पाँच साल की बच्ची को जब, निज हाथों से दफ़नाया||
पाला पोसा बड़ा किया उस, माँ की बिटिया छली गयी|
क्रूरकाल के हाथों में वह, झट हाथों से चली गयी||
चार रोज मैं पूर्व गया था, उसके पापा से मिलने|
पापा चाचाजी आये हैं, लगी कली सी वह खिलने||
देखो चाचा मेरे तन पर , बड़े बड़े से छाले हैं|
दर्द बहुत ही होता मुझको, खाने तक के लाले हैं||
ठीक शीघ्र हो जाओगी तुम, मैंने उसको समझाया|
अन्तर्मन के क्रन्दन को मैं, अन्दर रोक नहीं पाया ||
उस दिन बारिश थमी हुई थी, दो पहर मात्र ही गुजरे थे|
फूटे छालों पानी बहता, ले उसको कब ठहरे थे||
नजर एक पापा पर डाली, फिर कातर मुँह मोड़ लिया|
दवा हेतु बाइक पर जाते, पथ में ही दम तोड़ दिया||
गोदी में पापा की बिटिया, घर को कैसे लौटाया|
अन्तर्मन के क्रन्दन को मैं, अन्दर रोक नहीं पाया ||
घर की दीवारें चीख रहीं,हाहाकार मची भारी|
आज विधाता चला रहा है,माँ के सीने पर आरी|
फिर गश खाकर गिरी विचारी ,अँसुअन आँचल धोया है|
धरतीतल की बात कहें क्या, आसमान भी रोया है||
पीट पीट के छाती हारे, ये जग है काल सताया||
अन्तर्मन के क्रन्दन को मैं, अन्दर रोक नहीं पाया ||
© दिलीप कुमार पाठक "सरस"
अत्यंत मार्मिक, मर्मभेदी
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