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शाइरी की बुनियाद ही मुतालआ यानी अध्ययन होती है. बग़ैर पढ़े आप बहुत दिनों तक शाइरी नहीं कर सकते या अच्छी शाइरी तो कर ही नहीं सकते. वज्ह यह है कि आप अपनी उम्र के 20- 22 सालों के तजरबे को 20- 22 ग़ज़लों तक ही बयान कर सकते हैं. उसके बाद आपकी सोच अपने आप को दोहराती है और बारहा आप एक ही ज़ाविए से या एक ही मौज़ूअ पर शे'र कहते रह जाते हैं. यह तो सभी जानते हैं बल्कि सच भी यही है कि बेश्तर शाइरी की शुरुआत इश्क़ में पड़कर होती है. जो कि उस शाइर की शुरूआती और सबसे ख़राब शाइरी होती है. उसके बाद हिज्र के आते- आते कुछ ठीक- ठाक होने लगती है लेकिन वह भी कुछ दिनों तक ही क़ाइम रह पाती है. लिहाज़ा हमारा किताबों की जानिब रुख़ करना लाज़िमी ही नहीं बल्कि हमारी मजबूरी भी बन जाता है. हमें पढ़ना इसीलिए भी चाहिए हम हर क़िस्म के शाइर की शाइरी को नज़दीक से समझ सकें. उनके शे'र बनाने के तरीक़े को समझ सकें. तमाम शाइर एक ही बात को इतने मुख़्तलिफ़ लहजे में कहते मिलेंगे कि आपको उनका हर शे'र नया ही लगेगा. ज़बान और उसका इस्तेमाल हम लुग़त से क़तई नहीं सीख सकते न ही किसी उस्ताद को इतनी फ़ुर्सत है और न ही आपको. सो भी हमें पढ़ना चाहिए ताकि हम जान सकें कि कैसे किस लफ़्ज़ को कहाँ इस्तेमाल किया जाता है. यह एक लम्बी प्रोसेस है और इसमें अगर 10- 12 साल भी लग जाएँ तो भी बड़ी बात नहीं.
पढ़ने को लेकर मुझसे हज़ार बार यह सवाल पूछा गया कि क्या और कैसे पढ़ना है. इसके मुताल्लिक़ मेरा जवाब यह है कि सबकुछ पढ़ने के लिए ही लिखा गया है. शाइरी पढ़ना तो ज़रूरी है ही साथ- साथ कहानी, उपन्यास भी अगर आप पढ़ेंगे तो भी आपके इल्म में इज़ाफ़ा ही होगा और वह इसीलिए क्यों कि कहानी या उपन्यास एक नहीं बल्कि कई किरदार के बनने- बिगड़ने की प्रोसेस को समझने में हमारी मदद करते हैं. हम उन्हें पढ़कर अपनी ज़िन्दगी के आगे की ज़िन्दगी का अनुभव कर पाते हैं. हमारे अपने ज़ाती तजरबे में एक जादुई इज़ाफ़ा सिर्फ़ अध्ययन के माध्यम से किया जा सकता है. जब भी कोई नया शाएर पढ़ें तो पहले पढ़े जा चुके शाएर को दिमाग़ में रखते हुए पढ़ें कि इसमें और उसमें क्या फ़र्क़ है? कैसे ये दोनों शाइर एक दूसरे से जुदा हैं. अगर आपने नया- नया (यानी इससे पहले कभी कुछ नहीं पढ़ा) पढ़ना शुरूअ किया है तो पढ़ते वक़्त यह भूलकर पढ़ें कि आप भी कुछ लिख लेते हैं. पढ़ते- पढ़ते हमें अक्सर लगने लगता है कि एक शे'र होने वाला है लेकिन वो शे'र उस वक़्त आपको भले ही ख़ूब अच्छा लगे लेकिन चंद रोज़ बाद आप ख़ुद ही उसे ख़ारिज करने में संकोच नहीं करेंगे लिहाज़ा हमें पढ़ते वक़्त लिखने से बचना है. शाइर का चुनाव आप अपनी समझ के हिसाब से करें. शाइरी से शाइर की ज़ाती ज़िन्दगी समझने की कोशिश करने के बजाए उस शे'र को समझने की कोशिश करें. हर एक लफ़्ज़ को बारीकी से पढ़ें और सोचें की अगर लिखे गए लफ़्ज़ की जगह कोई और लफ़्ज़ होता तो शे'र कैसा होता? शे'र के सतही मआनी के इलावा उसमें निहाँ तमाम पहलू कुरेदने की कोशिश करें. एक ग़ज़ल को समझने में एक दिन, एक हफ़्ता या पूरा महीना भी लगता है तो लगने दीजिए लेकिन आगे तब तक न बढ़िए जब तक आपको वह समझ में न आ जाए. अगर आप महीनों या साल- साल भर शे'र नहीं कह पा रहे हैं तो इसका यह मतलब क़तई नहीं होता है कि आपके अंदर का शाइर मर गया है या मरता जा रहा है. हो सकता है वो शाइर चुप- चाप कुछ धमाका करने की तैयारी कर रहा हो. आज के तजरबे को आज ही कह देने से शे'र बहुत कम ही अच्छे होते हैं. सो इससे भी बचकर चलें. ख़यालों को पकने दिया करें.
हमें कुछ लिखने के लिए नहीं बल्कि कुछ सीखने के लिए पढ़ना है. हमें पढ़कर सब याद करना है फिर सब भूल जाना है फिर अपना लिखना है. अगर आपको यह प्रोसेस और मेरी बात समझ में आ गयी होगी तो यक़ीनन आप अच्छी शाइरी कर पाएंगे.
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फ़ैयाज़
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