ग़ज़ल 1
वज्न - 212 22 212 22
काफ़िया - आम
रदीफ़ - हो जाए
ऐ खुदा ऐसा काम हो जाए ।
हर खुशी तेरे नाम हो जाए ।।
जो भूखे ही शामों - सहर फिरते ।
उनके दुख का अब नाश हो जाए।
तूफां बारिश में हो गये बेघर ।
उनके एक ही घर नाम हो जाए।।
जो सताते हैं दूसरों को जो अब ।
उनका भी कुछ इन्तजा़म हो जाए ।।
शेर की खाल में जो भेड़िये हैं ।
चर्चा उनकी भी आम हो जाए ।।
मांगती हूं ईश्वर से मैं अब तो ।
बच्चा बच्चा श्री राम हो जाए ।।
दिन भरे हों खुशियों से 'मुस्कान' ।
आज महफिल में शाम हो जाए ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 2
वज्न - 2122 2122 22
काफ़िया - आ
रदीफ़ - पाओगे
अपनी करनी का सिला पाओगे ।
एक समय तुम भी सजा पाओगे ।।
पेड़ों पर कुछ तो रहम कर लेता ।
साफ़ वायु फिर दिला पाओगे ।।
जो उजाड़े हो बहारों को तुम ।
कैसे फूलों को खिला पाओगे ।।
जो सभी जीवों का चैन छीने ।
चैन खुद को न दिला पाओगे ।।
धरती रोती आसमां रोता हैं ।
धीर कैसे तुम दिला पाओगे ।।
हर तरफ़ 'मुस्कान' हरियाली हो ।
तब खुशी सबको दिला पाओगे ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 3
बह्र - २२ २२ २२ २२ २
काफ़िया - आर
रदीफ - करते हैं
हम तो बस तुमसे प्यार करते हैं ।
तुम पर ही जां निसार करते हैं ।।
आपने छोड़ा है जो हमको तो ।
बातें क्यूँ यूं हज़ार करते हैं ।।
रास्ते जैसे होंगे कट जाएं ।
जब तुम्हारा दीदार करते हैं ।।
इम्तिहां जितना वफा का लोगे ।
प्यार का फिर निखार करते हैं ।।
जिन्दगी रूठ भी जाए क्या है ।
उसका ग़म यूं फरार करते हैं ।।
लब पे तेरे आएगी कब 'मुस्कान' ।
हम तो बस इंतज़ार करते हैं ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 4
बह्र - 2×10
काफ़िया - आ
रदीफ़ - देखा है
ग़ैरों को अपना बनता देखा है।
अपनों को दूर जाता देखा है।।
मतलब पड़ने पे खून का रिश्ता ।
खून का प्यासा होता देखा है ।।
रात में नींद कैसे आएगी ।
उल्फते जाम पीता देखा है ।।
लगाया दिल से बेवफाओं को ।
छिपे खंजर को आता देखा है ।।
प्यार चुंबक के जैसे होता है ।
प्यार से खिंचता सबको देखा है ।।
बात तुम चाहते तो रोक लेते ।
रार को ऐसे बढ़ता देखा है ।।
हो गयी 'गर ख़ता तुमसे' मुस्कान ।
अपनों को माफ़ करता देखा है ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 5
वज्न - 1222 1222 22
काफ़िया - ई
रदीफ़ - है
कैसी ये आस मन में आयी है ।
खुशी नस नस में मेरे छायी है ।।
मिला जो ख़त तो उसको पढ़ते ही ।
मुस्कराहट सी लब पे छायी है ।।
हमको वीरानियां पसंद थी तब तो ।
अब तो रौनक ही मन को भायी है ।।
मिलेंगे फिर ये बिछड़ना कैसा ।
चन्द लम्हों की ये जुदाई है ।।
दिल हुआ कैद उनकी चाहत में ।
चाहता अब नहीं रिहाई है ।।
बहारें मौज ले रही मन में ।
ग़मों को दे चुके विदाई है ।।
अब तो हर रोज़ लब पे है 'मुस्कान' ।
मन में छवि तेरी जो बसाई है ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 6
बह्र - 122 1222 1222
काफ़िया - ते है
दिलों के तार कुछ तो अब कहते हैं ।
शायद अब याद वो हमको करते हैं ।।
हमीं को समझा के चलो किसी काबिल ।
शुक्रिया तेरा अब हम तो चलते हैं ।।
बेशुमार हमने की मुहब्बत सो ।
जिगर का दर्द अब हम सहते हैं ।।
बेवफाई तो उस ने की थी ।
के अब जख्म दिल पे मिलते हैं ।।
एक वो हैं कि ग़म में डूबे हैं ।
ग़म के बदले हम 'मुस्कान' देते हैं ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 7
वज्न - 212 212 212 212 22
काफ़िया - अर स्वर
रदीफ - नहीं देखा।
आज़ादी के बलिदानों का मंजर नहीं देखा ।
गद्दारों का बढ़ता हुआ खंजर नहीं देखा ।।
सांस ले रहे हो इस आज़ादी में तुम तो ।
परतन्त्रता के कष्टों को छूकर नहीं देखा ।।
अंदाजा क्या लगाए किसी के भी दर्द का ।
आंसुओं से तर तूने बिस्तर नहीं देखा ।।
लूट रहे बैठे - बैठे देश को क्यों तुम ।
दुनिया में कहीं तुम सा सितमंगर नहीं देखा ।।
जिस देश में हो उसको ही बरबाद कर दिया ।
सीने में दिल के बदले ये पत्थर नहीं देखा ।।
जो पालता है बेटी दान देने को 'मुस्कान' ।
उस बाप ने सुकूं इक मंज़र नहीं देखा ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 8
बह्र - 212 212 1222
काफ़िया - आन स्वर
रदीफ़ - हो गये देखो
लोग हैवान हो गये देखो ।
कूचे हैरान हो गये देखो ।।
मस्त कलियों जहां गूंजी हंसी ।
बाग शमशान हो गये देखो ।।
छोटे बच्चों में ईश के दर्शन ।
रूठे भगवान् हो गये देखो ।।
झोपड़ी भी नही थी जिन पर ।
आज धनवान हो गये देखो ।।
आज अहसास मर गया उनका ।
कैसे इंसान हो गये देखो ।।
जिनको आता न जाता कुछ भी था ।
अब वो सुल्तान हो गये देखो ।।
बिकते हैं कैसे आदमी भी अब ।
वो भी सामान हो गये देखो ।।
जिनको कल तक समझ नहीं पाये ।
लब की 'मुस्कान' हो गये देखो ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
वज्न - 212 22 212 22
काफ़िया - आम
रदीफ़ - हो जाए
ऐ खुदा ऐसा काम हो जाए ।
हर खुशी तेरे नाम हो जाए ।।
जो भूखे ही शामों - सहर फिरते ।
उनके दुख का अब नाश हो जाए।
तूफां बारिश में हो गये बेघर ।
उनके एक ही घर नाम हो जाए।।
जो सताते हैं दूसरों को जो अब ।
उनका भी कुछ इन्तजा़म हो जाए ।।
शेर की खाल में जो भेड़िये हैं ।
चर्चा उनकी भी आम हो जाए ।।
मांगती हूं ईश्वर से मैं अब तो ।
बच्चा बच्चा श्री राम हो जाए ।।
दिन भरे हों खुशियों से 'मुस्कान' ।
आज महफिल में शाम हो जाए ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 2
वज्न - 2122 2122 22
काफ़िया - आ
रदीफ़ - पाओगे
अपनी करनी का सिला पाओगे ।
एक समय तुम भी सजा पाओगे ।।
पेड़ों पर कुछ तो रहम कर लेता ।
साफ़ वायु फिर दिला पाओगे ।।
जो उजाड़े हो बहारों को तुम ।
कैसे फूलों को खिला पाओगे ।।
जो सभी जीवों का चैन छीने ।
चैन खुद को न दिला पाओगे ।।
धरती रोती आसमां रोता हैं ।
धीर कैसे तुम दिला पाओगे ।।
हर तरफ़ 'मुस्कान' हरियाली हो ।
तब खुशी सबको दिला पाओगे ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 3
बह्र - २२ २२ २२ २२ २
काफ़िया - आर
रदीफ - करते हैं
हम तो बस तुमसे प्यार करते हैं ।
तुम पर ही जां निसार करते हैं ।।
आपने छोड़ा है जो हमको तो ।
बातें क्यूँ यूं हज़ार करते हैं ।।
रास्ते जैसे होंगे कट जाएं ।
जब तुम्हारा दीदार करते हैं ।।
इम्तिहां जितना वफा का लोगे ।
प्यार का फिर निखार करते हैं ।।
जिन्दगी रूठ भी जाए क्या है ।
उसका ग़म यूं फरार करते हैं ।।
लब पे तेरे आएगी कब 'मुस्कान' ।
हम तो बस इंतज़ार करते हैं ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 4
बह्र - 2×10
काफ़िया - आ
रदीफ़ - देखा है
ग़ैरों को अपना बनता देखा है।
अपनों को दूर जाता देखा है।।
मतलब पड़ने पे खून का रिश्ता ।
खून का प्यासा होता देखा है ।।
रात में नींद कैसे आएगी ।
उल्फते जाम पीता देखा है ।।
लगाया दिल से बेवफाओं को ।
छिपे खंजर को आता देखा है ।।
प्यार चुंबक के जैसे होता है ।
प्यार से खिंचता सबको देखा है ।।
बात तुम चाहते तो रोक लेते ।
रार को ऐसे बढ़ता देखा है ।।
हो गयी 'गर ख़ता तुमसे' मुस्कान ।
अपनों को माफ़ करता देखा है ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 5
वज्न - 1222 1222 22
काफ़िया - ई
रदीफ़ - है
कैसी ये आस मन में आयी है ।
खुशी नस नस में मेरे छायी है ।।
मिला जो ख़त तो उसको पढ़ते ही ।
मुस्कराहट सी लब पे छायी है ।।
हमको वीरानियां पसंद थी तब तो ।
अब तो रौनक ही मन को भायी है ।।
मिलेंगे फिर ये बिछड़ना कैसा ।
चन्द लम्हों की ये जुदाई है ।।
दिल हुआ कैद उनकी चाहत में ।
चाहता अब नहीं रिहाई है ।।
बहारें मौज ले रही मन में ।
ग़मों को दे चुके विदाई है ।।
अब तो हर रोज़ लब पे है 'मुस्कान' ।
मन में छवि तेरी जो बसाई है ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 6
बह्र - 122 1222 1222
काफ़िया - ते है
दिलों के तार कुछ तो अब कहते हैं ।
शायद अब याद वो हमको करते हैं ।।
हमीं को समझा के चलो किसी काबिल ।
शुक्रिया तेरा अब हम तो चलते हैं ।।
बेशुमार हमने की मुहब्बत सो ।
जिगर का दर्द अब हम सहते हैं ।।
बेवफाई तो उस ने की थी ।
के अब जख्म दिल पे मिलते हैं ।।
एक वो हैं कि ग़म में डूबे हैं ।
ग़म के बदले हम 'मुस्कान' देते हैं ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 7
वज्न - 212 212 212 212 22
काफ़िया - अर स्वर
रदीफ - नहीं देखा।
आज़ादी के बलिदानों का मंजर नहीं देखा ।
गद्दारों का बढ़ता हुआ खंजर नहीं देखा ।।
सांस ले रहे हो इस आज़ादी में तुम तो ।
परतन्त्रता के कष्टों को छूकर नहीं देखा ।।
अंदाजा क्या लगाए किसी के भी दर्द का ।
आंसुओं से तर तूने बिस्तर नहीं देखा ।।
लूट रहे बैठे - बैठे देश को क्यों तुम ।
दुनिया में कहीं तुम सा सितमंगर नहीं देखा ।।
जिस देश में हो उसको ही बरबाद कर दिया ।
सीने में दिल के बदले ये पत्थर नहीं देखा ।।
जो पालता है बेटी दान देने को 'मुस्कान' ।
उस बाप ने सुकूं इक मंज़र नहीं देखा ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
ग़ज़ल 8
बह्र - 212 212 1222
काफ़िया - आन स्वर
रदीफ़ - हो गये देखो
लोग हैवान हो गये देखो ।
कूचे हैरान हो गये देखो ।।
मस्त कलियों जहां गूंजी हंसी ।
बाग शमशान हो गये देखो ।।
छोटे बच्चों में ईश के दर्शन ।
रूठे भगवान् हो गये देखो ।।
झोपड़ी भी नही थी जिन पर ।
आज धनवान हो गये देखो ।।
आज अहसास मर गया उनका ।
कैसे इंसान हो गये देखो ।।
जिनको आता न जाता कुछ भी था ।
अब वो सुल्तान हो गये देखो ।।
बिकते हैं कैसे आदमी भी अब ।
वो भी सामान हो गये देखो ।।
जिनको कल तक समझ नहीं पाये ।
लब की 'मुस्कान' हो गये देखो ।।
सुशीला धस्माना 'मुस्कान'
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