ग़ज़ल क्र० 1
श्याम की मीरा दीवानी हो गयी ।
यह कहानी तो पुरानी हो गयी ।।
प्यार की सौगात प्यारे छीन ली ।
बोझ अपनी जिंदगानी हो गई ।।
देखकर बेटो की अपनी साज़िशे ।
माँ बेचारी पानी पानी हो गई ।।
हार गेंदे के सुवन में शब्द सुंदर ।
क्या गज़ब की मेहरबानी हो गई ।।
आपने जो बाजी कहाँँ वाजिब कहा ।
मुझसे ही कुछ बदजुबानी हो गई ।।
सासंद इस शहर का पी एम हुआ ।
अब बनारस राजधानी हो गई ।।
बात तो शैलेस केवल बात थी ।
उसकी भी अब वाणी जानी हो गई ।।
डॉ0 ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी 'शैलेश'
ग़ज़ल क्र 2
थी मेरी हसरत बहुत ही छोटी,
गुनाह मेरा बहुत बड़ा था ।
वजूद मेरा न सह सके तुम,
क्या जिद पे पहले कभी अड़ा था ।।
न खोट नियत थी कुछ बजह मेरी,
था खैर मकदम ऐसा इरादा ।
बहुत थे हमले को हमपे झपटे
वहाँ अकेला ही मैं खड़ा था ।।
थी कैसी कशिश थी कितनी कीमत,
नही छिपा था नजर से मेरे ।
उन्हें भी हमने थी बख्सी इज्जत,
क्या उनमे हीरे का कण जड़ा था।।
ये किस रुतबा की जिसने अपने,
गुरुर को ही बड़ा दिया हो ।
क्यो बगुल जाते हो उसको जिसने,
तुम्हारे हक में कभी लड़ा था ।।
न जिस्म पर मेरे चोट आई,
मगर जिगर तो हुआ ही घायल।
अवाक मैं रह गया था पलभर,
वो कॉल भी बहुत बड़ा था ।।
बहुत ही सुंंदर था तेरा मुखड़ा,
तो आग बरस ही किसलिए वह ।
खड़ा था कि आदमी वहाँ पर,
नही मरा जानवर सड़ा था ।।
मुझे मुहब्बत ने उसकी बाँधा,
खाजोश बैठा जो उसकी आगे ।
न आता इस डर कहि भी जाता,
शैलेश सारा शहर पड़ा था ।।
ग़ज़ल क्र 3
किसी से चोट मिलती है, तो कोई प्यार देता है।
भंवर के बीच से नोका, मर्री कर पार देता है ।।
न बदल है न बदलेगा पुरानी सोच का नक्शा,
है पाता जब कभी मौका, छुरी पर धार देता है।
है हस्ता मुस्कराता और चुटकी काट लेता है,
मिला हुँँ जब कभी तोहफा यही हर बसर देता है।
सभलने की नसीहत तो मुझे देता है हर कोई ।
अकेला है ऐसे जीवन को मेरे रफ्तार देता है ।।
दिखावा तो नही करता, मगर दिलदार है बेहद ।
जिसे होती जरूरत है उसे उधार देता है ।।
मरे मलोक गजब का फैसला है तू भी दे देता ।
किसी को फूल देता है किसी को कहर देता है ।।
मुरब्बत है न दिल मे न पता है आदमियत क्या ।
भला ऐसे के हांथो में ही क्यों अधिकार देता है ।।
जहाँ भर के लिए दरियादिली है तेरे दिल मे तो ।
सिर्फ शैलेश को हो किसलिये धिक्कार देता है ।।
ग़ज़ल क्र 4
घर बँटा रोटी बँटी दिल बँट गया ।
इस तरह अपनो से इंसा कट गया ।।
वक्त आया दूर जा बैठा कही,
नेकीयो के रास्ते से हट गया ।।
हाथ खाली यह यहाँँ करता भी क्या ।
वह रहे काशी में मैं चिनहट गया ।।
माँ रही उत्सव रहा सब कुछ रहा ।
फूल से आँगन था सारा पट गया ।।
प्यार क्या अपनत्व क्या आई समझ ।
सामने छाया अंधेरा छट गया ।।
बाते जिसके लिए जिल्लत सहे ।
बात उसकी सुन कलेजा फट गया ।।
गैर था शैलेश लेकिन वक्त पर ।
कर गया इमदाद फिर सरपट गया ।।
ग़ज़ल क्र 5
जख्मो की गहराई तुम क्या जानोगे ।
आँँख मेरी भर आईं तुम क्या जानोगे ।।
तुम जूनून के चलते जितना गवा दिए ।
कैसे हो भरपाई तुम क्या जानोगे ।।
कितनी किल्लत और मसक्कत कर मैंने ।
जोड़ी पाई पाई तुम क्या जानोगे ।।
तन पर कपड़ा नही जवानी बोझ बनी ।
लेती है अंगड़ाई तुम क्या जानोगे ।।
तुमने खाया मौज उड़ाया जीवन भर ।
कैसे हुई कमाई तुम क्या जानोगे ।।
जहाँ रहे तुमने महलो का सुख पाया ।
क्या है घर अंगनाई तुम क्या जानोगे ।।
आज सियासत शहर की उसके ही चलते ।
कितनी है गरमाई तुम क्या जानोगे ।।
जनता मरे भूख से पर अफसर नेता
खाते खूब मलाई तुम क्या जानोगे ।।
कटे रहे माटी से जीवम भर प्यारे ।
खेती और सिंचाई तुम क्या जानोगे ।।
ग़ज़ल क्र 6
समय देखिये और समय की धार देखिये ।
फुटपाथों पर आज दिख रहा प्यार देखिये ।।
राजा चुप है रानी चुप है मंत्री भी चुप ।
सब पर हुक्म चलाता चोकीदार देखिये ।।
प्रायः सच्चाई की कसमें लोग है खाते ।
किंतु झूठ का चलता कारोबार देखिये ।।
कुछ कहने सुनने की छूट नही आई ।
बुद्धजीवियों का गूंगा दरबार देखिये ।।
हुआ हादसा पिछले बरस मरे अनगिनत ।
फिर भी जाते लोग वहाँ हट बार देखिये ।।
हत्या लूट फिरौती चोरी बलात्कार की ।
खबरों से है भरा हुआ अख़बार देखिये ।।
अपराधी मानव है कदम उठा सुरक्षित रखो ।
राजनीति वालो के शुभ उद्द्गर देखिये ।।
घर के लोगों की अंदेखो के चलते ।
देश हुआ शैलेः बहुत बीमार देखिये ।।
ग़ज़ल क्र 7
तुमसे जो कुछ मिला बहुत है ।
बना रहे सिलसिला बहुत है ।।
अपनी करनी नही देखते ।
उनको शिकवा - गिला बहुत है ।।
लम्हेंं नही एहसास मुझे है ।
घाव जिगर का छिला बहुत है ।।
जैसे - जैसे जी ही लूंगा ।
यादों का काफिला बहुत है ।।
कत्ल उसी का करना चाहो ।
जो तुमसे ही हिला बहुत है ।।
ढह जाएगा निश्चित इक दिन ।
यदपि ऊँचा किला बहुत है ।।
अब तो कर शैलेष पर रहम ।
दिया इसे तू सजा बहुत है ।।
ग़ज़ल क्र 8
अधरों से छू दिया आपने लम्हा-लम्हा ग़ज़ल हो गया ।
राह भटकते पगने पाई, यत्र सार्थक पहल हो गया ।।
काव्य कीर्ति का आँचल फहरा इंद्रधनुष अम्बर में लहरा ।
संदया डूबी मधुर मिठास से रूप समय का नवल हो गया ।।
माटी की सेवा में आपने जो भी शास्वत क्षड है गुजरे ।
आप नाम चाहे जो दे दे अपना जीवन सफल हो गया।
तन से ऊपर, धन से ऊपर मन से जो भी किया आपने ।
पन्ने पर युग के आरेखित स्वदे खांस अटल हो गया ।।
अट्टालिका न माने रखती सप्तरंग भी होते ढूंढ़ले ।
जर्जर इस छाया के आगे झूठा ऊंचा महल हो गया ।।
आघातों को सहते सहते टूट गया शैलेश चदुर्दिक ।
थोड़ा सम्बल मिला आपका यह निर्बल भो सबल हो गया ।।
डॉ0 ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी 'शैलेश'
श्याम की मीरा दीवानी हो गयी ।
यह कहानी तो पुरानी हो गयी ।।
प्यार की सौगात प्यारे छीन ली ।
बोझ अपनी जिंदगानी हो गई ।।
देखकर बेटो की अपनी साज़िशे ।
माँ बेचारी पानी पानी हो गई ।।
हार गेंदे के सुवन में शब्द सुंदर ।
क्या गज़ब की मेहरबानी हो गई ।।
आपने जो बाजी कहाँँ वाजिब कहा ।
मुझसे ही कुछ बदजुबानी हो गई ।।
सासंद इस शहर का पी एम हुआ ।
अब बनारस राजधानी हो गई ।।
बात तो शैलेस केवल बात थी ।
उसकी भी अब वाणी जानी हो गई ।।
डॉ0 ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी 'शैलेश'
ग़ज़ल क्र 2
थी मेरी हसरत बहुत ही छोटी,
गुनाह मेरा बहुत बड़ा था ।
वजूद मेरा न सह सके तुम,
क्या जिद पे पहले कभी अड़ा था ।।
न खोट नियत थी कुछ बजह मेरी,
था खैर मकदम ऐसा इरादा ।
बहुत थे हमले को हमपे झपटे
वहाँ अकेला ही मैं खड़ा था ।।
थी कैसी कशिश थी कितनी कीमत,
नही छिपा था नजर से मेरे ।
उन्हें भी हमने थी बख्सी इज्जत,
क्या उनमे हीरे का कण जड़ा था।।
ये किस रुतबा की जिसने अपने,
गुरुर को ही बड़ा दिया हो ।
क्यो बगुल जाते हो उसको जिसने,
तुम्हारे हक में कभी लड़ा था ।।
न जिस्म पर मेरे चोट आई,
मगर जिगर तो हुआ ही घायल।
अवाक मैं रह गया था पलभर,
वो कॉल भी बहुत बड़ा था ।।
बहुत ही सुंंदर था तेरा मुखड़ा,
तो आग बरस ही किसलिए वह ।
खड़ा था कि आदमी वहाँ पर,
नही मरा जानवर सड़ा था ।।
मुझे मुहब्बत ने उसकी बाँधा,
खाजोश बैठा जो उसकी आगे ।
न आता इस डर कहि भी जाता,
शैलेश सारा शहर पड़ा था ।।
ग़ज़ल क्र 3
किसी से चोट मिलती है, तो कोई प्यार देता है।
भंवर के बीच से नोका, मर्री कर पार देता है ।।
न बदल है न बदलेगा पुरानी सोच का नक्शा,
है पाता जब कभी मौका, छुरी पर धार देता है।
है हस्ता मुस्कराता और चुटकी काट लेता है,
मिला हुँँ जब कभी तोहफा यही हर बसर देता है।
सभलने की नसीहत तो मुझे देता है हर कोई ।
अकेला है ऐसे जीवन को मेरे रफ्तार देता है ।।
दिखावा तो नही करता, मगर दिलदार है बेहद ।
जिसे होती जरूरत है उसे उधार देता है ।।
मरे मलोक गजब का फैसला है तू भी दे देता ।
किसी को फूल देता है किसी को कहर देता है ।।
मुरब्बत है न दिल मे न पता है आदमियत क्या ।
भला ऐसे के हांथो में ही क्यों अधिकार देता है ।।
जहाँ भर के लिए दरियादिली है तेरे दिल मे तो ।
सिर्फ शैलेश को हो किसलिये धिक्कार देता है ।।
ग़ज़ल क्र 4
घर बँटा रोटी बँटी दिल बँट गया ।
इस तरह अपनो से इंसा कट गया ।।
वक्त आया दूर जा बैठा कही,
नेकीयो के रास्ते से हट गया ।।
हाथ खाली यह यहाँँ करता भी क्या ।
वह रहे काशी में मैं चिनहट गया ।।
माँ रही उत्सव रहा सब कुछ रहा ।
फूल से आँगन था सारा पट गया ।।
प्यार क्या अपनत्व क्या आई समझ ।
सामने छाया अंधेरा छट गया ।।
बाते जिसके लिए जिल्लत सहे ।
बात उसकी सुन कलेजा फट गया ।।
गैर था शैलेश लेकिन वक्त पर ।
कर गया इमदाद फिर सरपट गया ।।
ग़ज़ल क्र 5
जख्मो की गहराई तुम क्या जानोगे ।
आँँख मेरी भर आईं तुम क्या जानोगे ।।
तुम जूनून के चलते जितना गवा दिए ।
कैसे हो भरपाई तुम क्या जानोगे ।।
कितनी किल्लत और मसक्कत कर मैंने ।
जोड़ी पाई पाई तुम क्या जानोगे ।।
तन पर कपड़ा नही जवानी बोझ बनी ।
लेती है अंगड़ाई तुम क्या जानोगे ।।
तुमने खाया मौज उड़ाया जीवन भर ।
कैसे हुई कमाई तुम क्या जानोगे ।।
जहाँ रहे तुमने महलो का सुख पाया ।
क्या है घर अंगनाई तुम क्या जानोगे ।।
आज सियासत शहर की उसके ही चलते ।
कितनी है गरमाई तुम क्या जानोगे ।।
जनता मरे भूख से पर अफसर नेता
खाते खूब मलाई तुम क्या जानोगे ।।
कटे रहे माटी से जीवम भर प्यारे ।
खेती और सिंचाई तुम क्या जानोगे ।।
ग़ज़ल क्र 6
समय देखिये और समय की धार देखिये ।
फुटपाथों पर आज दिख रहा प्यार देखिये ।।
राजा चुप है रानी चुप है मंत्री भी चुप ।
सब पर हुक्म चलाता चोकीदार देखिये ।।
प्रायः सच्चाई की कसमें लोग है खाते ।
किंतु झूठ का चलता कारोबार देखिये ।।
कुछ कहने सुनने की छूट नही आई ।
बुद्धजीवियों का गूंगा दरबार देखिये ।।
हुआ हादसा पिछले बरस मरे अनगिनत ।
फिर भी जाते लोग वहाँ हट बार देखिये ।।
हत्या लूट फिरौती चोरी बलात्कार की ।
खबरों से है भरा हुआ अख़बार देखिये ।।
अपराधी मानव है कदम उठा सुरक्षित रखो ।
राजनीति वालो के शुभ उद्द्गर देखिये ।।
घर के लोगों की अंदेखो के चलते ।
देश हुआ शैलेः बहुत बीमार देखिये ।।
ग़ज़ल क्र 7
तुमसे जो कुछ मिला बहुत है ।
बना रहे सिलसिला बहुत है ।।
अपनी करनी नही देखते ।
उनको शिकवा - गिला बहुत है ।।
लम्हेंं नही एहसास मुझे है ।
घाव जिगर का छिला बहुत है ।।
जैसे - जैसे जी ही लूंगा ।
यादों का काफिला बहुत है ।।
कत्ल उसी का करना चाहो ।
जो तुमसे ही हिला बहुत है ।।
ढह जाएगा निश्चित इक दिन ।
यदपि ऊँचा किला बहुत है ।।
अब तो कर शैलेष पर रहम ।
दिया इसे तू सजा बहुत है ।।
ग़ज़ल क्र 8
अधरों से छू दिया आपने लम्हा-लम्हा ग़ज़ल हो गया ।
राह भटकते पगने पाई, यत्र सार्थक पहल हो गया ।।
काव्य कीर्ति का आँचल फहरा इंद्रधनुष अम्बर में लहरा ।
संदया डूबी मधुर मिठास से रूप समय का नवल हो गया ।।
माटी की सेवा में आपने जो भी शास्वत क्षड है गुजरे ।
आप नाम चाहे जो दे दे अपना जीवन सफल हो गया।
तन से ऊपर, धन से ऊपर मन से जो भी किया आपने ।
पन्ने पर युग के आरेखित स्वदे खांस अटल हो गया ।।
अट्टालिका न माने रखती सप्तरंग भी होते ढूंढ़ले ।
जर्जर इस छाया के आगे झूठा ऊंचा महल हो गया ।।
आघातों को सहते सहते टूट गया शैलेश चदुर्दिक ।
थोड़ा सम्बल मिला आपका यह निर्बल भो सबल हो गया ।।
डॉ0 ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी 'शैलेश'
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