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शुक्रवार, 29 जून 2018

1:18 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में डॉ. ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी 'शैलेश' की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल क्र० 1
श्याम की मीरा दीवानी हो गयी ।
यह  कहानी तो पुरानी हो गयी ।।

प्यार की सौगात प्यारे छीन ली ।
बोझ  अपनी  जिंदगानी हो गई ।।

देखकर बेटो की अपनी साज़िशे ।
माँ  बेचारी  पानी  पानी  हो  गई ।।

हार  गेंदे  के सुवन  में  शब्द  सुंदर ।
क्या  गज़ब  की मेहरबानी  हो गई ।।

आपने जो बाजी कहाँँ वाजिब कहा ।
मुझसे  ही  कुछ  बदजुबानी  हो गई ।।

सासंद इस शहर का पी एम हुआ ।
अब  बनारस  राजधानी  हो  गई ।।

बात  तो  शैलेस  केवल  बात  थी ।
उसकी भी अब वाणी जानी हो गई ।।

डॉ0 ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी 'शैलेश'

ग़ज़ल क्र 2

थी  मेरी  हसरत  बहुत  ही  छोटी,
गुनाह  मेरा  बहुत  बड़ा  था ।
वजूद मेरा  न  सह  सके  तुम, 
क्या जिद पे पहले कभी अड़ा था ।।

न खोट नियत थी कुछ बजह मेरी,
था खैर मकदम  ऐसा  इरादा ।
बहुत  थे  हमले  को हमपे झपटे
वहाँ  अकेला  ही  मैं  खड़ा  था ।।

थी कैसी कशिश थी कितनी कीमत,
नही  छिपा  था  नजर  से  मेरे ।
उन्हें भी हमने थी बख्सी इज्जत,
क्या उनमे हीरे का कण जड़ा था।।

ये किस रुतबा की जिसने अपने,
गुरुर  को  ही  बड़ा  दिया  हो ।
क्यो बगुल जाते हो उसको जिसने,
तुम्हारे हक में कभी लड़ा था ।।

न  जिस्म  पर  मेरे  चोट  आई,
मगर जिगर तो हुआ ही घायल।
अवाक मैं रह गया था पलभर,
वो  कॉल भी बहुत बड़ा था ।।

बहुत  ही  सुंंदर  था तेरा मुखड़ा,
तो आग बरस ही किसलिए वह ।
खड़ा था  कि  आदमी  वहाँ पर,
नही  मरा  जानवर   सड़ा  था ।।

मुझे  मुहब्बत  ने उसकी बाँधा,
खाजोश बैठा जो उसकी आगे ।
न आता इस डर कहि भी जाता,
शैलेश  सारा  शहर  पड़ा  था ।।


ग़ज़ल क्र 3

किसी से चोट मिलती है, तो कोई प्यार देता है।
भंवर के बीच से नोका, मर्री कर पार देता है ।।

न बदल है न बदलेगा पुरानी सोच का नक्शा,
है पाता जब कभी मौका, छुरी पर धार देता है।

है हस्ता मुस्कराता और चुटकी काट लेता है,
मिला हुँँ जब कभी तोहफा यही हर बसर देता है।

सभलने की नसीहत तो मुझे देता है हर कोई ।
अकेला है  ऐसे जीवन को मेरे रफ्तार देता है ।।

दिखावा तो नही करता, मगर दिलदार है बेहद ।
जिसे   होती   जरूरत   है  उसे  उधार  देता है ।।

मरे  मलोक गजब का फैसला है तू भी दे देता ।
किसी को फूल देता है किसी को कहर देता है ।।

मुरब्बत है न दिल मे न पता है आदमियत क्या ।
भला ऐसे के हांथो में ही क्यों अधिकार देता है ।।

जहाँ भर के लिए दरियादिली है तेरे दिल मे तो ।
सिर्फ शैलेश को हो किसलिये धिक्कार देता है ।।


ग़ज़ल क्र  4

घर  बँटा  रोटी  बँटी  दिल बँट  गया ।
इस  तरह  अपनो  से इंसा कट गया ।।

वक्त   आया   दूर   जा   बैठा   कही,
नेकीयो  के  रास्ते  से  हट  गया ।।

हाथ खाली  यह  यहाँँ  करता  भी  क्या ।
वह रहे   काशी   में   मैं   चिनहट  गया ।।

माँ  रही  उत्सव  रहा  सब  कुछ  रहा ।
फूल  से  आँगन  था  सारा  पट  गया ।।

प्यार  क्या  अपनत्व  क्या  आई  समझ ।
सामने   छाया   अंधेरा   छट   गया ।।

बाते   जिसके   लिए   जिल्लत   सहे ।
बात  उसकी  सुन  कलेजा  फट  गया ।।

गैर   था   शैलेश   लेकिन   वक्त   पर ।
कर  गया  इमदाद  फिर  सरपट  गया ।।

ग़ज़ल क्र  5

जख्मो की  गहराई  तुम क्या जानोगे ।
आँँख मेरी भर आईं तुम क्या जानोगे ।।

तुम जूनून के चलते जितना गवा दिए ।
कैसे  हो  भरपाई  तुम  क्या  जानोगे ।।

कितनी किल्लत और मसक्कत कर मैंने ।
जोड़ी   पाई   पाई   तुम   क्या   जानोगे ।।

तन पर कपड़ा नही जवानी बोझ बनी ।
लेती  है  अंगड़ाई   तुम  क्या  जानोगे ।।

तुमने खाया मौज उड़ाया जीवन भर ।
कैसे  हुई  कमाई  तुम  क्या  जानोगे ।।

जहाँ रहे तुमने महलो का सुख पाया ।
क्या है घर अंगनाई तुम क्या जानोगे ।।

आज सियासत शहर की उसके ही चलते ।
कितनी   है   गरमाई   तुम   क्या  जानोगे ।।

जनता  मरे  भूख  से  पर  अफसर  नेता
खाते   खूब   मलाई   तुम  क्या  जानोगे ।।

कटे   रहे   माटी   से  जीवम  भर  प्यारे ।
खेती  और  सिंचाई  तुम   क्या  जानोगे ।।


ग़ज़ल क्र 6

समय  देखिये  और समय की धार देखिये ।
फुटपाथों पर आज दिख रहा प्यार देखिये ।।

राजा  चुप  है  रानी  चुप  है  मंत्री  भी  चुप ।
सब   पर  हुक्म  चलाता  चोकीदार  देखिये ।।

प्रायः  सच्चाई  की  कसमें  लोग  है  खाते ।
किंतु  झूठ  का  चलता  कारोबार  देखिये ।।

कुछ   कहने   सुनने  की छूट  नही  आई ।
बुद्धजीवियों   का   गूंगा  दरबार  देखिये ।।

हुआ  हादसा पिछले बरस  मरे  अनगिनत ।
फिर  भी  जाते  लोग  वहाँ हट बार देखिये ।।

हत्या   लूट   फिरौती  चोरी  बलात्कार  की ।
खबरों  से  है  भरा  हुआ  अख़बार  देखिये ।।

अपराधी मानव है कदम  उठा  सुरक्षित  रखो ।
राजनीति   वालो    के   शुभ   उद्द्गर  देखिये ।।

घर   के   लोगों   की   अंदेखो   के   चलते ।
देश   हुआ   शैलेः   बहुत   बीमार   देखिये ।।


ग़ज़ल क्र 7

तुमसे  जो  कुछ  मिला  बहुत  है ।
बना   रहे   सिलसिला   बहुत   है ।।

अपनी    करनी    नही    देखते ।
उनको  शिकवा - गिला  बहुत  है ।।

लम्हेंं    नही   एहसास   मुझे   है ।
घाव  जिगर  का  छिला बहुत  है ।।

जैसे  -  जैसे   जी   ही   लूंगा ।
यादों  का  काफिला  बहुत है ।।

कत्ल  उसी  का  करना  चाहो ।
जो  तुमसे  ही  हिला  बहुत है ।।

ढह  जाएगा  निश्चित  इक  दिन ।
यदपि   ऊँचा   किला  बहुत  है ।।

अब  तो  कर  शैलेष  पर  रहम ।
दिया  इसे  तू   सजा   बहुत है ।।

ग़ज़ल क्र  8

अधरों से छू दिया आपने लम्हा-लम्हा ग़ज़ल हो गया ।
राह  भटकते  पगने  पाई, यत्र सार्थक पहल हो गया ।।

काव्य कीर्ति का आँचल फहरा इंद्रधनुष अम्बर में लहरा ।
संदया डूबी मधुर मिठास से रूप समय का नवल हो गया ।।

माटी की सेवा में आपने जो भी शास्वत क्षड है गुजरे ।
आप नाम चाहे जो दे दे अपना जीवन सफल हो गया।

तन से ऊपर, धन से ऊपर मन से जो भी किया आपने ।
पन्ने   पर  युग  के आरेखित स्वदे खांस अटल हो गया ।।

अट्टालिका न माने रखती सप्तरंग भी होते ढूंढ़ले ।
जर्जर इस छाया के आगे झूठा ऊंचा महल हो गया ।।

आघातों  को  सहते  सहते  टूट  गया  शैलेश  चदुर्दिक ।
थोड़ा सम्बल मिला आपका यह निर्बल भो सबल हो गया ।।

डॉ0 ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी 'शैलेश'

सोमवार, 25 जून 2018

7:31 pm

जब कालरात्रि बढ़ती ओढ़नी पसार हो - आदित्य तोमर

जब कालरात्रि बढ़ती ओढ़नी पसार हो.
हर ओर सघन क्रूरतम नैशान्धकार हो.
निद्रारणवों की थाह गाहती हो चेतना.
मधुकैटभी प्रवृत्ति चाहती हो जीतना.
उस वक़्त अग्निहोत्र धर्म पालता कवि है.
प्राणों की आहुति दे दीप बालता कवि है.
रवि रश्मियाँ जहाँ न कर्म पाला करे हैं.
कवि उर की उर्मियाँ वहाँ उजाला करे हैं.
-
आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ (उ.प्र.)
7:29 pm

ग़ज़ल - आप हम को भूल भी जाओ न कोई हर्ज है - सुदीप्ता बेहरा

आप हम को भूल भी जाओ न कोई हर्ज है,
आप   को  दिल मे रखेंगे ये हमारा फर्ज है |

फाड़ दे बेशक सभी पन्ने मुहब्बत के मगर,
आज भी गुस्ताख़ दिल पर नाम तेरा दर्ज है |

लाख चाहे तुम छिपा लो जिंदगी का राज सब,
कर रही  आँखे  बयां ये इश्क  का ही   मर्ज है |

लूट के  दिल  तब खज़ाना  दे गये थे प्यार का,
साथ छूटा आज, हम पर रह गया कुछ कर्ज है।

इश्क ने  हम  को सिखाया   गुनगुनाना दर्द में,
गा रही है 'दीप्त' जो   वो आपकी  दी तर्ज है।

सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"
     उड़ीसा
7:26 pm

ग़ज़ल - यहां बात सच इक कहानी कहेगी - नीतेन्द्र परमार

यहां  बात सच इक कहानी कहेगी ।
जिगर  में  उठे  वो  रवानी  कहेगी।।

मिलो तुम कभी जब सितारे निहारे ।
चिरागों  जले  सब  जवानी  कहेगी ।।

सफर हैं हमारा जरा बात सुनलो ।
उसी से मिलूं जो दिवानी कहेगी ।।

जरा  पास बैठो सितमगर  हमारे ।
सही बात तो अब जुवानी कहेगी ।।

बड़ा नेक दिखता हमें ये जमाना ।
मगर  प्रीत  टूटी  निशानी कहेगी ।।

कही लुट न जाये दिलो का खजाना ।
यहा  आज  भारत  सुहानी  कहेगी ।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
   छतरपुर  ( मध्यप्रदेश )
   सम्पर्क :- 8109643725

7:22 pm

ग़ज़ल - भला चुप रहने से क्या होगा - पारस गुप्ता

यहाँ के लोग सच बताते क्यूँ नहीं...
हैं  प्यार तो फिर जताते क्यूँ नहीं...
भला चुप रहने से क्या होगा बताओ..
हक हैं तो फिर लेने आते क्यूँ नहीं....
काविशें तक नहीं करते लोग यहाँ के...
छूटा प्यार लोग अब जुटाते क्यूँ नहीं.....
(काविशें=कोशिशें)
इकरार करोगें तभी तो प्यार मिलेगा...
दिल से दिल अपना मिलाते क्यूँ नहीं......
गलतफेमियाँ हुई खुशियों के दरम्यान...
गर बस चुकीं हैं तो मिटाते क्यूँ नहीं......
अगर सनम तुम्हारा हैं तो रहेगा भी...
असल प्यार अपना वो दिखाते क्यूँ नहीं.....
गुनगुनाओ यार तुम ग़ज़लें मुहब्बत की...
न मिलें दिल तो हाथ मिलाते क्यूँ नहीं....
मुकद्दर में लिखा नहीं मिलता "पारस"...
सिक्का किस्मत का आजमाते क्यूँ नहीं.....
पारस गुप्ता (शायर दिलसे)
   चंदौसी (सम्भल)

7:19 pm

राष्ट्ररक्षा

हिन्द धरा पर जन्मे हम हिंदुस्तान हमारा है ।
करो  राष्ट्र  की  रक्षा  ये हिंदुस्तान हमारा है।।

गांधी  ने  शेखर  ने  अब्दुल  हमीद  के जैसे ।
कितनो के लहू ने बचाया हिंदुस्तान हमारा है।।

देखो  आज  भी  सरहद  पार  पे  उनको  तुम ।
जिनके भरोसे सोता चैन से हिंदुस्तान हमारा है।।

ऐसे करें हम राष्ट्र की रक्षा ऐसा हो  बल हम में।
जैसे हिमालय गर्व से कहता हिंदुस्तान हमारा है।।

विश्वविजेता  हो  देश हमारा लेकर ये संकल्प ।
और गर्व से हम फिर बोलें हिंदुस्तान हमारा है।।

सना परवीन
हरदोई

6:20 am

राम हैं वे बस इसी से तम्बुओं में बैठकर - आदित्य तोमर

राम हैं वे
बस इसी से
तम्बुओं में बैठकर भी
धैर्य की प्रतिमा बने से
बाट जोहे जा रहे हैं ।
राम हैं वे
बस इसी से
शांति के संकल्प के हित
पक्ष जनमत का समझकर
दूर रहते हैं पहल से ।
राम हैं वे
बस इसी से
राजनेता तो नहीं पर
राजधर्मा व्यक्ति जैसा
कर रहे व्यवहार अब तक ।
राम हैं वे जानते हैं
शक्ति पर अंकुश लगाना
धर्म का परचम उठा -
उन्मादियों के गढ़ ढहाना
प्रेम में कटिबद्ध होकर
सागरों के पार जाना
दुष्ट का संहार करना
भक्त के हित हार जाना
हाँ मगर जिस भाँति भी हो
शांति की स्थापना, वह -
यत्न कर जाना उन्हें है
बाण से पहले विनय का
मार्ग अपनाना उन्हें है ।।


- आदित्य तोमर
वज़ीरगंज, बदायूँ
5 अप्रैल, 2017


6:18 am

दाती पर चढी साढे साती


पाप का कलश फूटा
              गुस्से में दिखाते दाँत
महाराज गजलों पे
                 चूर नाचने लगे
दिल्ली में जमाये पैर
               झाडियों के खट्टे बेर
भक्त सभी बाबा जी का
                 नूर बाँटने लगे
न्याय के भी देव को भी
             गच्चा दे रहे थे दाती
भारत की मीडिया से
             दूर भागने लगे
शनि का सवैया चढा
               चढ गयी साढ़े साती
धनाधिप आज देखो
              धूर चाटने लगे

   राजेश मिश्र प्रयास

1:22 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में राजेन्द्र कुमार गुप्त 'बावरा' की कुछ ग़ज़लेंं

ग़ज़ल 1

आदमी  तो  दुखी  ही  रहा ।
दर्द   से   होंठ  है  सी  रहा ।।

ऐ   चमन   के  पुजारी  बता ।
देवता  बन   कही  भी  रहा ।।

अपने  मक्कारियों   मे  पँगा ।
चाल  चलता  फितरती  रहा ।।

हर  तरफ  तिशनगी है जगी ।
एक  दूजे  का  खू  पी  रहा ।।

बीज  नफरत  की  बोता  फिरे ।
मीत   बन   कर   फरेबी   रहा ।।

चाँद - मंगल  तलक  जो गया ।
खौफ   के  साये  में  जी  रहा ।।

आईने  दिल  को  बेपर्द  कर ।
'बावरा'  पर्दा  क्यों  सी  रहा ।।

© राजेन्द्र कुमार गुप्त 'बावरा'

ग़ज़ल 2

कहते  हो  लापता  है,  जाहिर  पता  हमारा ।
दुश्वारियों   ने   ठोकर,  दे   दे   हमे   दुलारा ।।

जो   धूल  में  मिले  है,  थे  फूल  वो  चमन  के ।
किसने  इन्हें  है  मसला, क्या  दोष  है  निहारा ।।

हँसना  अगर  बुरा  है,  रोने  पर  क्यो  है  बंदिश ।
रहता   हूं   हाशिये   में,  ले   भाग्य  का  पिटारा ।।

नफरत  की  आग  बोकर  पाओगे  क्या  बता दो ।
मिल्लत  की   ये  वशियत,  सारे  जहा  से  न्यारा ।।

कहते   हो  शूल  बन कर  पावो  में  चुभ  रहे  है ।
कैमूरी   'बावरा'   हु    छीनो   न   हक   हमारा ।।


ग़ज़ल 3
212   212  212 

फूलोंं   को   तोड   लाना   कैसा ।
कांटो   से  खुद   बचाना   कैसा ।।

अर्श   पे   छाने  वाले  बोलो ।
फर्श   पे   तेरा  आना  कैसा ।।

खोद  दी  गहरी  खाई  तो फिर ।
डरना  क्या  और  डरना  कैसा ।।

भूख  की खलती जब आग हो ।
घड़ियाली  ऑंसू  बहना  कैसा ।।

भ्रम   की   जो   सुई   से   सिला ।
जख़्म  का  मिट  ही  पाना कैसा ।।

बावरा     उन्मादी    आक़ा   पर ।
ये  ख़ंजर  चल  ही  जाना  कैसा ।।



ग़ज़ल 4

जिन्दगी गणित जैसा दर्द बड़ा गहरा है।
आस्तिनी  सापों का लगा हुआ पहरा है ।।

कौन जाने द्रोपदी की चींख कोई सुन पाए ।
रेत  जैसा  प्रीत  लिए  कृष्ण  हुआ भरा है ।।

शोर   बड़ा   गलियों  में   चौराहे  अंंजान ।
मरघटी  सन्नाटे  को  चीर  रहा  लहरा  है ।।

बुझ   रहे   आशा  के  दीप  हर  दरवाजे ।
गूँज रहा घर घर जयचन्द का ककहरा है ।।

कैसे यहाँ भाव करें भावना के खंडहर में ।
छीनता  उजाला  को अमावस बेबहरा है ।।

बावरा  अशोक  वाटिका  में  बैठी  जानकी ।
काल जयी रावण का खोफ खाता खतरा है ।।


ग़ज़ल 5

पर्वत  की  चोटी  से  पूछो  सागर  की गहराई से ।
रेतीली ममता से पूछो डीआरएस भरी तन्हाई से।।

कट कट गिरते लोग जल रहे बारूदी अंगारो से ।
विधवा की माँँगों से पूछो उजड़े कोख जम्हाई से।।

नफरत की दीवार उठाते जहाँ जेहादी गारो से ।
ऐसे में अनुराग से पूछो राग द्वेष की खाई से ।।

कंकालों से पति मेधना उजड़ गई लंका कैसे ।
लंका पति रावण से पूछो या इस तानाशाही से ।।

चोर  की  दाढ़ी  में तिनके से पूछो शहंशाहों से ।
बावरा रहते शीशमहल में सदा बहार बहाई से ।।


ग़ज़ल 6

दरियों  में  नही  हलचल,सुना है किनारा ।
क्या  बात  हुई  तुरबत  ने,  पाँव पसारा ।।

दहशत   में   समाया   है,  रौनुमा  सवेरा ।
सजदा  करु  कहाँ मैं, ऊँचा चढ़ा है पारा ।।

पत्थर से नशब करते  हैं  खून  के छीटेंं ।
अमन औ चमन लौटे कैसे , चैन दुवारा ।।

मतलब-परस्त लोगो कुछ तो विचार करलो ।
है   जादुई   करिश्मा,   या   जादुई  नज़ारा ।।


महफूज  गुलिश्ता  है  काँटों  की  बंदिशे  है ।
गर  'बावरा'  बनोगे  उजड़ेगा   घर  तुम्हारा ।।


ग़ज़ल 7

कोई  शिकवा  नही बहारोंं से ।
कोई  रुसवाई  नही  खारोंं से ।।

फानी दरिया से उठती लहरें है ।
मिट  न  जाये कही किनारोंं से ।।

मै  हूं  तेरी  वफ़ा  का  शैदाई ।
फिर भी हरजाई कहते तारों से।।

तेरी रहमत बरसती है हर शै पर ।
जीना   मरना   इन्ही  इशारोंं  से ।।

दर्द  दिल  ने  पिया  दवा  समझ ।
'बावरा' मिलता  दुआ  प्यारोंं  से ।।


ग़ज़ल 8

शाकी ! यह मैखाना कैसा ।
अपना  और बेगाना कैसा ।।

भीड़  तंत्र  के  इन  हाथो  में ।
बजता  बिगुल  तराना  कैसा ।।

कूक  कोकिला  तोड़  रही  दम ।
आखिर   यह   याराना  कैसा ।।

पवन  कह  रहा  बुझे  हुए  मन ।
तिनकों   का  उड़  जाना कैसा ।।

बिकते  जिस्म   से  तो  पूछो ।
उनका   ठौर   ठीकाना  कैसा ।।

फैला है  उन्माद  धरा  पर ।
फिर आंसू धरकाना कैसा ।।

'बावरा'बिधवा सी देहरी पर ।
सागर  का  लहराना  कैसा ।।

राजेन्द्र कुमार गुप्त 'बावरा'

शनिवार, 23 जून 2018

5:43 pm

मुक्तक - मेरी तनहाई को कोई आवाज तो दे

मेरी तनहाई को कोई आवाज तो दे,
मेरे  प्रेम गीत  को कोई साज तो  दे,
कदमों में झुका दे हम  आसमाँ  को,
मेरे सपनों को  कोई  परवाज़  तो दे ।।
                    
कुमार सागर

5:41 pm

ग़ज़ल - दिखाओ आँख मत हमको , तेरे ही हम  दिवाने है


दिखाओ आँख मत हमको , तेरे ही हम  दिवाने है ।
भले ही भूल जा मुझको ,तेरे  आशिक पुराने है ।।

जिसे *मनमीत* कहते हो , नज़र लूट लेगा वो  ।
नज़र के वार से बचना ,गजब उसके निशाने है ।।

हसीना जब कहे है हाँ , हंसी दुनिया ये हो जाती ।
मना करती हसीना जब ,लगे अपने बेगाने है ।।

बड़ी कातिल अदांऐ है , कई मजनू किये पागल ।
जरा बचना हसीनो से , बने इनसे मैखाने है ।।

समन्दर कब हुआ खारा , सुनो साथी कहे सबसे ।
बहाये अश्क आशिक ने , उसी के ये फसाने है ।।

बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"डबरा

5:40 pm

धमकी ! धमकी ! गीदड़ भभकी, देते हैं

धमकी ! धमकी ! गीदड़ भभकी, देते हैं हमको रोज़-रोज़.
हाथों में थामे रहते हम, जैतून-शाख, मैत्री-सरोज.
आये दिन शांति कपोतों का, बढ़-बढ़कर क़त्ल किया जाता.
भारत के सभी प्रयासों को, नफरत से टाल दिया जाता.
दुष्टों को उनकी भाषा में, उत्तर तो देना ही होगा.
फूलों की जगह करों में अब, शूलों को लेना ही होगा.
कुछ दिन त्यागो भी भक्तिभाव, हो सैन्यभाव से ओतप्रोत.
अब तक नहरू के देखे हैं, दिखलाओ भोले के कपोत.
जैसे सैनिक के कटे शीश वैसे अब इनके शीश काट.
भर-भर रुण्डों के ढेरों से कर दो घाटी समतल सपाट.
हर-हर बम-बम के नारों से शीतल समीर हरहरा उठे.
वह स्वर, वह कम्पन नाद जगे थरथर बैरी थरथरा उठे.
हाथों में धारो अस्त्र-शस्त्र, गंगाजल का करवा धर दो.
भक्तो ! घाटी का श्वेत-श्वेत कण-कण रक्तिम-भगवा कर दो.
हो सिंह अगर तो सिद्ध करो यह भभकी और नहीं सहनी.
सदियों से अमरनाथ ने भी मुण्डों की माल नहीं पहनी.

आदित्य तोमर
वज़ीरगंज, बदायूँ

3:35 am

आदमी गिर गया अपनी औकात से - राजेश मिश्र प्रयास

आदमी गिर गया अपनी औकात से ।
झूठ भी वोलता अपने माँ-बाप से ।।
आज नांगो से इतना है खतरा नही,
टूट जाता स्वयं अपने हालात से ।।
झूठ ---------

गुरु ने मांगा था जाके अँगूठा स्वयं
जा छला शिष्य सच्चा भी वकवास से
झूठ-------

वो गरूड माता विनता छली क्यों गयी
दासी बनना पड़ा सर्प विश्वास से
झूठ------

शाप जननी ने खुद पुत्रों को दे दिया
सर्प बच न सके करके खुद पाप से
झूठ-----

राजेश मिश्र प्रयास

12:52 am

सज़ल क्या है ---

आजकल "सजल "- नाम से भी साहित्य की एक विधा विकसित हो रही है ।
     इसका स्वरूप गजल जैसा ही होता है लेकिन गजल जैसे सख्त नियम  नही होते ।
      इसे लिखने के लिए --

1--किसी बहर की जरूरत नही पड़ती । पहली पंक्ति में जितनी मात्राएं होती है अंत तक अन्य पंक्तियों में भी उतनी ही मात्राएं होनी आवश्यक है ।
2--दो दो पंक्तियों का एक शेर होता है ।
3- हर शेर स्वतन्त्र होता है
4- इसमे उर्दू के शब्दों के स्थान पर हिंदी के शब्दों का प्रयोग होता है ।
5- गेयता गजल की तरह इसका भी आवश्यक तत्व होता है ।।

डॉ  अनिल गहलौत इस विधा के प्रवर्तक माने जाते है । उन्होंने ही इस सजल के रूप में प्रतिष्ठित किया है ।।

सुशीला जोशी
मुजफ्फरनगर

शुक्रवार, 22 जून 2018

8:29 pm

कहीं कोई कशिश तो है मेरे दिल बर की आंहो में

 मुक्तक

1
कहीं कोई कशिश तो है मेरे दिलबर की आंहो में ।
मुझे जन्नत नज़र आई मेरे दिल बर की बाँहों में ।।
करूँ मैं इल्तजा रब से उसे महफूज तुम रखना ,
नहीं कांटा चुभे कोई मेरे दिल बर की राहों में ।।

2
करे तन मन को जो पावन वो गंगा जल बना देना ।
बुझा  दे  प्यास  धरती  की  वही बादल बना देना ।।
मैं  तो  हो  गया हूँ इस कदर उस रूप पर मोहित,
लगे  नयनों  में  जो उसके वही काजल बना देना ।।

राजेश शर्मा  प्र. अ.
नगर पंचायत रिठौरा बरेली
8:16 pm

मनहरण घनाक्षरी- बृजमोहन श्रीवास्तव


स्वस्थ यदि रहना है , बात यही कहना है ।
खुशहाल जीवन का ,योग गुरु मंत्र  है ।।

योग करे रोग दूर , खुशी मिले भरपूर ।
प्रकृति का रूप योग , ईश्वर का यंत्र है ।।

भोर मिले प्राण वायु , इससे बढ़े है आयु ।
सूरज का नमस्कार , मानो गणतंत्र है ।।

योग दिवस है आज , करो कुछ नया काज ।
छोड़ना है नशे सभी , फैलता अन्यंत्र है ।।

कवि बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"डबरा

5:48 pm

कलाधर छंद - जितेन्द्र चौहान


व्याप्त आज रोग शोक वासना दिखे प्रकोप,
              हीन दीन जो दशा सचेत आप होइये।
मानवीय कृत्य हो गये जघन्य पाप श्राप,
              सावधान कालसर्प के न बीज बोइये।।
धार साधना हिये भरो नवीन तेज ओज,
           पश्चिमी बयार दंश धर्म को न खोइये।।
मूल्यवान तत्व योग जो रखे सदा निरोग,
        नित्य दिव्य चाहता अमूल्य को सँजोइये।।

~जितेन्द्र चौहान "दिव्य"

4:45 am

ग़ज़ल- जादूगर सा काम किया है यार तुम्हारी भाभी ने

जादूगर सा काम किया है यार तुम्हारी भाभी ने
एक मकां को धाम किया है यार तुम्हारी भाभी ने

दिल छलनी, बेक़ाबू सांसें, घायल नज़रें, चाक जिगर
लगभग क़त्ल-ए-आम किया है यार तुम्हारी भाभी ने

कुछ सूफ़ी तासीर तो पोशीदा है उनकी सोहबत में
मुझको भी ख़ैयाम किया है यार तुम्हारी भाभी ने

दौर-ए-ख़जां में ख़ाक़ हुए इक डाल से बिछड़े किस्से को 
गुल-गुलशन-गुलफ़ाम किया है यार तुम्हारी भाभी ने

इतने व्रत-उपवास-अमावस-पूनम सब मेरी ख़ातिर?
पत्थर शालिग्राम किया है यार तुम्हारी भाभी ने

संगतराशी के गुर जा कर उनसे सीखो बुतकारों
मुझ कंकर को श्याम किया है यार तुम्हारी भाभी ने 

© Prabudha Saurabh 
चित्र :- फेसबुक 

12:25 am

ग़ज़ल- फुरकत के लम्हों में

फुरकत के लम्हों में नैन अब चार कर लूं मैं ।
दानिशतां  सनम  मेरे  तुझे  प्यार कर लूं मैं ।।

खुद को भुला दुं खो जाऊं कुछ इस तरह तुझमें  ।
होने  लगी   हूं   अब   तेरी  इकरार  कर  लूं  मैं ।।

शरमा के यूँ नज़रें उठ के झुक ही गई मेरी ।
खामोश होठों से अब यूँ इजहार कर लूं मैं ।।

तसव्वुर में  हमनशी  छू  कर  मैं तुझको देखूँ ।
दिल  मे रख के तुझको बातें हजार कर लूं मैं ।।

हो  जाऊं  मैं  फना  कुछ  ऐसे  काम  आऊं ।
आगोश में भरके तुझे खुद पे वार कर लूं मैं ।।

सना परवीन 'महनाज'
   हरदोई (उ०प्र०)

गुरुवार, 21 जून 2018

9:24 pm

ग़ज़ल - मुहब्बत दिलों की कहानी कहेगी

मुहब्बत दिलों की कहानी कहेगी.....
या  मेरे  अश्रुओं को पानी कहेगी.....

कहा  जाए  कैसे  मुहब्बत के मारे...
ये चाहत दिलों की रवानी कहेगी.....

बहुत  हैं  दिवाने  तुम्हारें यहां पर...
ये  दुनिया  तुझे मेरी रानी कहेगी.....

कयामा नहीं हैं सिवा तेरे दिल के...
न ये दिल को बस्ती पुरानी कहेगी.....

अदा देख तेरी हुए मदहोश हम तो...
अदा को ना दुनिया दिवानी कहेगी.....
                                    
कलम से गजल तक लिखेंगे तुम्हीं को...
कलम जो तुम्हें अब निशानी  कहेगी.....
                 
पारस गुप्ता  (शायर दिलसे)
चंदौसी (सम्भल)
9:23 pm

मुक्तक - लगाओ घर की सब झाड़ू

लगाओ घर की सब झाड़ू , 
                 इसी में योग होता है ।
उसी के बाद फिर पोछां ,
           कहाँ फिर रोग होता  है।।
बचे गर कुछ समय *साथी*,
         तो बर्तन साफ कर लेना ।
करो फिर ध्यान पत्नी का ,
              तभी संजोग होता है ।।

बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"
                               डबरा (म० प्र०)

बुधवार, 20 जून 2018

6:31 pm

वक़्त रूठा है मेरी माई से - रघुनंदन शर्मा

एक ग़ज़ल मुलाहिज़ा करें :-

वक़्त   रूठा   है   मेरी   माई   से
चूड़ियाँ   छीन   लीं   कलाई   से।

अपने कपड़ों प् नाज़ था जिसको
पेट  भरती  है  अब   सिलाई  से।

कितनी अज़्मत ख़ुदा ने बख़्शी है
झुक  के  पर्वत मिला  है  राई से।

ऐसी   दौलत   प्   भेजिए  लानत
जिसने  नफ़रत  करा  दी भाई से।                                               
उस   पुजारी   की   आस्था  झूठी
 प्यार  करता  नही   जो   माई  से।

आपको  छोड़   देगी  वो  लड़की
आप  डरते   हो  जग  हँसाई  से।

 -   रघुनंदन शर्मा "दानिश"
        जबलपुर (म०प्र०)

मंगलवार, 19 जून 2018

8:53 pm

कश्मीर का साढे तीन साल के गठबंधन पर प्रस्तुत कविता - राजेश मिश्र 'प्रयास'

महबूबा मुफ्ती रूठ गयी सरकार वहां की टूट गयी
इतने दिन तक कहर ढहाया कर सैनिक पर बार
आज क्यों टूट गयी सरकार -------
साढे तीन साल तक जमकर सिर फूटे थे सेना के
महबूबा की शाजिस से ही हाथ बधे थे सेना के
काश्मीर की उस वादी में खेल चला सरकारों का
पी डी पी ने जमकर देखो साथ दिया गद्दारों का
आतंकी बुरहान मरा जमकर रोयी    सरकार
आज क्यों--------------------------------------
गोगोई जमकर बरसे थे हिल गये पत्थर बाज सभी
हाथ खुले होते मेजर के मिट जाते गद्दार सभी
औरंगजेब और सिराज बुखारी मार दिये गद्दारों ने
तब जाकर गठबंधन तोडा दिल्ली के दरबारों ने
महबूबा ने हिला के रख दी बी जे पी सरकार 
आज क्यों -----------------------------
तीन सौ सत्तर पैंतीस एक पर बात नहीं क्यों बन पाई
गठबंधन के इस कूकर में दाल नही क्यों गल पायी
हमको जुमले मिले सदा ही सदा दिखाया झांसा है
सत्ता को ही हथियाने की रही सदा परिभाषा है
किस पर करे भरोसा जनता निकले सभी मक्कार
आज क्यों टूट गयी सरकार -------
राजेश मिश्र "प्रयास"
बीसलपुर (पीलीभीत)

सोमवार, 18 जून 2018

1:34 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में साधना कृष्ण की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल  1
वज्न - ‌2122    2122  212
काफिया - आज
रदीफ - है

आदमी   ही   आदमी   का राज है ।
अब तो खुद पर ही गिराता गाज है ।।

नाज  से  पाले कुलों के दीप को ।
आज भी इन बेटियों  पे नाज है ।।

हँस के जो दी लटों को फेंक वो ।
आह भर वे कहते क्या आगाज़ है ।।

कान में आकर कही ये जिंदगी ।
गैर की आवारगी ही  ख़ाज  है  ।।

लोक  तंत्र  में  नसीहत  पाक  है ।
इस हरम में  न्याय भी नाराज़ है ।।

साधना कृष्ण

ग़ज़ल 2
वज्न - 2122  2122   212
क़ाफिया- अत स्वर
रदीफ - हो गई

आसमाँँ से ही कयामत हो गई  ।
आदमी से ही  शरारत  हो  गई ।।

तारीखें  तो यूँ  बदलती हैं  ऐसे ।
मौज़ से  भारी बगावत  हो गई ।।

हो  गयी  तंगी फुर्सत की लो जरा ।
रौशनी की तब जलालत  हो  गई ।।

ना रहो  मगरूर  खुद में तुम   कभी ।
रुसवाई  की अब इजाजत  हो  गई।।

आपने जो देख़ के नज़रें  फेर ली।
आप से हमको मोहब्बत हो गई ।।

चंद  आँसू  और  यादें आपकी ।
जिंदगी की तो अमानत हो गई ।।

राह  में  थामे  चले  जो  अंगुली ।
फ़क़्त रुसवाई की आदत हो गई ।।

साधना कृष्ण

ग़ज़ल  3
वज्न 122    122   122   122
क़ाफिया -ई
रदीफ-कहेगी

शराफ़त  तुम्हारी कहानी कहेगी।
फ़साना  बना के रवानी  कहेगी ।।

अदायें  तुम्हारी ये मौसम सुहाना ।
फ़ना हो  गये  तो दिवानी कहेगी ।।

तुम्हारी जवानी अमानत रहेगी ।
हमारी नगीना निशानी कहेगी ।।

तख़ातुब नहीं हो कहीं नाम मेरा ।
यही  आऱजू  है सुहानी  कहेगी ।।

जब्र का ज़हर साधना मत पियो तुम ।
तड़प  के   यही   जिंदगानी  कहेगी ।।

तख़ातुब - पता
जब्र -   मजबूरी

साधना कृष्ण

ग़ज़ल 4
वज्न - 122   122    122   22
काफिया - अर
रदीफ - जाओगे

जो तुम बचके हमसें निकल जाओगे ।
हमें   देखतें    ही   ठहर    जाओगे  ।।

अज़ब नूर है इस चमन में ये हमदम ।
अगर  तुम  समेटे  बिखर  जाओगे ।।

अंजामे - मुहब्बत का होगा जग जाहिर ।
लेकर दर्द तुम फिर किधर जाओगे ।।

चढ़ेगी जो तलवार पर गर्दन फिर  ।
तभी तुम वादा से मुकर जाओगे ।।

ख्वाबों को सजा अपनी पलकों पर ।
सुनों तुम भी खुद ही निखर जाओगे ।।

साधना कृष्ण

ग़ज़ल 5
बह्र - 22  2122     2122   122
काफ़िया - आना
रद़ीफ़   - हुआ है

मेरे चाँद का जग ये दिवाना  हुआ है ।
वो तो जान बुझ ही अंजाना हुआ है ।।

रूठी हो हया ही जिससे आखिर भला क्यूँ ।
तब लगता जमाना ही बेगाना हुआ है ।।

भादों की तरह बरसे ये आँखें हमारी ।
इनको है वहम मौसम सुहाना हुआ है ।।

जिन्हें भूलने की हर कोशिशें ना  हुई कम ।
देखो किस तरह नज़रें चुराना हुआ है ।।

जबसे हो गये मगरूर वो मुझसे अब तो ।
तेरे ही ख्यालों में आना जाना हुआ है ।।

साधना कृष्ण

ग़ज़ल 6
वज्न - 2122  2122    212
काफ़िया - आने
रदीफ़ - हो गये

लोग  मजहब  के  दीवाने  हो  गये ।
पास   रहकर  भी  बेगाने  हो  गये ।।

रोज मस्जिद में जा कर मांगे दुआ ।
ख़्याल  उनके  अब  पुराने  हो गये ।।

कब तलक दूहोगे तुम इस अवनि को ।
अब  ख़ाली  तमाम  ख़जाने  हो गये ।।

मतलबे परस्ती पे जिन्हें नाज़ हैं ।
लापता  जीने के फसाने हो गये ।।

आ के कहता ख्याल तेरा यूं मुझे ।
तुझसे बिछडें अब जमाने हो गये ।।

बंद है अब खिड़कियाँ उसके घर की ।
खत्म   सारे   ही   बहाने   हो   गये ।।

तंगहाली   के   जमाने   में   अब ।
यूँ  लगे   सपने  सयाने   हो  गये ।।

साधना कृष्ण

ग़ज़ल 7
वज्न  - 1222 1222
काफ़िया - आती
रदीफ़ - है

शज़र      से      बहाती    है ।
हवा     ठंड़ी     सुहाती    है ।।

नियति  देखो  मिट्टी  की अब ।
यादें    कितना   सताती    है ।।

वादा    कोई    निभाता   कब ।
बातें     तेरी     लुभाती     है ।।

नज़र  झुक   तो  न  सकती पर ।
कसम   फिर   याद   आती   है ।।

कशिश  हो  गर  दिलों  में  तब ।
मिलन   की  आस   आती   है ।।

साधना कृष्ण

ग़ज़ल 8
वज्न - 222  222  12
काफ़िया - आर
रदीफ़ - है

यादों     का     कारोबार    है ।
जीवन   कैसा   ये   खार   है ।।

अहसासों   की   दहलीज़  पर ।
आशाओं    का   दरबार    है ।।

जग  झूठा  औ  तू  ही  सच्चा ।
मुझको   तुझसे   ही  प्यार  है ।।

मतलब   का   है  नाता  यहाँ ।
खुदगरजी   का   बाज़ार   है ।।

अपना  लो  या  तुम ठुकरा दो ।
यह दिल अब तो ख़ाकसार है ।।

आँखो  में  झांको  एक  दफ़ा ।
दिल   मेरा   तो  गुलजार   है ।।

कैसे   कह  दूँ  सब   ठीक  है ।
झगड़ो  का अब अख़बार  है ।।

साधना कृष्ण

रविवार, 17 जून 2018

7:45 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह

🌹🌹🌹जय~जय🌹🌹🌹
*🌹🌹मुहब्बत🌹🌹*
                         हिन्दी गज़लें
भारत के श्रेष्ठतम् गज़लकारों का प्यार भरा एक *गज़ल~संग्रह*🌹

आपकी श्रेष्ठतम् आठ प्यारी गज़लें सादर आमन्त्रित हैं |

गज़ल सीखने की सहज रोचक जानकारियों को और सरल करेंगें  आपकी गज़लों के सरस शेर~👍🏻

नवोदित गज़लकारों को सीखने में उपयोगी उदाहरण बनेंगी आपकी गज़लें~👍🏻

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एक कदम हमारा आगे बढ़े , तो एक कदम आपका भी, मुहब्बत अपना पथ स्वयं तैयार कर लेगी,बढकर तो देखें~स्वार्थसिद्धता व्यक्तित्व को खोखला करने का काम करती है|इसका त्याग ही श्रेयकर है|एक साथ मिल साहित्यिक क्षेत्र में  बहुत कुछ किया जा सकता है तो आइए,आगे बढ़ें~👍🏻👍🏻

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~(उपाध्यक्ष जनचेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति ~226)

दिलीप कुमार पाठक "सरस"
  83848 95032
   संस्थापक (सचिव )
जनचेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति ~226
बीसलपुर पीलीभीत उ. प्र.

शनिवार, 16 जून 2018

1:42 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में सुशीला धस्माना 'मुस्कान' की कुछ ग़ज़लें

 ग़ज़ल 1
वज्न - 212  22  212  22
काफ़िया - आम
रदीफ़  - हो जाए

ऐ खुदा  ऐसा  काम  हो जाए ।
हर  खुशी  तेरे  नाम  हो जाए ।।

जो भूखे ही  शामों - सहर फिरते ।
उनके दुख का अब नाश हो जाए।

तूफां  बारिश  में  हो  गये बेघर ।
उनके एक ही घर नाम हो जाए।।

जो सताते हैं दूसरों को जो अब ।
उनका भी कुछ इन्तजा़म हो जाए ।।

शेर की  खाल में जो भेड़िये हैं ।
चर्चा उनकी भी आम हो जाए ।।

मांगती  हूं  ईश्वर से मैं अब तो ।
बच्चा  बच्चा श्री राम हो जाए ।।

दिन भरे हों खुशियों से 'मुस्कान' ।
आज महफिल में शाम हो जाए ।।

सुशीला धस्माना 'मुस्कान'

ग़ज़ल 2
वज्न  - 2122    2122    22
काफ़िया  - आ
रदीफ़   - पाओगे

अपनी करनी का सिला पाओगे ।
एक समय तुम भी सजा पाओगे ।।

पेड़ों पर कुछ तो रहम कर लेता ।
साफ़  वायु  फिर दिला  पाओगे ।।

जो उजाड़े हो बहारों को तुम  ।
कैसे फूलों को खिला पाओगे ।।

जो सभी जीवों का चैन छीने ।
चैन खुद को न दिला पाओगे ।।

धरती रोती आसमां रोता हैं ।
धीर कैसे तुम दिला पाओगे ।।

हर तरफ़ 'मुस्कान' हरियाली हो ।
तब खुशी सबको दिला पाओगे ।।

सुशीला धस्माना 'मुस्कान'

ग़ज़ल 3
बह्र - २२  २२ २२ २२ २
काफ़िया - आर
रदीफ -  करते हैं

हम तो बस तुमसे प्यार करते हैं ।
तुम पर ही  जां निसार करते हैं ।।

आपने  छोड़ा है जो हमको तो ।
बातें  क्यूँ  यूं  हज़ार  करते  हैं ।।

रास्ते  जैसे  होंगे  कट  जाएं ।
जब तुम्हारा दीदार करते हैं ।।

इम्तिहां  जितना वफा का लोगे ।
प्यार का फिर  निखार करते हैं ।।

जिन्दगी रूठ  भी  जाए क्या है ।
उसका  ग़म  यूं  फरार करते हैं ।।

लब पे तेरे आएगी कब 'मुस्कान' ।
हम  तो  बस  इंतज़ार  करते  हैं ।।

सुशीला धस्माना 'मुस्कान'


ग़ज़ल 4
बह्र  - 2×10
काफ़िया  - आ
रदीफ़ - देखा है

ग़ैरों को अपना बनता देखा है।
अपनों को दूर जाता देखा है।।

मतलब पड़ने पे खून का रिश्ता ।
खून का प्यासा  होता  देखा  है ।।

रात  में  नींद   कैसे   आएगी  ।
उल्फते  जाम  पीता  देखा  है ।।

लगाया दिल से  बेवफाओं  को ।
छिपे  खंजर  को आता देखा है ।।

प्यार चुंबक  के  जैसे  होता  है ।
प्यार से खिंचता सबको देखा है ।।

बात तुम चाहते तो रोक लेते ।
रार  को ऐसे बढ़ता  देखा है ।।

हो गयी 'गर ख़ता तुमसे' मुस्कान ।
अपनों को माफ़  करता  देखा  है ।।

सुशीला धस्माना 'मुस्कान'

ग़ज़ल 5
वज्न - 1222   1222    22
काफ़िया - ई
रदीफ़ - है

कैसी ये आस मन में आयी है ।
खुशी नस नस में मेरे छायी है ।।

मिला जो ख़त तो उसको पढ़ते ही ।
मुस्कराहट  सी  लब  पे छायी  है ।।

हमको वीरानियां पसंद थी तब तो ।
अब तो रौनक ही मन को भायी है ।।

मिलेंगे फिर ये बिछड़ना  कैसा ।
 चन्द  लम्हों  की  ये जुदाई  है ।।

दिल हुआ कैद उनकी चाहत में ।
चाहता  अब   नहीं  रिहाई   है ।।

बहारें  मौज  ले  रही   मन  में ।
ग़मों  को  दे  चुके  विदाई  है ।।

अब तो हर रोज़ लब पे है 'मुस्कान' ।
 मन  में  छवि  तेरी  जो  बसाई  है ।।

सुशीला धस्माना 'मुस्कान'

ग़ज़ल 6
बह्र - 122  1222    1222
काफ़िया - ते है

दिलों के तार कुछ तो अब कहते हैं ।
शायद अब याद वो हमको करते हैं ।।

हमीं को समझा के चलो किसी काबिल ।
शुक्रिया  तेरा   अब  हम  तो  चलते  हैं ।।

बेशुमार  हमने  की  मुहब्बत सो ।
जिगर का दर्द अब हम सहते  हैं ।।

 बेवफाई  तो   उस   ने  की  थी ।
 के अब जख्म दिल पे मिलते हैं ।।

एक  वो  हैं  कि  ग़म  में  डूबे  हैं ।
ग़म के बदले हम 'मुस्कान' देते हैं ।।

सुशीला धस्माना 'मुस्कान'

ग़ज़ल 7
वज्न - 212  212 212 212 22
काफ़िया - अर स्वर
रदीफ - नहीं देखा।

 आज़ादी के  बलिदानों का मंजर नहीं देखा ।
 गद्दारों का बढ़ता हुआ  खंजर नहीं देखा ।।

सांस  ले रहे हो इस  आज़ादी में तुम तो ।
परतन्त्रता के कष्टों को छूकर नहीं देखा ।।

अंदाजा क्या लगाए  किसी के भी दर्द का ।
आंसुओं  से  तर  तूने  बिस्तर  नहीं  देखा ।।

लूट  रहे  बैठे  - बैठे  देश  को  क्यों  तुम ।
दुनिया में कहीं तुम सा सितमंगर नहीं देखा ।।

जिस देश में हो  उसको ही बरबाद कर दिया ।
सीने में दिल के बदले ये पत्थर नहीं देखा ।।

जो पालता है बेटी दान देने को 'मुस्कान' ।
उस  बाप  ने  सुकूं  इक मंज़र नहीं देखा ।।

सुशीला धस्माना 'मुस्कान'

ग़ज़ल 8
बह्र - 212   212  1222
काफ़िया - आन स्वर
रदीफ़ - हो गये देखो


लोग हैवान हो गये देखो  ।
कूचे हैरान हो गये  देखो ।।

मस्त कलियों जहां गूंजी हंसी ।
बाग  शमशान  हो  गये  देखो ।।

छोटे बच्चों  में ईश  के दर्शन ।
रूठे भगवान्  हो  गये  देखो ।।

झोपड़ी भी नही थी  जिन पर ।
आज  धनवान  हो गये  देखो ।।

आज अहसास मर गया उनका ।
कैसे   इंसान    हो  गये   देखो ।।

जिनको  आता न जाता कुछ भी था ।
अब वो सुल्तान   हो  गये  देखो ।।

बिकते हैं कैसे आदमी भी अब ।
वो  भी  सामान  हो  गये  देखो ।।

जिनको   कल तक  समझ नहीं पाये ।
लब की 'मुस्कान' हो  गये  देखो ।।

सुशीला धस्माना 'मुस्कान'

शनिवार, 9 जून 2018

1:45 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में डॉ सर्वेशानन्द "सर्वेश" की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल 1
वज़्न--2122 1212 22
काफ़िया - आर
रदीफ़ - कर लें क्या

दूरियाँ  दूर  यार  कर  लें  क्या ?
नफ़रतें छोड़ प्यार कर लें क्या ?

फ़ासले तो मिटे मिटाने से ।
सरहदें आज पार कर लें क्या ?

जो यहाँ साथ मिला है हमको ।
पतझड़ों में बहार कर लें क्या ?

लौ हवायें बुझा नहीं सकती ।
आँधियों से करार कर लें क्या ?

वो इधर लौट के चला आये ।
तो यहीं इन्तजार कर लें क्या ?

डॉ सर्वेशानन्द 'सर्वेश'

ग़ज़ल 2
वज़्न--212 1212 1212 1212
काफ़िया - इयाँ
रदीफ़ - कभी कभी

ढूँढता रहा मिलीं  निशानियाँ  कभी कभी ।
दूरियाँ लिखा गयीं, कहानियाँ कभी कभी ।।

बेवशी कभी  तबाहियाँ  बयाँ न कर  सकी ।
सिसकियाँ कहें दबी तल्खियाँ  कभी कभी ।।

गम मिला  बहार  भी,  हज़ार  रंग दे  गयीं ।
झुर्रियाँ लिये दिखीं जवानियाँ कभी कभी ।।

आज तक लिखा कभी गर अपना दौर आदमी ।
खूबियाँ लिखी बड़ी कि खामियाँ कभी कभी ।।

देख दर  किसी  मिले,  दुखी  बयार आँधियाँ ।
बाँट जा  वहीं  ढली  उदासियाँ कभी कभी ।।

डॉ सर्वेशानन्द "सर्वेश"

गज़ल 3
वज़्न- २१२२  २१२२  २१२२  २१२२
काफ़िया - आनी
रदीफ़ - बात ऐसी

कह नहीं पाता किसी से खुद ज़ुबानी बात ऐसी ।
हर किसी के दिल बनाये है निशानी बात ऐसी ।।

थी हमारी हार में या जीत में ग़ुमनाम बनकर ।
जिंदगी  को  दे  रही है जो रवानी बात ऐसी ।।

हर  घड़ी  परछाइयों  सी  डोर  बाँधे घूमती है ।
हमसफ़र  बन साथ रहती है पुरानी  बात ऐसी ।।

जब कई रिश्ते बचाने को कभी दिल चाहता है ।
बेजुबाँ  सबको  बनाती  खानदानी  बात ऐसी ।।

है नवाजिश बस उसी की राज भी 'सर्वेश' जाने ।
पास गुमशुम लिख रही है एक कहानी बात ऐसी ।।

डॉ सर्वेशानन्द "सर्वेश"

ग़ज़ल 4
वज़्न--२१२२  २१२२  २१२२  २१२
काफ़िया - आयें
रदीफ़  - जिन्दगी के खेल में

रंजिशें - गम  भूल जायें जिन्दगी  के  खेल में ।
खुद हसें सबको हसायें जिन्दगी  के  खेल में ।।

हर मनुज का है तरीका मान भी अभिमान भी ।
ना किसी को आजमायें जिन्दगी के खेल में ।।

दिल्लगी  में रूठ जाये कोई हमसे बेवज़ह ।
वक्त पर उनको मनायें जिन्दगी के खेल में ।।

खेल जब तक चल रहा है, कौन छोटा या बड़ा ।
कौन पत्ता काम आयेंं  जिन्दगी  के  खेल में ।।

मोहरों की चाल पल में बदल सकती जीत को ।
कब  न  बाज़ी  हार  जायें जिन्दगी के खेल में ।।

कह सके परपीर की गज़लें सिसकती बहर भी ।
गीत  ऐसा  गुनगुनायें  जिन्दगी  के  खेल  में ।।

हर खिलाड़ी पर नज़र, रखता वही "सर्वेश" है ।
फैसला  वो  कब  सुनायेंं  जिन्दगी के खेल में ।।

डॉ सर्वेशानन्द "सर्वेश"

ग़ज़ल 5
वज़्न-  २१२  २१२  २१२
काफ़िया - आने
रदीफ़  - लगी

जब  कली मुस्कुराने लगी ।
तितलियाँ लौट आने लगीं ।।

फिर बनाने लगीं आशियाँ ।
गीत एक गुनगुनाने लगीं ।।

तीर  कब से चलाती रहीं ।
आज जाके निशाने लगी ।।

मौन ढोती हुयी सिसकियाँ ।
आसुओं  से  नहाने  लगीं ।।

सांच पूछा कि 'सर्वेश' ने  ।
बात  झूठी  बनाने  लगीं ।।

डॉ सर्वेशानन्द "सर्वेश"

ग़ज़ल 6
वज़्न--२१२२  २१२२
काफ़िया - अर
रदीफ़  -  में

याद  तेरी  रख ज़िगर में ।
लौट आया फिर शहर में ।।

था  मुझे   मालूम  करना ।
वो कहानी किस असर में ।।

है  यहाँ बदला हुआ सब ।
अज़नबी हूँ हर नज़र में ।।

तो भला पूछूं ये किससे ।
नाम तेरा किसके घर में ।।

मैं   लगा   बस   ढूंढने  में ।
तूँ कि खोने की फ़िकर में ।।

ढूंढते   रहना  है  मुझको ।
बेबसी  ढाती  लहर    में ।।

फैसला    'सर्वेश'    जाने  ।
कब मिलोगे किस पहर में ।।

डॉ सर्वेशानन्द "सर्वेश "

ग़ज़ल  7
वज़्न--२२१२  २२१२  २२१२  २२१२
काफ़िया - आत
रदीफ़  - तुमसे छीन ले

गम ना करो हालात गर  हालात  तुमसे छीन ले ।
जिसमें तुम्हारी हो  खुशी वो बात तुमसे छीन ले ।।

लाये  कभी  गर  जिंदगी  आफ़ात  ऐसे मोड़ पर ।
दर मंजिलें उलझी दिखें शुरुआत तुमसे छीन ले ।।

जो  हर  घड़ी  दिन रात तेरा बन सहारा साथ था ।
जब मुश्किलों के दरमियाँ ही साथ तुमसे छीन ले ।।

कोई  घनेरी  रात  ही एहसास  को  साझा  करे ।
तेरे ख़यालों  की  वही  एक  रात  तुमसे  छीन ले ।।

तूँ हौंसला रख फिर चलाचल अटल अपनी राह पर ।
बस कर दुआ "सर्वेश" ना ये जज़्बात तुमसे छीन ले ।।

डॉ सर्वेशानन्द "सर्वेश"

ग़ज़ल 8
वज़्न -1222 1222 1222
काफ़िया - आरों
रदीफ़  - में करें बातें

खड़े  रहकर  हज़ारों  में  करें  बातें ।
चलो  अब  हम  इशारों में करें बातें ।।

रहें  सब  बेखबर  यूँ  पास  रहकर भी ।
नजर  के  ही  नज़ारों  में  करें बातें ।।

न  कोई  ढूँढ पाये  दूर  तक चलना ।
कि  खोये  चाँद  तारों  में  करें बातें ।।

खुशी का सिलसिला कब जिन्दगी लाये ।
गमों  के   इन   बयारों   में   करें  बातें ।।

बचें   या   डूब  जायें  साथ  रहना है ।
भँवर  की  तेज  धारों  में  करें  बातें ।।

डॉ सर्वेशानन्द "सर्वेश"

मंगलवार, 5 जून 2018

1:50 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में सुदिप्ता बेहरा 'दीप्त' की कुछ ग़ज़लें

1) गज़ल
बह्र - 2122 1212 22
काफ़िया - आ स्वर
रदीफ़ - देना

हो सके तो मुझे भुला देना ।
तुम भले नाम बेवफा देना ।।

ज़िक्र मेरा कहीं अगर हो तो ।
बात  बातों  में  ही उड़ा देना ।।

पहले सुनना तू ग़ौर से मुझको ।
सुन के थोड़ा सा मुस्कुरा देना ।।

प्यार सच्चा कहाँ पे मिलता है ।
गर पता हो तो तुम पता  देना ।।

दोस्तों पे हम न बार करते पर ।
है  अगर  दुश्मनी  बता  देना ।।

सब यहां मेहमां, तुम्हारे  दर ।
जिंदगी  चार दिन बिता देना ।।

क्या  पता  दीप्त' देर हो जाये ।
प्यार मुझसे जो हो जता देना ।।

सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"

(2) ग़ज़ल
बह्र - 1222 1222 122
काफ़िया - अत
रदीफ़ - हो गयी है

जवां  दिल से शरारत हो गयी है ।
हमे  तुम  से मुहब्बत हो गयी है ।।

बयां कैसे करूँ मैं उनकी उल्फ़त ।
मेरे  दिल पे   इनायत  हो गयी है ।।

संवर कर आ गए हैं बज़्म में वो ।
सरे महफ़िल क़यामत हो गयी है ।।

सभी  की  उँगली जब उठ रही है ।
कसम से आज नफ़रत हो गयी है ।।

ख़ुशी  भी  दीप्त  से रूठी हुई है ।
न जाने क्यों अदावत हो गयी है ।।

सुदिप्ता बेहरा "दीप्त"

(3) ग़ज़ल
बह्र - 1212 1122 1212 22
काफ़िया - आने
रदीफ़  -  को

दिखा दिया जब से रंग तू जमाने को ।
लगे वही तब से सब तुझे सताने को ।।

धुआँ उठा न जरा सा लगी न आग कहीं ।
चली  हवा सब का आशियां जलाने को ।।


न फूल ये खिलते बाग में महक आती ।
उजाड़ के गुलशन सब लगे चुराने को ।।

तबाह देख, बहत खुश मतलबी दुनिया ।
न  छोड़ते  सब  कोई कसर रुलाने को ।।

यहाँ न दुश्मन था "दीप्त" का कभी कोई ।
न  दोस्त  है  अब  कोई  उसे  हसाने को ।।

 सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"



(4) ग़ज़ल
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आ स्वर
रदीफ़  - चाहती  हूँ


भरे  जख्म  ऐसी  दवा चाहती हूँ ।
जरा दोस्तोँ सेदुआ चाहती हूँ ।।

कमी जाम में है न अब होश खोया ।
पिलाओ नज़र का नशा चाहती हूँ ।।

किया इश्क इज़हार दिल आप ही से ।
कहो   आप  का  फैसला  चाहती हूँ ।।

सरे आम रुसवा न हो मेरी खातिर ।
तड़प हो भले फासला चाहती हूँ ।।

कदर दीप्त तेरी न समझे जमाना ।
चलो बेखुदी की सजा चाहती हूँ ।।


सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"



(5) ग़ज़ल
बह्र - 2122 2122 2122 212
काफ़िया - अर्ज
रदीफ़    -  है

आप हम को भूल भी जाओ न कोई हर्ज है ।
आप  को  दिल  मे  रखेंगे ये हमारा फर्ज है ।।

फाड़  दे  बेशक  सभी पन्ने मुहब्बत के मगर ।
आज भी गुस्ताख़ दिल पर नाम तेरा दर्ज है ।।

लाख चाहे तुम छिपा लो जिंदगी का राज सब ।
कर रही  आँखे  बयां ये इश्क  का ही   मर्ज है ।।

लूट के  दिल  तब खज़ाना  दे गये थे प्यार का ।
साथ छूटा आज, हम पर रह गया कुछ कर्ज है ।।


इश्क ने  हम  को सिखाया   गुनगुनाना दर्द में ।
गा  रही  है  दीप्त  जो  वो आपकी  दी तर्ज है ।।

 सुदिप्ता बेहेरा "दीप्त"


(6) गज़ल
 बह्र - 2122 1212 22
 काफ़िया - अर
 रदीफ़ - जाएँ

काश लम्हे  वहीं  ठहर  जाएँ ।
सामने आप जब गुजर जाएँ ।।

मुद्दतों   से   दबे   हुये  अरमाँ ।
बे धड़क आप पे बिखर जाएँ ।।

मोड़ दे रुख़ तभी हवाओँ का ।
वो  परेशां  हमे  न  कर जाएँ ।।

आप  के  साथ  सांस चलती है ।
गर खफ़ा आप हो किधर जाएँ ।।

हर शज़र " दीप्त" की यही चाहत ।
हम  खुशी  से  कहीँ  न  मर जाएँ ।।

सुदिप्ता बेहेरा  "दीप्त"

(7) ग़ज़ल
बह्र-  122   122   122
काफ़िया - आना

मुहब्बत का  है ये फसाना ।
जिसे  जानता  है  जमाना ।।

कोई मिल गयी जब दिवानी ।
 बना  हर  कोई  है  दिवाना ।।

हैं  आँखों   में  सपने  हमारे ।
मुहब्बत का इक घर बसाना ।।

 हसीं   है  अगर  रूठ  जाये ।
 मुहब्बत  से उसको  मनाना ।।

मुहब्बत का  मौका यही है ।
इसे तुम न हरगिज़  गवाना ।।

जफ़ा गर है दिल में तुम्हारे ।
अगर  हो  सके  भूल जाना ।।

मुहब्बत का रिश्ता है   माज़ी ।
इसे  जान    देकर    निभाना ।।

*माजी - अतीत

सुदिप्ता बेहेरा   "दीप्त"



( 8) ग़ज़ल
बह्र - 2122   2122   2122  212
काफ़िया - आनी
रदीफ़  - दे गया

प्यार  वो  हम  से जता के जिंदगानी दे गया ।
वो  रुलाकर के हमे गम की निशानी दे गया ।।

छोड़कर तन्हा सफर में चल दिया मुंह मोड़कर ।
जाते  जाते  घाव  मुझको  वो  रूहानी  दे गया ।।

काश वो पल आज फिर से लौट के आये यहाँ ।
जो  जमाने  को  कभी  ऐसी  कहानी  दे गया ।।

आज रुसवा हो गयी मैं इश्क के जो नाम पे ।
जिंदगी   को   वो हयाते  जावेदानी  दे गया ।।

चाह कर भी कर न पाये हम इबादत इश्क की ।
ये   दीप्त   को   कहीं   यादेँ   पुरानी  दे  गया ।।

सुदिप्ता बेहरा "दीप्त"

रविवार, 3 जून 2018

2:10 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में कौशल कुमार पाण्ड़ेय की कुछ ग़ज़लें


ग़ज़ल 1
बह्र~2222 1222 2222 1222
काफ़िया - ऐ
रदीफ़ -  ही चुरा बैठे

मेरे दिल से मिला के दिल वो ऐसें ही चुरा बैठे ।
मिलाते  आँख थे पहले वो आँखेंं ही चुरा बैठे ।।

सदा सुनकर चरागों को बुझा देते थे जो झट से ।
वही  काली  सी  रातों  का  अँधेरेंं ही चुरा बैठे ।।

खिली चंदा की पूनम देख जो कविता सुनाते थे,
मेरी दिल से सभी अपनी वो यादें ही चुरा बैठे।।

हया से नज्र नीची कर जो अक्सर साथ चलते थे,
वही  बेशर्मियत  से  "आस"  नजरें  ही  चुरा  बैठे।।

वफाओं का सिला जिसने जफाओं से दिया हरदम ।
करुँ क्या "आस" अब उससे जो शाखें ही चुरा बैठे।।

कौशल कुमार पाण्डेय "आस"

ग़ज़ल 2
बह्र - 1222  1222
काफ़िया - आती
रदीफ़ - है

तुम्हारी  याद  आती  है ।
सहर भर तड़फड़ाती है ।।

गमों का रास्ता रोके ।
मुझे नगमें सुनाती है।।

हमारा हाथ मत पकड़ो ।
खुशी  बेताब  आती  है ।।

बसा  तू  आशियां अपना ।
इश्क क्यों कर जताती है ।।

हैं   बदले   रास्ते   हमने ।
आस अब क्यों जगाती है।।

कौशल कुमार पाण्डेय "आस"

ग़ज़ल 3

वज़्न - 2122   2122    2122
काफिया - ओ
रदीफ़  -  लगा है

आपका आना सजा सबको लगा है।
प्यार दीवाना यहां सबको लगा है।।

ख्वाब में भी मुस्करा कर कशमसाना,
रूप मेरा ही सजा मुझको लगा है।।

लोग दीवानी तुझे कहने लगे हैं,
नाम मेरा जप रहीं मुझको लगा है।।

जब झुका नजरे निकलती सामने से,
है मुहब्बत में दगा मुझको लगा है।।

"आस" कैसे छोड़ दूं तेरी भला मैं,
मैं तुम्हारा हूँ सनम सबको लगा है।।

कौशल कुमार पाण्डेय "आस"

ग़ज़ल 4
बह्र - 1222 1222 12
काफ़िया - आ
रदीफ़ - नहीं

वफाओं का सिला पाया नहीं।
गमों का गीत फिर गाया नहीं।।

कभी आओ हमारे पास बैठो,
फिर न कहना कि समझाया नहीं।।

जमाने से गिला क्यों कर रहे हो,
अभी तक नाम बतलाया नहीं।

चलो दो चार बातें और कर ले,
मेरा संग तो तुम्हें भाया नहीं।।

लिखा एक गीत तुम पर भी था मैंने,
मगर तुमने कभी गाया नहीं।।

भला किसको सुनाऊँ दर्दे-दिल अब,
आस" अपना कोई साया नहीं।।

कौशल कुमार पाण्डेय"आस बीसलपुरी"

ग़ज़ल 5
बह्र - 2121 2122 212
काफ़िया - आते
रदीफ - नहीं

प्यार के चर्चे किये जाते नहीं।
गीत मेरे तुम अगर गाते नहीं।।

हौसला तुमने बढ़ाया प्यार का,
पास भी तुम ही मेरे आते नहीं।।

रंज दिल में पाल बैठा हूँ बड़ा,
लोग अब तो खास बन पाते नहीं।।

ढूंढने निकला मैं अपने यार को,
वो मुझे पहचान भी पाते नहीं।।

रोज गीतों को रचा करता हूँ मैं,
"आस" में अब गीत तुम गाते नहीं।।

 कौशल कुमार पाण्डेय "आस"

ग़ज़ल 6
बह्र - 2122  122   122  12
काफ़िया - आती
रदीफ़  -  रही रात भर

याद उनकी सताती रही रात भर ।
चाँदनी मुँह चिढ़ाती रही रात भर।।

प्यार में कितनी शामें गुजारीं मगर ।
रात  सपने  दिखाती रही रात भर ।।

तितलियां उड़ती देखीं बहुत फूल पर,
बनके गुल वो लुभाती रही रात भर।।

साजिशें उनकी कितनी खतरनाक थी ।
साँस  उसकी  बताती  रही  रात भर ।।

जिंदगी उसके ही हाथ में सौंप दी,
"आस"को आजमाती रही रात भर।।

कौशल कुमार पाण्डेय "आस"

ग़ज़ल 7
बह्र - 212  222  222  12
काफ़िया - आनी
रदीफ़ -  हो गयी

जिंदगी तुम बिन दीवानी हो गयी ।
आँख  मेरी  पानी  पानी हो  गयी ।।

याद में कटता नहीं जीवन मेरा,
व्यर्थ विरहा की कहानी हो गयी।।

शाम तक मैं राह को तकता रहा,
साँझ ढ़लते निगहेबानी हो गयी।।

आज तक समझा न तेरी बेरुखी,
किस तरह ये मेहरबानी  हो गयी।।

मैं समझता था जिसे अपना सनम,
"आस" गैरों की जवानी हो गयी।।

कौशल कुमार पाण्डेय "आस"

ग़ज़ल 8
बह्र - 22   22    22    22
काफिया-  आन
रदीफ -    नहीं हैं

सच्चे सब इंसान नहीं  हैं ।
मानव है भगवान नहीं हैं ।।

गीत  सुना  देना न काफी ।
झूठ कहा अरमान नहीं हैं ।।

दिल की बातें छुपा रहे हो ।
हम  बच्चे  नादान नहीं हैं ।।

सच्ची बातें कह दो दिलवर ।
हम  कोई  मेहमान  नहीं हैं ।।

"आस"  लगायी  है तुमसे ही ।
मत कहना एक जान नहीं हैं ।।

कौशल कुमार पाण्डेय "आस"



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