ग़ज़ल 1
आदमी तो दुखी ही रहा ।
दर्द से होंठ है सी रहा ।।
ऐ चमन के पुजारी बता ।
देवता बन कही भी रहा ।।
अपने मक्कारियों मे पँगा ।
चाल चलता फितरती रहा ।।
हर तरफ तिशनगी है जगी ।
एक दूजे का खू पी रहा ।।
बीज नफरत की बोता फिरे ।
मीत बन कर फरेबी रहा ।।
चाँद - मंगल तलक जो गया ।
खौफ के साये में जी रहा ।।
आईने दिल को बेपर्द कर ।
'बावरा' पर्दा क्यों सी रहा ।।
© राजेन्द्र कुमार गुप्त 'बावरा'
ग़ज़ल 2
कहते हो लापता है, जाहिर पता हमारा ।
दुश्वारियों ने ठोकर, दे दे हमे दुलारा ।।
जो धूल में मिले है, थे फूल वो चमन के ।
किसने इन्हें है मसला, क्या दोष है निहारा ।।
हँसना अगर बुरा है, रोने पर क्यो है बंदिश ।
रहता हूं हाशिये में, ले भाग्य का पिटारा ।।
नफरत की आग बोकर पाओगे क्या बता दो ।
मिल्लत की ये वशियत, सारे जहा से न्यारा ।।
कहते हो शूल बन कर पावो में चुभ रहे है ।
कैमूरी 'बावरा' हु छीनो न हक हमारा ।।
ग़ज़ल 3
212 212 212
फूलोंं को तोड लाना कैसा ।
कांटो से खुद बचाना कैसा ।।
अर्श पे छाने वाले बोलो ।
फर्श पे तेरा आना कैसा ।।
खोद दी गहरी खाई तो फिर ।
डरना क्या और डरना कैसा ।।
भूख की खलती जब आग हो ।
घड़ियाली ऑंसू बहना कैसा ।।
भ्रम की जो सुई से सिला ।
जख़्म का मिट ही पाना कैसा ।।
बावरा उन्मादी आक़ा पर ।
ये ख़ंजर चल ही जाना कैसा ।।
ग़ज़ल 4
जिन्दगी गणित जैसा दर्द बड़ा गहरा है।
आस्तिनी सापों का लगा हुआ पहरा है ।।
कौन जाने द्रोपदी की चींख कोई सुन पाए ।
रेत जैसा प्रीत लिए कृष्ण हुआ भरा है ।।
शोर बड़ा गलियों में चौराहे अंंजान ।
मरघटी सन्नाटे को चीर रहा लहरा है ।।
बुझ रहे आशा के दीप हर दरवाजे ।
गूँज रहा घर घर जयचन्द का ककहरा है ।।
कैसे यहाँ भाव करें भावना के खंडहर में ।
छीनता उजाला को अमावस बेबहरा है ।।
बावरा अशोक वाटिका में बैठी जानकी ।
काल जयी रावण का खोफ खाता खतरा है ।।
ग़ज़ल 5
पर्वत की चोटी से पूछो सागर की गहराई से ।
रेतीली ममता से पूछो डीआरएस भरी तन्हाई से।।
कट कट गिरते लोग जल रहे बारूदी अंगारो से ।
विधवा की माँँगों से पूछो उजड़े कोख जम्हाई से।।
नफरत की दीवार उठाते जहाँ जेहादी गारो से ।
ऐसे में अनुराग से पूछो राग द्वेष की खाई से ।।
कंकालों से पति मेधना उजड़ गई लंका कैसे ।
लंका पति रावण से पूछो या इस तानाशाही से ।।
चोर की दाढ़ी में तिनके से पूछो शहंशाहों से ।
बावरा रहते शीशमहल में सदा बहार बहाई से ।।
ग़ज़ल 6
दरियों में नही हलचल,सुना है किनारा ।
क्या बात हुई तुरबत ने, पाँव पसारा ।।
दहशत में समाया है, रौनुमा सवेरा ।
सजदा करु कहाँ मैं, ऊँचा चढ़ा है पारा ।।
पत्थर से नशब करते हैं खून के छीटेंं ।
अमन औ चमन लौटे कैसे , चैन दुवारा ।।
मतलब-परस्त लोगो कुछ तो विचार करलो ।
है जादुई करिश्मा, या जादुई नज़ारा ।।
महफूज गुलिश्ता है काँटों की बंदिशे है ।
गर 'बावरा' बनोगे उजड़ेगा घर तुम्हारा ।।
ग़ज़ल 7
कोई शिकवा नही बहारोंं से ।
कोई रुसवाई नही खारोंं से ।।
फानी दरिया से उठती लहरें है ।
मिट न जाये कही किनारोंं से ।।
मै हूं तेरी वफ़ा का शैदाई ।
फिर भी हरजाई कहते तारों से।।
तेरी रहमत बरसती है हर शै पर ।
जीना मरना इन्ही इशारोंं से ।।
दर्द दिल ने पिया दवा समझ ।
'बावरा' मिलता दुआ प्यारोंं से ।।
ग़ज़ल 8
शाकी ! यह मैखाना कैसा ।
अपना और बेगाना कैसा ।।
भीड़ तंत्र के इन हाथो में ।
बजता बिगुल तराना कैसा ।।
कूक कोकिला तोड़ रही दम ।
आखिर यह याराना कैसा ।।
पवन कह रहा बुझे हुए मन ।
तिनकों का उड़ जाना कैसा ।।
बिकते जिस्म से तो पूछो ।
उनका ठौर ठीकाना कैसा ।।
फैला है उन्माद धरा पर ।
फिर आंसू धरकाना कैसा ।।
'बावरा'बिधवा सी देहरी पर ।
सागर का लहराना कैसा ।।
राजेन्द्र कुमार गुप्त 'बावरा'
आदमी तो दुखी ही रहा ।
दर्द से होंठ है सी रहा ।।
ऐ चमन के पुजारी बता ।
देवता बन कही भी रहा ।।
अपने मक्कारियों मे पँगा ।
चाल चलता फितरती रहा ।।
हर तरफ तिशनगी है जगी ।
एक दूजे का खू पी रहा ।।
बीज नफरत की बोता फिरे ।
मीत बन कर फरेबी रहा ।।
चाँद - मंगल तलक जो गया ।
खौफ के साये में जी रहा ।।
आईने दिल को बेपर्द कर ।
'बावरा' पर्दा क्यों सी रहा ।।
© राजेन्द्र कुमार गुप्त 'बावरा'
ग़ज़ल 2
कहते हो लापता है, जाहिर पता हमारा ।
दुश्वारियों ने ठोकर, दे दे हमे दुलारा ।।
जो धूल में मिले है, थे फूल वो चमन के ।
किसने इन्हें है मसला, क्या दोष है निहारा ।।
हँसना अगर बुरा है, रोने पर क्यो है बंदिश ।
रहता हूं हाशिये में, ले भाग्य का पिटारा ।।
नफरत की आग बोकर पाओगे क्या बता दो ।
मिल्लत की ये वशियत, सारे जहा से न्यारा ।।
कहते हो शूल बन कर पावो में चुभ रहे है ।
कैमूरी 'बावरा' हु छीनो न हक हमारा ।।
ग़ज़ल 3
212 212 212
फूलोंं को तोड लाना कैसा ।
कांटो से खुद बचाना कैसा ।।
अर्श पे छाने वाले बोलो ।
फर्श पे तेरा आना कैसा ।।
खोद दी गहरी खाई तो फिर ।
डरना क्या और डरना कैसा ।।
भूख की खलती जब आग हो ।
घड़ियाली ऑंसू बहना कैसा ।।
भ्रम की जो सुई से सिला ।
जख़्म का मिट ही पाना कैसा ।।
बावरा उन्मादी आक़ा पर ।
ये ख़ंजर चल ही जाना कैसा ।।
ग़ज़ल 4
जिन्दगी गणित जैसा दर्द बड़ा गहरा है।
आस्तिनी सापों का लगा हुआ पहरा है ।।
कौन जाने द्रोपदी की चींख कोई सुन पाए ।
रेत जैसा प्रीत लिए कृष्ण हुआ भरा है ।।
शोर बड़ा गलियों में चौराहे अंंजान ।
मरघटी सन्नाटे को चीर रहा लहरा है ।।
बुझ रहे आशा के दीप हर दरवाजे ।
गूँज रहा घर घर जयचन्द का ककहरा है ।।
कैसे यहाँ भाव करें भावना के खंडहर में ।
छीनता उजाला को अमावस बेबहरा है ।।
बावरा अशोक वाटिका में बैठी जानकी ।
काल जयी रावण का खोफ खाता खतरा है ।।
ग़ज़ल 5
पर्वत की चोटी से पूछो सागर की गहराई से ।
रेतीली ममता से पूछो डीआरएस भरी तन्हाई से।।
कट कट गिरते लोग जल रहे बारूदी अंगारो से ।
विधवा की माँँगों से पूछो उजड़े कोख जम्हाई से।।
नफरत की दीवार उठाते जहाँ जेहादी गारो से ।
ऐसे में अनुराग से पूछो राग द्वेष की खाई से ।।
कंकालों से पति मेधना उजड़ गई लंका कैसे ।
लंका पति रावण से पूछो या इस तानाशाही से ।।
चोर की दाढ़ी में तिनके से पूछो शहंशाहों से ।
बावरा रहते शीशमहल में सदा बहार बहाई से ।।
ग़ज़ल 6
दरियों में नही हलचल,सुना है किनारा ।
क्या बात हुई तुरबत ने, पाँव पसारा ।।
दहशत में समाया है, रौनुमा सवेरा ।
सजदा करु कहाँ मैं, ऊँचा चढ़ा है पारा ।।
पत्थर से नशब करते हैं खून के छीटेंं ।
अमन औ चमन लौटे कैसे , चैन दुवारा ।।
मतलब-परस्त लोगो कुछ तो विचार करलो ।
है जादुई करिश्मा, या जादुई नज़ारा ।।
महफूज गुलिश्ता है काँटों की बंदिशे है ।
गर 'बावरा' बनोगे उजड़ेगा घर तुम्हारा ।।
ग़ज़ल 7
कोई शिकवा नही बहारोंं से ।
कोई रुसवाई नही खारोंं से ।।
फानी दरिया से उठती लहरें है ।
मिट न जाये कही किनारोंं से ।।
मै हूं तेरी वफ़ा का शैदाई ।
फिर भी हरजाई कहते तारों से।।
तेरी रहमत बरसती है हर शै पर ।
जीना मरना इन्ही इशारोंं से ।।
दर्द दिल ने पिया दवा समझ ।
'बावरा' मिलता दुआ प्यारोंं से ।।
ग़ज़ल 8
शाकी ! यह मैखाना कैसा ।
अपना और बेगाना कैसा ।।
भीड़ तंत्र के इन हाथो में ।
बजता बिगुल तराना कैसा ।।
कूक कोकिला तोड़ रही दम ।
आखिर यह याराना कैसा ।।
पवन कह रहा बुझे हुए मन ।
तिनकों का उड़ जाना कैसा ।।
बिकते जिस्म से तो पूछो ।
उनका ठौर ठीकाना कैसा ।।
फैला है उन्माद धरा पर ।
फिर आंसू धरकाना कैसा ।।
'बावरा'बिधवा सी देहरी पर ।
सागर का लहराना कैसा ।।
राजेन्द्र कुमार गुप्त 'बावरा'
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