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मंगलवार, 10 जुलाई 2018

लघु कथा -अलविदा - पुष्प सैनी

प्रज्ञा की आँखें नीले आसमान को एकटक तक रही थी, उसके पास मैं बैठा था लेकिन उसने एक बार भी पलकें उठाकर मेरी तरफ नही देखा ।तभी उसे ओर ठंड महसूस हुई तो उसने अपने से लिपटी शाल को ओर लिपटा लिया ।मैने उसे नीचे चलने को कहा लेकिन उसने कोई जवाब नही दिया और न चलने के लिए उठी शायद वह कुछ देर और छत पर बैठना चाहती थी ।उसकी नज़रें आसमान में उड़ते परिंदों पर लगी थी और मेरी उस पर ।
प्रतिकात्मक चित्रण

                क्या यह वही प्रज्ञा है जिसकी चंचलता और वाक्पटुता मुझे परेशान कर देती थी ।जब प्रज्ञा से शादी हुई थी तब वो अपने साथ लाई थी हजारों रंग ।फुर्सत के पलों में पेंटिंग करना उसका शौक था या कहूं जूनून ।वो इन रंगों में ही अपने आपको मसरुफ़ रखती थी ।मेरे पास वक्त भी कहा था उसके लिए , मैने ही प्रज्ञा की मासूमियत को उदासी में तबदील किया है ।
                शाम को घर लौटता था तो चहकते हुए कहती थी नलिन चलो मेरी पेंटिंग देखो ।मैं हमेशा बाद में देखूंगा कहकर टाल देता था ।वह मेरी सभी ख़्वाहिश पूरी करती थी, सभी जरुरतों का ख्याल रखती थी लेकिन दूसरी तरफ उसकी कला मेरी नज़रे इनायत को तरसती रहती थी ।उसके सृजनात्मक गुणों को कभी तरज़ीह ही नही दी मैने ।जैसी चंचल वह दिखती थी उससे परे वह एक परिपक्व शख़्यित थी ।
                उसने पेंटिंग करने के लिए अलग से कमरा सजा रखा था, जिसे वह कैनवास रुम कहती थी ।मैं उस कमरे में कभी जाता ही नही था और अब प्रज्ञा भी नही जाती ।पता नही उसका यह नैराश्य कैसे दूर होगा ।उसकी जिन्दगी में अहम शख्स मैं था और मैने ही कभी उसे समझना नही चाहा लेकिन मैं अब अपनी तमाम गलतियाँ सुधारना चाहता हूँ ।
                 मुझे याद है जब उसने पहली बार अपनी पेंटिंग की प्रदर्शनी के विषय में बताया था, कितनी चमक थी उसकी आँखों में ।तीन साल के साथ के बाद भी मैने उसकी पेंटिंग उसी प्रदर्शनी में देखी थी ।उसकी कृतियों में तमाम रंग थे  ।उसके हाथ तराशना जानते थे, अनगढ़ नही थे ।किसी भी चित्र में कृत्रिमता नही थी सिर्फ मौलिकता थी उसी की तरह ।प्रदर्शनी देखने आए लोग उसकी तारीफ के पुल बांध रहे थे, वह खुश थी लेकिन आँखों में उदासी झाक रही थी ।
                 मैने उस दिन भी उसकी तारीफ नही की।उसके बाद प्रज्ञा को दूसरे शहरों में भी प्रदर्शनी के अवसर मिले लेकिन उसने मना कर दिया ।मैं देख रहा था वह दिनों दिन उदास और बीमार रहने लगी ।
                  तभी प्रज्ञा नीचे चलने के लिए उठी और रात को बस दो निवाले खाकर बिस्तर पर चली गई ।मैने उससे एक बार कैनवास रुम में चलकर कुछ वक्त बिताने को कहा ।उसने मना कर दिया और सो गई ।
              अगले दिन मुझे ऑफिस के काम से नैनीताल जाना था इसलिए मैने मैरी से उसकी ठीक से देखभाल करने को कहा और प्रज्ञा को बाॅय बोलकर चला गया ।रात को मुझे आने में काफी देर हो गई ।मैरी ने दरवाजा खोला तो मैने प्रज्ञा के विषय में पूछा ।उसने बताया मैडम आज शाम से ही कैनवास रुम में है ।यह सुनकर मेरी आँखों में चमक आ गई ,लगा अब सब ठीक हो जाएगा ।मैने अपना ब्रिफकेश सोफे पर रखा और सीधे कैनवेस रुम में गया ,जहा प्रज्ञा मेज पर सर टिकाये जमीन पर बैठी थी ।मुझे लगा प्रज्ञा सो गई है लेकिन जैसे ही मैने उसे उठाने की कोशिश की तो पता चला वह हमेशा के लिए सो गई है ।उसके हाथ में ब्रश था और कैनवास पर लिखा था अलविदा ।

पुष्प सैनी

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