डॉ० राहुल शुक्ल 'साहिल'


1:37 am

लघु कथा -अलविदा - पुष्प सैनी

प्रज्ञा की आँखें नीले आसमान को एकटक तक रही थी, उसके पास मैं बैठा था लेकिन उसने एक बार भी पलकें उठाकर मेरी तरफ नही देखा ।तभी उसे ओर ठंड महसूस हुई तो उसने अपने से लिपटी शाल को ओर लिपटा लिया ।मैने उसे नीचे चलने को कहा लेकिन उसने कोई जवाब नही दिया और न चलने के लिए उठी शायद वह कुछ देर और छत पर बैठना चाहती थी ।उसकी नज़रें आसमान में उड़ते परिंदों पर लगी थी और मेरी उस पर ।
प्रतिकात्मक चित्रण

                क्या यह वही प्रज्ञा है जिसकी चंचलता और वाक्पटुता मुझे परेशान कर देती थी ।जब प्रज्ञा से शादी हुई थी तब वो अपने साथ लाई थी हजारों रंग ।फुर्सत के पलों में पेंटिंग करना उसका शौक था या कहूं जूनून ।वो इन रंगों में ही अपने आपको मसरुफ़ रखती थी ।मेरे पास वक्त भी कहा था उसके लिए , मैने ही प्रज्ञा की मासूमियत को उदासी में तबदील किया है ।
                शाम को घर लौटता था तो चहकते हुए कहती थी नलिन चलो मेरी पेंटिंग देखो ।मैं हमेशा बाद में देखूंगा कहकर टाल देता था ।वह मेरी सभी ख़्वाहिश पूरी करती थी, सभी जरुरतों का ख्याल रखती थी लेकिन दूसरी तरफ उसकी कला मेरी नज़रे इनायत को तरसती रहती थी ।उसके सृजनात्मक गुणों को कभी तरज़ीह ही नही दी मैने ।जैसी चंचल वह दिखती थी उससे परे वह एक परिपक्व शख़्यित थी ।
                उसने पेंटिंग करने के लिए अलग से कमरा सजा रखा था, जिसे वह कैनवास रुम कहती थी ।मैं उस कमरे में कभी जाता ही नही था और अब प्रज्ञा भी नही जाती ।पता नही उसका यह नैराश्य कैसे दूर होगा ।उसकी जिन्दगी में अहम शख्स मैं था और मैने ही कभी उसे समझना नही चाहा लेकिन मैं अब अपनी तमाम गलतियाँ सुधारना चाहता हूँ ।
                 मुझे याद है जब उसने पहली बार अपनी पेंटिंग की प्रदर्शनी के विषय में बताया था, कितनी चमक थी उसकी आँखों में ।तीन साल के साथ के बाद भी मैने उसकी पेंटिंग उसी प्रदर्शनी में देखी थी ।उसकी कृतियों में तमाम रंग थे  ।उसके हाथ तराशना जानते थे, अनगढ़ नही थे ।किसी भी चित्र में कृत्रिमता नही थी सिर्फ मौलिकता थी उसी की तरह ।प्रदर्शनी देखने आए लोग उसकी तारीफ के पुल बांध रहे थे, वह खुश थी लेकिन आँखों में उदासी झाक रही थी ।
                 मैने उस दिन भी उसकी तारीफ नही की।उसके बाद प्रज्ञा को दूसरे शहरों में भी प्रदर्शनी के अवसर मिले लेकिन उसने मना कर दिया ।मैं देख रहा था वह दिनों दिन उदास और बीमार रहने लगी ।
                  तभी प्रज्ञा नीचे चलने के लिए उठी और रात को बस दो निवाले खाकर बिस्तर पर चली गई ।मैने उससे एक बार कैनवास रुम में चलकर कुछ वक्त बिताने को कहा ।उसने मना कर दिया और सो गई ।
              अगले दिन मुझे ऑफिस के काम से नैनीताल जाना था इसलिए मैने मैरी से उसकी ठीक से देखभाल करने को कहा और प्रज्ञा को बाॅय बोलकर चला गया ।रात को मुझे आने में काफी देर हो गई ।मैरी ने दरवाजा खोला तो मैने प्रज्ञा के विषय में पूछा ।उसने बताया मैडम आज शाम से ही कैनवास रुम में है ।यह सुनकर मेरी आँखों में चमक आ गई ,लगा अब सब ठीक हो जाएगा ।मैने अपना ब्रिफकेश सोफे पर रखा और सीधे कैनवेस रुम में गया ,जहा प्रज्ञा मेज पर सर टिकाये जमीन पर बैठी थी ।मुझे लगा प्रज्ञा सो गई है लेकिन जैसे ही मैने उसे उठाने की कोशिश की तो पता चला वह हमेशा के लिए सो गई है ।उसके हाथ में ब्रश था और कैनवास पर लिखा था अलविदा ।

पुष्प सैनी

सोमवार, 9 जुलाई 2018

9:13 pm

थाईलैंड: गुफा से 4और बच्चे निकाले, दुनिया का सबसे बड़ा बचाव अभियान चल रहा है जाबांज गोताखोर गुफा में फंसे बच्चों को निकालने में पूरा प्रयास....

थाईलैंड की थाम लुआंग गुफा में 23 जून से फंसे 12 लड़कों और उनके फुटबॉल कोच को बाहर निकालने के लिए अब गोताखोरों की मदद ली जा रही है. गोताखोरों की मेहनत रंग ला रही है. मिल रही जानकारी के मुताबिक 8 बच्चों को गुफा से सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया है. गुफा से निकाले गए बच्चों को एंबुलेंस के जरिये अस्पताल पहुंचाया जा रहा है.

फोटो : गूगल 
 रेस्क्यू ऑपरेशन के चीफ नारोंगसाक असोतानाकोर्न ने बताया कि अब तक चार बच्चों को गुफा से बाहर निकाला गया है. उन्हें अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है. बाकी लोगों को निकालने के लिए टीम कोशिश कर रही है. इस बीच गुफा के बाहर तेज बारिश ने मुश्किलें बढ़ा दी हैं. खबर है कि रात में ऑपरेशन रोक दिया गया है. 10 घंटे बाद अब सुबह टीम एक बार फिर से कोशिश करेगी. पूरे ऑपरेशन में कुल 90 गोताखोर जुटे हैं. इनमें 40 थाई जबकि 50 अन्य देशों के गोताखोर हैं. गुफा से निकाले गए बच्चों को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है. बच्चों को मीडिया से दूर ही रखा गया है.

दरअसल तमाम रेस्क्यू ऑपरेशन फेल होने के बाद आनन-फानन में बच्चों को बाहर निकालने के लिए 13 विदेशी गोताखोर और थाइलैंड नेवी सील के 5 गोताखोर लगाए गए हैं. इसमें 10 गोताखोर पहले चरण में अभियान को अंजाम दे रहे हैं. प्लान के मुताबिक ये गोताखोर गुफा के अंदर पहुंच रहे हैं और वहां से दो गोताखोरों की मदद से एक बच्चे को बाहर निकाला जा रहा है. यानी हर बच्चे को बाहर निकालने में दो गोताखोर लगे हैं.
फोटो :  गूगल 
एक चक्कर पूरा करने में करीब 11 घंटे का समय लग रहा है. बचाव अभियान के प्रमुख नारोंगसाक असोतानाकोर्न ने यह जानकारी दी. थाईलैंड के गोताखोर इस मिशन का नेतृत्व करेंगे और विदेशी गोताखोर ऑक्सीजन टैंक लिए हुए होंगे. रेस्क्यू में बचाने के लिए 8 देशों के एक्सपर्ट लगे हुए हैं. बचाव दल में ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और यूरोप एवं एशिया के अन्य हिस्सों से भी गोताखोर शामिल हैं.

दरअसल 'वाइल्ड बोर्स' नाम की यह फुटबॉल टीम गुफा में 23 जून से फंसी है. ये लोग अभ्यास के बाद वहां गए थे और भारी मानसूनी बारिश की वजह से गुफा में काफी पानी भर जाने के बाद वहां फंस गए. इस घटना ने समूचे थाईलैंड और दुनियाभर का ध्यान अपनी तरफ खींचा है. अधिकारी लगातार लड़कों और उनके कोच को बाहर निकालने के लिए संघर्ष कर रहे थे.

हालांकि बचावकर्मियों ने बताया कि इन बच्चों को निकालना समय से होड़ करने जैसा है क्योंकि मानसूनी वर्षा के पानी से भरी गुफा की जलनिकास व्यवस्था पर पानी फिर सकता है. इस बीच, पहाड़ में 100 से अधिक छेद किये गये हैं ताकि निकलने का एक अन्य मार्ग ढूंढा जा सके और बच्चे डूबी सुरंग में और अंदर जाने को बाध्य नहीं हों.

गौरतलब है कि 23 जून को वाइल्ड बोर्स नाम की टीम ने फुटबॉल मैच खेला. बच्चे हमेशा की तरह मौज मस्ती करना चाहते थे. साइकिल रेस लगाते हुए टीम गुफा तक जा पहुंची. 13 जिदंगियों में 12 फुटबॉल खिलाड़ी हैं और एक कोच है.


8:04 pm

ग़ज़ल - आप जो आये तो ये मौसम सुहाना हो गया ~शैलेन्द्र खरे"सोम

आप जो आये तो ये मौसम सुहाना हो गया
शुक्रिया, बेज़ार दिल मेरा दी'वाना हो गया

बस कयामत ढा रही है आपकी ये सादगी
आपकी नज़रों का मैं जैसे निशाना हो गया

तंग गलियों से गुजर के उनको छूना याद है
छोड़िए अब क्या कहूँ क़िस्सा पुराना हो गया

कुछ दिनों से शाम को छत पर टहलते रोज वो
घूमने का मुझको भी अच्छा बहाना हो गया

जिंदगी में आ गया है कोई यूं लेके बहार
अब किसी के दिल में भी मेरा ठिकाना हो गया

खुल गया जो एक मयखाना तो फिर मत पूछिए
शह्र का माहौल सारा शायराना हो गया

फेसबुक से आशिकी, वादे-वफ़ा,आसां है सब
"सोम"फिर भी लोग कहते क्या जमाना हो गया

 शैलेन्द्र खरे"सोम


                                 
6:35 pm

ग़ज़ल - गली-मुहल्लों में देखो वबाल करने लगे - शिव शरण बंधु

गली - मुहल्लों  में  देखो  वबाल  करने लगे
ज़हीन लोग भी क्या-क्या कमाल करने लगे

ज़मीं के लोग मुहब्बत से क्यूं नहीं रहते
फ़लक के चांद, सितारे सवाल करने लगे

अजीब हाल है इस दौर के फ़रिश्तों का
कि जिसको चाहा उसी को हलाल करने लगे

जो हाथ आई हुकूमत तो शरपसंद यहां
तमाम लोगों का जीना मुहाल करने लगे

यहां तो और भी ख़तरे हैं ज़िंदगी के लिए
परिंदे शह्र में आकर मलाल करने लगे

जो चन्द पैसों की आमद का इंतज़ाम हुआ
हमारे लोग हमारा ख़याल करने लगे

सियाह शब का तकब्बुर भी टूट सकता है
बस एक जुगनू अगर देखभाल करने लगे

     -हथगाम-फ़तेहपुर
(उत्तर प्रदेश) 212 652
----9415166683


4:30 am

सजल :- सुनो प्यारे जहाँ माँ बाप है कैसा वहाँ डर है - रेनू सिहं

सुनो प्यारे जहाँ माँ बाप है कैसा वहाँ डर है।
हमेशा साथ चलते हैं न दिन देखा न दुपहर है।।

चढ़ा है शौक सत्ता का जिसे वो मद में डूबा क्यों,
अकड़कर यूँ चले जैसे बचा वो एक नाहर है।

दीवानी राधिका यूँ ही नहीं है मेरे कान्हा की,
चुराता है दिलों को सबके इसका रूप मनहर है।

निभाई रस्म दुनिया की तुझे ससुराल जो भेजा,
छुपाकर दर्द घुटती क्यों कभी मत भूल पीहर है।

तुम्हें भगवान माना है सदा तुमको पूजा है,
चली है उन मुकामों पर कि जिनकी राह जौहर है।

रेनू सिंह
टूण्डला (यूपी)


3:50 am

सजल विधा - आज हम लेकर आये हैं एक बिलकुल नई “सजल विधा”।

आज हम लेकर आये हैं एक बिलकुल नई “सजल विधा”।यह विधा उर्दू की गजल विधा का हिन्दी रूप है। इसको लिखने के लिये गजल की बह्र को सीखने के बदले केवल मात्रा गणना सीखना ज़रूरी है। ग़ज़ल की कठिन बह्र से कुछ अलग सजल के बेहद सरल नियम निम्नानुसार हैं।


हिन्दी गजल को उर्दू के उस्ताद लोग बह्र, रुक्न और अरकान के स्तर पर खारिज कर देते हैं इसलिये हम लोगों ने हिन्दी गजल का नया नामकरण "सजल" के रूप में किया है. अब हिन्दी गजलों में उर्दू का कोई नियम लागू नही होगा. सजल का विस्तृत नवीन संधारित नियम इस तरह है:
दिनांक 02-09-2016 को जहाँ सर्वसम्मति से विद्वानों ने सजल शिल्प हेतु वैकल्पिक सम्बोधन शब्दों की सूची का निर्धारण किया वहाँ दूसरी ओर सजल के शिल्प का स्वरूप भी निर्धारित किया गया ।
आज सजल विधा को
और उसके शिल्पगत गठन को
पटल पर सघन चिंतन-मनन और उसके शिल्प पर गहन मन्थन के उपरान्त सभी विद्वानों की सर्वसहमति से इस रूप में मान्य किया गया है---
सजल नाम की नई विधा को हिन्दी-काव्य में एक नई विधा के रूप में पूर्ण मान्यता दी जाती है !
इसके स्वरूप को इस तरह से मान्य किया किया जाता है कि-----
1---सजल में दो-दो पंक्तियों के कम से कम 5 या फिर कितने ही विषम संख्या में पदिक होंगे ,
2--प्रथम पदिक को "आदिक"
कहा जाएगा ,
3--अंतिम पदिक को "अन्तिक"
कहा जायेगा ,
4---प्रत्येक पदिक में अंत के हर बार ( आवृत्ति )आने वाले एक शब्द को
या
केवल मात्रा-स्वर
को
"पदान्त" कहा जायेगा ,
5---पदिक में इस पदान्त से पहले आने वाले तुकान्त के शब्द को "समान्त" कहा जायेगा ।

इसके अतिरिक्त सजल के शिल्प के अंतर्गत 6 बिंदु और स्थिर किये गए ----
शिल्प का स्वरूप :
1-पंक्ति (मिसरे)का कोई सुनिश्चित मीटर होने की बाध्यता नहीं है, उसका कोई भी मीटर हो सकता है ।
2-लय कोई भी सजलकार की अपनी पसंद की होगी ।
3-पदिक (शेर) में किसी भी हिन्दी छन्द की अनिवार्यता नहीं होगी ।
4- सजल में पदिक (शेर)की रचना अपनी धुन में स्वाभाविक पढ़ंत के हिसाब से लयात्मक रूप में करेगा ।
5-सजल में मात्रिक बाध्यता नहीं होगी, मात्राभार को गिराकर ,उठाकर पढ़ंत की लय आधारित रचने की छूट होगी ।

_ सजल शिल्प हेतु वैकल्पिक सम्बोधन शब्दों की सूची
ग़ज़ल --- सजल
शेर ---- पदिक
मतला -- आदिक
मक्ता --- अन्तिक
रदीफ़ --पदांत
काफ़िया -समान्त
मिसरा -- पंक्ति

--डॉ०अनिल गहलौत और डॉ०राकेश सक्सेना

उपरोक्त शब्दावली को अपनी एक सजल के माध्यम से हम स्पष्ट करते हैं।
हमारी ‘सजल’

इसने -उसकी खायी है रोटी
गोल चाँद बन आयी है रोटी--1

मजदूरी कर दिन गुजरा फिर भी
भर के पेट न पायी है रोटी--2

भूख की आग सताये न जिसको
उसको कभी न भायी है रोटी--3

भूखे उस पर टूट पड़े थे जब
खुद से ही शरमायी है रोटी--4

त्यागे थे प्राण इसी की खातिर
निकली तू दुखदायी है रोटी--5
'
मुखिया निकले घर के जिन्होने
देकर जान कमायी है रोटी --6

भूखे को न कभी ज्ञान पढाओ
उसका कृष्ण कन्हायी है रोटी--7

उपरोक्त सजल मे पहली दो पंक्तियों से बना पद 1 “आदिक’’ है। जिसकी दोनों पंक्तियाँ तुकांत हैं ।
अन्य सभी 2 से 6 तक ‘पदिक’ कहलायेंगे। अंतिम पद नंबर 7 अंतिक है। इन सभी पदों मे दूसरी पंक्ति आदिक की पंक्तियों से तुकांत होगी।
इस सजल की प्रत्येक पंक्ति मे समान मात्रा भार है। हर पंक्ति का अंत ‘’है रोटी’’ से हो रहा है यह ‘’पदांत’’ हैं जो आदिक की दोनों पंक्तियों और हर पदिक की दूसरी पंक्ति मे समान है । और ‘’समान्त’’ है ,‘’आयी’’
खायी,भायी, कमायी,आयी, दुखदायी आदि।
ग़ज़ल की ही तरह आप अंतिक मे अपना नाम डाल सकते हैं ।
फ़ेसबुक समूह से उद्धरित

रविवार, 8 जुलाई 2018

8:40 pm

वो भी शायद ख़ुश नहीं है दिल हमारा तोड़कर - राशीद राहत

इश्क़ के इस आसमाँ का एक तारा तोड़कर।
उसने हमको रख दिया है आज सारा तोड़कर।।

आँख भीगी होठ सूखे और माथे पर शिकन।
वो भी शायद ख़ुश नहीं है दिल हमारा तोड़कर।।

राशिद_राहत

8:02 pm

लगाते ठेस अपने ही मगर रोना नही अच्छा - संतोष कुमार

लगाते  ठेस अपने ही मगर रोना नही अच्छा ।
सदा उनके लिए तो बेरुखी होना नही अच्छा ।।

अगर हो क्रोध में कोई तो कुछ भी बोल देता है ।
हमेशा ऐसी बातें दिल पे तो ढोना नही अच्छा ।।

जो जैसा करता है उसकी वही आदत है ये समझो ।
किसी की बातों से विश्वास को खोना नही अच्छा ।।

किसी के वास्ते गर तुम फूल बन कर खिल नही सकते ।
किसी की राह में कांटो का तो बोना नही अच्छा ।।

अगर जो चाहते हो तुम कभी सेहत नही बिगड़े ।
सुबह फिर इस तरह से देर तक सोना नही अच्छा ।।

दिलो की नफ़रतें होती नही है दूर नफरत से ।
किसी के भी लिए तो 'प्रीत' का होना नही अच्छा।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'


10:30 am

मुक्तक - तन की नज़ाकत को मैं प्यार समझ बैठा - डा राहुल शुक्ला

तन की नज़ाकत को मैं प्यार समझ बैठा|
उनकी शराफ़त को मैं इकरार समझ बैठा|
वो तो यूँ ही सफर के मददगार थे|
मैं तो उनको जीवन का हार समझ बैठा|
डा राहुल शुक्ला "साहिल" इलाहाबाद

9:19 am

ग़ज़ल - दिखाओ आँख मत हमको, तेरे ही हम दिवाने है - बृजमोहन श्रीवास्तव

दिखाओ आँख मत हमको, तेरे ही हम  दिवाने है ।
भले  ही भूल जा मुझको , तेरे आशिक  पुराने है ।।

जिसे  मनमीत कहते हो , नज़र  लूट  लेगा वो  ।
नज़र के वार से बचना ,गजब उसके निशाने है ।।

हसीना जब कहे है हाँ , हंसी दुनिया ये हो जाती ।
मना करती हसीना जब ,लगे अपने बेगाने है ।।

बड़ी कातिल अदांऐ है , कई मजनू किये पागल ।
जरा बचना हसीनो से , बने  इनसे  मैखाने  है ।।

समन्दर कब हुआ खारा, सुनो साथी कहे सबसे ।
बहाये अश्क आशिक ने , उसी के ये फसाने है ।।

🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻
बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी" डबरा

शनिवार, 7 जुलाई 2018

7:55 pm

मुक्तक - विचरण भले कहीं भी कर लो -- पवन शंखधार

विचरण भले कहीं भी कर लो अपना घर अपना होता है ।
भले  सप्तरंगी   हो  पर  सपना  तो  सपना  होता  है ।।
संघर्ष  कष्ट  और  विपदायें  जीवन  के  वैभव  होते  हैं ,
इतिहास पुरुष बनने के लिये जीवन भर तपना  होता है ।।

पवन शंखधार
कवि / मंच संचालक
 स्वरदूत -9927433400


12:57 am

कवि केदारनाथ सिंह के बारें ये बाते जरूर जानें.....

केदारनाथ सिंह 7 July 1934 – 19 March 2018), हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि व साहित्यकार थे। वे अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरा सप्तक के कवि रहे। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उन्हें वर्ष 2013 का ४९वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था. वे यह पुरस्कार पाने वाले हिन्दी के १०वें लेखक थे
हिंदी साहित्य के संसार में केदारनाथ सिंह की कविता अपनी विनम्र उपस्थिति के साथ पाठक के बगल में जाकर खड़ी हो जाती है. वे अपनी कविताओं में किसी क्रांति या आंदोलन के पक्ष में बिना शोर किए मनुष्य, चींटी, कठफोड़वा या जुलाहे के पक्ष में दिखते हैं.
समकालीन भारतीय कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह का 19 मार्च 2018 को निधन हो गया. उन्हें 1989 में साहित्य अकादमी और 2013 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. नवंबर 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में जन्मे केदारनाथ सिंह ने अपना शैक्षिक करियर पडरौना के एक कॉलेज से शुरू किया था. बाद में वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय चले गए. वे एक उम्दा कवि और अध्यापक के रूप में वहां मशहूर थे.
उनसे जुड़ी एक बात याद आती है. वे इलाहाबाद में 20 और 21 जून 2015 को ‘उजास- हमारे समय मे कविता’ नामक एक आयोजन में बोलने आए थे. सबसे पहले उन्हें ही बोलना था लेकिन इस कार्यक्रम के आयोजक ने कार्यक्रम का परिचय देने में बहुत समय ले लिया और श्रोताओं को घनघोर तरीके से उबा दिया.
जब कवि केदारनाथ सिंह बोलने आए तो उन्होंने अपने कुरते की जेब से एक पुर्जी निकाली और एक तिब्बती कवि की कविता का अनुवाद पढ़ा और मुकुटधर पाण्डेय की तीन-चार लाइनें कहकर अपनी सीट पर बैठ गए. यह एक कवि का दूसरे कवि के प्रति सम्मान भाव था, उससे ज्यादा एक निर्वासित समुदाय के कवि की पीड़ा को वह ‘हमारे समय में कविता’ के मंच पर उपस्थित सभी कवियों की साझा चिंता बना रहा था.
बीसवीं शताब्दी की रूसी कविताओं का एक अनुवाद साहित्य अकादमी ने ‘तनी हुई प्रत्यंचा’ के नाम से प्रकाशित किया है. इसे रूसी भाषा के जानकार वरयाम सिंह ने अनूदित किया था और संपादन केदारनाथ सिंह ने किया था. अपने एक संक्षिप्त संपादकीय में उन्होंने त्स्वेतायेवाकी की लोकबिंब से आधुनिक जीवन का तीखा द्रव्य निचोड़ लेने की क्षमता और मंदेल्स्ताम के चट्टान जैसे काव्य शिल्प की सराहना की थी. यह बात कमोबेश उनके लिए भी सही है.
उन्होंने अपनी कविता यात्रा में अपने मानकों में कोई ढील नहीं दी. लोकबिंब से आधुनिक जीवन का तीखा द्रव्य उनकी कविताओं लगातार व्याप्त है. अपनी कविताओं में किसी क्रांति या परिवर्तनकामी आंदोलन के पक्ष में बिना शोर किए वे मनुष्य, चींटी, कठफोड़वा या जुलाहे के पक्ष में खड़े हो जाते हैं.
उनकी कविता हिंदी साहित्य के संसार में अपनी विनम्र उपस्थिति के साथ अपने पाठक के बगल में जाकर खड़ी हो जाती है,
जैसे दुनिया के तमाम दानिशवर और कवि होते हैं, वैसे ही केदारनाथ सिंह भी थे- उन्हें भाषा पर भरोसा था. यह भी कि लोग बोलेंगे ही , वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा.
प्रेम के नितांत व्यक्तिगत क्षणों को वे जितनी आसानी से कविता में कह जाते थे, वह किसी उस्ताद के बस की ही बात थी. उनकी मृत्यु के बाद उनकी ढेर सारी कविताएं साइबर संसार में आसमान के नीले रंग की भांति फैल गयी हैं लेकिन उनकी एक कविता तो हिंदी संसार में विदा गीत का रूप ले चुकी है,
उनके लिए कविता कोई व्यक्तिगत किस्म की उपलब्धि नहीं थी, बल्कि वह दुनिया को बनाने का एक उष्मीय इरादा रखती थी.
मृत्यु बोध, बनारस और केदारनाथ सिंह
केदारनाथ सिंह की कविताओं में मृत्यु को लेकर एक विकल संवेदना सदैव व्याप्त रहती है. उन्होंने मनुष्य के ‘होने’ पर जितनी गहराई से सोचा-समझा और लिखा उतना ही उसके न होने पर लिखा,
यों हम लौट आए
जीवितों की लम्बी उदास बिरादरी में
कुछ नहीं था
सिर्फ़ कच्ची दीवारों
और भीगी खपरैलों से
किसी एक के न होने की
गंध आ रही थी.
++++
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह
अभी बिल्कुल अभी
जमीन पक रही है
यहाँ से देखो
बाघ
अकाल में सारस
उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ
तालस्ताय और साइकिल
आलोचना
कल्पना और छायावाद
आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान
मेरे समय के शब्द
मेरे साक्षात्कार
संपादन
ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन)
समकालीन रूसी कविताएँ
कविता दशक
साखी (अनियतकालिक पत्रिका)
शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)
सम्मान और पुरस्कार
ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रतीकः वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा
ज्ञानपीठ पुरस्कार
मैथिलीशरण गुप्त सम्मान
कुमारन आशान पुरस्कार
जीवन भारती सम्मान
दिनकर पुरस्कार
साहित्य अकादमी पुरस्कार
व्यास सम्मान
प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह को मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार
हिंदी की आधुनिक पीढ़ी के रचनाकार केदारनाथ सिंह को वर्ष 2013 के लिए देश का सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। वह यह पुरस्कार पाने वाले हिन्दी के 10वें लेखक थे। ज्ञानपीठ की ओर से शुक्रवार 20 जून, 2014 को यहां जारी विज्ञप्ति के अनुसार सीताकांत महापात्रा की अध्यक्षता में हुई चयन समिति की बैठक में हिंदी के जाने माने कवि केदारनाथ सिंह को वर्ष 2013 का 49वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने का निर्णय किया गया। इससे पहले हिन्दी साहित्य के जाने माने हस्ताक्षर सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय, महादेवी वर्मा, नरेश मेहता, निर्मल वर्मा, कुंवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को यह पुरस्कार मिल चुका है। पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार मलयालम के लेखक गोविंद शंकर कुरुप (1965) को प्रदान किया गया था।
-रमाशंकर सिंह

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