1) गज़ल
बह्र - 2122 1212 22
काफ़िया - आ स्वर
रदीफ़ - देना
हो सके तो मुझे भुला देना ।
तुम भले नाम बेवफा देना ।।
ज़िक्र मेरा कहीं अगर हो तो ।
बात बातों में ही उड़ा देना ।।
पहले सुनना तू ग़ौर से मुझको ।
सुन के थोड़ा सा मुस्कुरा देना ।।
प्यार सच्चा कहाँ पे मिलता है ।
गर पता हो तो तुम पता देना ।।
दोस्तों पे हम न बार करते पर ।
है अगर दुश्मनी बता देना ।।
सब यहां मेहमां, तुम्हारे दर ।
जिंदगी चार दिन बिता देना ।।
क्या पता दीप्त' देर हो जाये ।
प्यार मुझसे जो हो जता देना ।।
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
(2) ग़ज़ल
बह्र - 1222 1222 122
काफ़िया - अत
रदीफ़ - हो गयी है
जवां दिल से शरारत हो गयी है ।
हमे तुम से मुहब्बत हो गयी है ।।
बयां कैसे करूँ मैं उनकी उल्फ़त ।
मेरे दिल पे इनायत हो गयी है ।।
संवर कर आ गए हैं बज़्म में वो ।
सरे महफ़िल क़यामत हो गयी है ।।
सभी की उँगली जब उठ रही है ।
कसम से आज नफ़रत हो गयी है ।।
ख़ुशी भी दीप्त से रूठी हुई है ।
न जाने क्यों अदावत हो गयी है ।।
सुदिप्ता बेहरा "दीप्त"
(3) ग़ज़ल
बह्र - 1212 1122 1212 22
काफ़िया - आने
रदीफ़ - को
दिखा दिया जब से रंग तू जमाने को ।
लगे वही तब से सब तुझे सताने को ।।
धुआँ उठा न जरा सा लगी न आग कहीं ।
चली हवा सब का आशियां जलाने को ।।
न फूल ये खिलते बाग में महक आती ।
उजाड़ के गुलशन सब लगे चुराने को ।।
तबाह देख, बहत खुश मतलबी दुनिया ।
न छोड़ते सब कोई कसर रुलाने को ।।
यहाँ न दुश्मन था "दीप्त" का कभी कोई ।
न दोस्त है अब कोई उसे हसाने को ।।
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
(4) ग़ज़ल
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आ स्वर
रदीफ़ - चाहती हूँ
भरे जख्म ऐसी दवा चाहती हूँ ।
जरा दोस्तोँ सेदुआ चाहती हूँ ।।
कमी जाम में है न अब होश खोया ।
पिलाओ नज़र का नशा चाहती हूँ ।।
किया इश्क इज़हार दिल आप ही से ।
कहो आप का फैसला चाहती हूँ ।।
सरे आम रुसवा न हो मेरी खातिर ।
तड़प हो भले फासला चाहती हूँ ।।
कदर दीप्त तेरी न समझे जमाना ।
चलो बेखुदी की सजा चाहती हूँ ।।
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
(5) ग़ज़ल
बह्र - 2122 2122 2122 212
काफ़िया - अर्ज
रदीफ़ - है
आप हम को भूल भी जाओ न कोई हर्ज है ।
आप को दिल मे रखेंगे ये हमारा फर्ज है ।।
फाड़ दे बेशक सभी पन्ने मुहब्बत के मगर ।
आज भी गुस्ताख़ दिल पर नाम तेरा दर्ज है ।।
लाख चाहे तुम छिपा लो जिंदगी का राज सब ।
कर रही आँखे बयां ये इश्क का ही मर्ज है ।।
लूट के दिल तब खज़ाना दे गये थे प्यार का ।
साथ छूटा आज, हम पर रह गया कुछ कर्ज है ।।
इश्क ने हम को सिखाया गुनगुनाना दर्द में ।
गा रही है दीप्त जो वो आपकी दी तर्ज है ।।
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
(6) गज़ल
बह्र - 2122 1212 22
काफ़िया - अर
रदीफ़ - जाएँ
काश लम्हे वहीं ठहर जाएँ ।
सामने आप जब गुजर जाएँ ।।
मुद्दतों से दबे हुये अरमाँ ।
बे धड़क आप पे बिखर जाएँ ।।
मोड़ दे रुख़ तभी हवाओँ का ।
वो परेशां हमे न कर जाएँ ।।
आप के साथ सांस चलती है ।
गर खफ़ा आप हो किधर जाएँ ।।
हर शज़र " दीप्त" की यही चाहत ।
हम खुशी से कहीँ न मर जाएँ ।।
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
(7) ग़ज़ल
बह्र- 122 122 122
काफ़िया - आना
मुहब्बत का है ये फसाना ।
जिसे जानता है जमाना ।।
कोई मिल गयी जब दिवानी ।
बना हर कोई है दिवाना ।।
हैं आँखों में सपने हमारे ।
मुहब्बत का इक घर बसाना ।।
हसीं है अगर रूठ जाये ।
मुहब्बत से उसको मनाना ।।
मुहब्बत का मौका यही है ।
इसे तुम न हरगिज़ गवाना ।।
जफ़ा गर है दिल में तुम्हारे ।
अगर हो सके भूल जाना ।।
मुहब्बत का रिश्ता है माज़ी ।
इसे जान देकर निभाना ।।
*माजी - अतीत
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
( 8) ग़ज़ल
बह्र - 2122 2122 2122 212
काफ़िया - आनी
रदीफ़ - दे गया
प्यार वो हम से जता के जिंदगानी दे गया ।
वो रुलाकर के हमे गम की निशानी दे गया ।।
छोड़कर तन्हा सफर में चल दिया मुंह मोड़कर ।
जाते जाते घाव मुझको वो रूहानी दे गया ।।
काश वो पल आज फिर से लौट के आये यहाँ ।
जो जमाने को कभी ऐसी कहानी दे गया ।।
आज रुसवा हो गयी मैं इश्क के जो नाम पे ।
जिंदगी को वो हयाते जावेदानी दे गया ।।
चाह कर भी कर न पाये हम इबादत इश्क की ।
ये दीप्त को कहीं यादेँ पुरानी दे गया ।।
सुदिप्ता बेहरा "दीप्त"
बह्र - 2122 1212 22
काफ़िया - आ स्वर
रदीफ़ - देना
हो सके तो मुझे भुला देना ।
तुम भले नाम बेवफा देना ।।
ज़िक्र मेरा कहीं अगर हो तो ।
बात बातों में ही उड़ा देना ।।
पहले सुनना तू ग़ौर से मुझको ।
सुन के थोड़ा सा मुस्कुरा देना ।।
प्यार सच्चा कहाँ पे मिलता है ।
गर पता हो तो तुम पता देना ।।
दोस्तों पे हम न बार करते पर ।
है अगर दुश्मनी बता देना ।।
सब यहां मेहमां, तुम्हारे दर ।
जिंदगी चार दिन बिता देना ।।
क्या पता दीप्त' देर हो जाये ।
प्यार मुझसे जो हो जता देना ।।
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
(2) ग़ज़ल
बह्र - 1222 1222 122
काफ़िया - अत
रदीफ़ - हो गयी है
जवां दिल से शरारत हो गयी है ।
हमे तुम से मुहब्बत हो गयी है ।।
बयां कैसे करूँ मैं उनकी उल्फ़त ।
मेरे दिल पे इनायत हो गयी है ।।
संवर कर आ गए हैं बज़्म में वो ।
सरे महफ़िल क़यामत हो गयी है ।।
सभी की उँगली जब उठ रही है ।
कसम से आज नफ़रत हो गयी है ।।
ख़ुशी भी दीप्त से रूठी हुई है ।
न जाने क्यों अदावत हो गयी है ।।
सुदिप्ता बेहरा "दीप्त"
(3) ग़ज़ल
बह्र - 1212 1122 1212 22
काफ़िया - आने
रदीफ़ - को
दिखा दिया जब से रंग तू जमाने को ।
लगे वही तब से सब तुझे सताने को ।।
धुआँ उठा न जरा सा लगी न आग कहीं ।
चली हवा सब का आशियां जलाने को ।।
न फूल ये खिलते बाग में महक आती ।
उजाड़ के गुलशन सब लगे चुराने को ।।
तबाह देख, बहत खुश मतलबी दुनिया ।
न छोड़ते सब कोई कसर रुलाने को ।।
यहाँ न दुश्मन था "दीप्त" का कभी कोई ।
न दोस्त है अब कोई उसे हसाने को ।।
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
(4) ग़ज़ल
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आ स्वर
रदीफ़ - चाहती हूँ
भरे जख्म ऐसी दवा चाहती हूँ ।
जरा दोस्तोँ सेदुआ चाहती हूँ ।।
कमी जाम में है न अब होश खोया ।
पिलाओ नज़र का नशा चाहती हूँ ।।
किया इश्क इज़हार दिल आप ही से ।
कहो आप का फैसला चाहती हूँ ।।
सरे आम रुसवा न हो मेरी खातिर ।
तड़प हो भले फासला चाहती हूँ ।।
कदर दीप्त तेरी न समझे जमाना ।
चलो बेखुदी की सजा चाहती हूँ ।।
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
(5) ग़ज़ल
बह्र - 2122 2122 2122 212
काफ़िया - अर्ज
रदीफ़ - है
आप हम को भूल भी जाओ न कोई हर्ज है ।
आप को दिल मे रखेंगे ये हमारा फर्ज है ।।
फाड़ दे बेशक सभी पन्ने मुहब्बत के मगर ।
आज भी गुस्ताख़ दिल पर नाम तेरा दर्ज है ।।
लाख चाहे तुम छिपा लो जिंदगी का राज सब ।
कर रही आँखे बयां ये इश्क का ही मर्ज है ।।
लूट के दिल तब खज़ाना दे गये थे प्यार का ।
साथ छूटा आज, हम पर रह गया कुछ कर्ज है ।।
इश्क ने हम को सिखाया गुनगुनाना दर्द में ।
गा रही है दीप्त जो वो आपकी दी तर्ज है ।।
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
(6) गज़ल
बह्र - 2122 1212 22
काफ़िया - अर
रदीफ़ - जाएँ
काश लम्हे वहीं ठहर जाएँ ।
सामने आप जब गुजर जाएँ ।।
मुद्दतों से दबे हुये अरमाँ ।
बे धड़क आप पे बिखर जाएँ ।।
मोड़ दे रुख़ तभी हवाओँ का ।
वो परेशां हमे न कर जाएँ ।।
आप के साथ सांस चलती है ।
गर खफ़ा आप हो किधर जाएँ ।।
हर शज़र " दीप्त" की यही चाहत ।
हम खुशी से कहीँ न मर जाएँ ।।
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
(7) ग़ज़ल
बह्र- 122 122 122
काफ़िया - आना
मुहब्बत का है ये फसाना ।
जिसे जानता है जमाना ।।
कोई मिल गयी जब दिवानी ।
बना हर कोई है दिवाना ।।
हैं आँखों में सपने हमारे ।
मुहब्बत का इक घर बसाना ।।
हसीं है अगर रूठ जाये ।
मुहब्बत से उसको मनाना ।।
मुहब्बत का मौका यही है ।
इसे तुम न हरगिज़ गवाना ।।
जफ़ा गर है दिल में तुम्हारे ।
अगर हो सके भूल जाना ।।
मुहब्बत का रिश्ता है माज़ी ।
इसे जान देकर निभाना ।।
*माजी - अतीत
सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
( 8) ग़ज़ल
बह्र - 2122 2122 2122 212
काफ़िया - आनी
रदीफ़ - दे गया
प्यार वो हम से जता के जिंदगानी दे गया ।
वो रुलाकर के हमे गम की निशानी दे गया ।।
छोड़कर तन्हा सफर में चल दिया मुंह मोड़कर ।
जाते जाते घाव मुझको वो रूहानी दे गया ।।
काश वो पल आज फिर से लौट के आये यहाँ ।
जो जमाने को कभी ऐसी कहानी दे गया ।।
आज रुसवा हो गयी मैं इश्क के जो नाम पे ।
जिंदगी को वो हयाते जावेदानी दे गया ।।
चाह कर भी कर न पाये हम इबादत इश्क की ।
ये दीप्त को कहीं यादेँ पुरानी दे गया ।।
सुदिप्ता बेहरा "दीप्त"
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