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मंगलवार, 5 जून 2018

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में सुदिप्ता बेहरा 'दीप्त' की कुछ ग़ज़लें

1) गज़ल
बह्र - 2122 1212 22
काफ़िया - आ स्वर
रदीफ़ - देना

हो सके तो मुझे भुला देना ।
तुम भले नाम बेवफा देना ।।

ज़िक्र मेरा कहीं अगर हो तो ।
बात  बातों  में  ही उड़ा देना ।।

पहले सुनना तू ग़ौर से मुझको ।
सुन के थोड़ा सा मुस्कुरा देना ।।

प्यार सच्चा कहाँ पे मिलता है ।
गर पता हो तो तुम पता  देना ।।

दोस्तों पे हम न बार करते पर ।
है  अगर  दुश्मनी  बता  देना ।।

सब यहां मेहमां, तुम्हारे  दर ।
जिंदगी  चार दिन बिता देना ।।

क्या  पता  दीप्त' देर हो जाये ।
प्यार मुझसे जो हो जता देना ।।

सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"

(2) ग़ज़ल
बह्र - 1222 1222 122
काफ़िया - अत
रदीफ़ - हो गयी है

जवां  दिल से शरारत हो गयी है ।
हमे  तुम  से मुहब्बत हो गयी है ।।

बयां कैसे करूँ मैं उनकी उल्फ़त ।
मेरे  दिल पे   इनायत  हो गयी है ।।

संवर कर आ गए हैं बज़्म में वो ।
सरे महफ़िल क़यामत हो गयी है ।।

सभी  की  उँगली जब उठ रही है ।
कसम से आज नफ़रत हो गयी है ।।

ख़ुशी  भी  दीप्त  से रूठी हुई है ।
न जाने क्यों अदावत हो गयी है ।।

सुदिप्ता बेहरा "दीप्त"

(3) ग़ज़ल
बह्र - 1212 1122 1212 22
काफ़िया - आने
रदीफ़  -  को

दिखा दिया जब से रंग तू जमाने को ।
लगे वही तब से सब तुझे सताने को ।।

धुआँ उठा न जरा सा लगी न आग कहीं ।
चली  हवा सब का आशियां जलाने को ।।


न फूल ये खिलते बाग में महक आती ।
उजाड़ के गुलशन सब लगे चुराने को ।।

तबाह देख, बहत खुश मतलबी दुनिया ।
न  छोड़ते  सब  कोई कसर रुलाने को ।।

यहाँ न दुश्मन था "दीप्त" का कभी कोई ।
न  दोस्त  है  अब  कोई  उसे  हसाने को ।।

 सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"



(4) ग़ज़ल
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आ स्वर
रदीफ़  - चाहती  हूँ


भरे  जख्म  ऐसी  दवा चाहती हूँ ।
जरा दोस्तोँ सेदुआ चाहती हूँ ।।

कमी जाम में है न अब होश खोया ।
पिलाओ नज़र का नशा चाहती हूँ ।।

किया इश्क इज़हार दिल आप ही से ।
कहो   आप  का  फैसला  चाहती हूँ ।।

सरे आम रुसवा न हो मेरी खातिर ।
तड़प हो भले फासला चाहती हूँ ।।

कदर दीप्त तेरी न समझे जमाना ।
चलो बेखुदी की सजा चाहती हूँ ।।


सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"



(5) ग़ज़ल
बह्र - 2122 2122 2122 212
काफ़िया - अर्ज
रदीफ़    -  है

आप हम को भूल भी जाओ न कोई हर्ज है ।
आप  को  दिल  मे  रखेंगे ये हमारा फर्ज है ।।

फाड़  दे  बेशक  सभी पन्ने मुहब्बत के मगर ।
आज भी गुस्ताख़ दिल पर नाम तेरा दर्ज है ।।

लाख चाहे तुम छिपा लो जिंदगी का राज सब ।
कर रही  आँखे  बयां ये इश्क  का ही   मर्ज है ।।

लूट के  दिल  तब खज़ाना  दे गये थे प्यार का ।
साथ छूटा आज, हम पर रह गया कुछ कर्ज है ।।


इश्क ने  हम  को सिखाया   गुनगुनाना दर्द में ।
गा  रही  है  दीप्त  जो  वो आपकी  दी तर्ज है ।।

 सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"


(6) गज़ल
 बह्र - 2122 1212 22
 काफ़िया - अर
 रदीफ़ - जाएँ

काश लम्हे  वहीं  ठहर  जाएँ ।
सामने आप जब गुजर जाएँ ।।

मुद्दतों   से   दबे   हुये  अरमाँ ।
बे धड़क आप पे बिखर जाएँ ।।

मोड़ दे रुख़ तभी हवाओँ का ।
वो  परेशां  हमे  न  कर जाएँ ।।

आप  के  साथ  सांस चलती है ।
गर खफ़ा आप हो किधर जाएँ ।।

हर शज़र " दीप्त" की यही चाहत ।
हम  खुशी  से  कहीँ  न  मर जाएँ ।।

सुदिप्ता बेहेरा  "दीप्त"

(7) ग़ज़ल
बह्र-  122   122   122
काफ़िया - आना

मुहब्बत का  है ये फसाना ।
जिसे  जानता  है  जमाना ।।

कोई मिल गयी जब दिवानी ।
 बना  हर  कोई  है  दिवाना ।।

हैं  आँखों   में  सपने  हमारे ।
मुहब्बत का इक घर बसाना ।।

 हसीं   है  अगर  रूठ  जाये ।
 मुहब्बत  से उसको  मनाना ।।

मुहब्बत का  मौका यही है ।
इसे तुम न हरगिज़  गवाना ।।

जफ़ा गर है दिल में तुम्हारे ।
अगर  हो  सके  भूल जाना ।।

मुहब्बत का रिश्ता है   माज़ी ।
इसे  जान    देकर    निभाना ।।

*माजी - अतीत

सुदिप्ता बेहेरा   "दीप्त"



( 8) ग़ज़ल
बह्र - 2122   2122   2122  212
काफ़िया - आनी
रदीफ़  - दे गया

प्यार  वो  हम  से जता के जिंदगानी दे गया ।
वो  रुलाकर के हमे गम की निशानी दे गया ।।

छोड़कर तन्हा सफर में चल दिया मुंह मोड़कर ।
जाते  जाते  घाव  मुझको  वो  रूहानी  दे गया ।।

काश वो पल आज फिर से लौट के आये यहाँ ।
जो  जमाने  को  कभी  ऐसी  कहानी  दे गया ।।

आज रुसवा हो गयी मैं इश्क के जो नाम पे ।
जिंदगी   को   वो हयाते  जावेदानी  दे गया ।।

चाह कर भी कर न पाये हम इबादत इश्क की ।
ये   दीप्त   को   कहीं   यादेँ   पुरानी  दे  गया ।।

सुदिप्ता बेहरा "दीप्त"

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