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शनिवार, 11 अगस्त 2018

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह से अकरम खान की कुछ ग़ज़लें

 ग़ज़ल 1
122  122   122   122

मुहब्बत  भी  करके मुहब्बत न जानी ।
मुहब्बत में निकली वो कितनी सयानी ।।

दिवाना बनाया हैं उसने भी मुझको ।
दिवाना  बनाया  न  बनती  दिवानी ।।

मेरे दिल के जख्मों को देखे तो कोई,
ज़फा ही ज़फा है उसी की निशानी।

वो लैला नहीं थी तो मजनूँ बनू क्यों,
समझ ही न पाया ये दिल भी कहानी।

हैं दिल में भी नफरत के शोले सुलगते,
है दुनियां के दिल में भी उल्फत जगानी।

जरूरी  नहीं  के  जवानी  में  ही  हो,
है बचपन बुढापा भी इसकी रबानी ।।

न समझा जो इसको तो मिट ही गया वो,
बिना इसके सबको पडी़ मात खानी।

अज़ब हैं रिवायत जमाने में देखो ।
दिवानों को मारो न मारो ज़वानी।।

मेरा मुल्क दुनियां में आगे रहा है ।
हमें और है इसकी इज्ज़त बढा़नी ।।

कहीं आज मातम कहीं पर खुशी है ।
मिटी तो नही हैं जो चाहीं मिटानी ।।

निशाना बना है मुहब्बत में 'अक़रम',
मुहब्बत में फिर भी मिली न निशानी।

अक़रम खान

ग़ज़ल 2
122      122    121  12
       
वफा  उनसे  माँगी  वफा  न  मिली ।
खता  हमने  ढूंढी  खता  न  मिली।।

बहुत  कच्चे  धागों  से  रिश्ते  बधें ।
रिश्तों  से  हमें  तो  सदा  न  मिली ।।
 
होठों  पे  तबस्सुम  हैं  उसके  यूं तो ।
मगर उस हुस्न को वो  अदा न मिली  ।।

 नहीं  कोई  ऐसा  जमाने  में  अब ।
जमाने  में  जिसको  दगा  न  मिली ।।

बना  हूँ  मैं  मुजरिम अदब जो किया ।
मेरे  इस  मरज  को  दवा  न  मिली ।।

मुझे  लग  रहा  था  वो  होगी  खफा ।
मगर  आज  तक  वो  खफा  न  मिली ।।

गिरेवाँ  में अपने झाँके जमाना,
सजा़वर को क्यों कर सजा न मिली ।

यूं नफरत मिटाने की कोशिशें की ।
मुहब्बत की हमको घटा न मिली ।।

अक़रम खान

ग़ज़ल 3
1222    1222   1222  1222

नहीं हैवान मुश्किल है, नहीं शैतान मुश्किल है ।
जमाने में जरा ढूढों भले इंसान मुश्किल है ।।

शहर में बन रही हैं रोज ही पत्थर की दीवारें ।
मुअज़्ज़िन की पहुँच आजा़न मुश्किल है।

खुदा क्यों बन रहा है तू खुदा तेरा भी मालिक है ।
जिसे चाहें मिटा डाले उसे सब कुछ ये हासिल है।

कश्ती साहिल पे आकर डूब ही जाती है दोस्तों ।
कहाँ मालूम होता है जरा सा दूर  साहिल है।।

जो सच्ची बात पर हर वक्त लड़ता औ' झगड़ता है ।
जमाने में वही इंसान देखो सबसे जाहिल है ।।

जहन्नुम क्यों बना डाला ये तो दुनियां की जन्नत थी ।
ये मेरा पहले भी दिल था ये मेरा आज भी दिल है ।।

अजी आतंक ने मुस्लिम का सर नीचा किया अकरम ।
अमन  को  चाहने  वाला  न  कोई  इसमें  शामिल  है ।।

अकरम खान

ग़ज़ल 4
212   212    212   212 

शान महफिल में अपनी जमाया करो ।
गीत  मेरे  तुम  अब  गुनगुनाया करो ।।

हम मिलेगें सनम शाम को आज  पर ।
ज़ाम आंखो से गर तुम पिलाया करो ।।

सब  गिले  दूर  हो जाय तुमसे सुनो ।
ग़र नज़र से नज़र तुम मिलाया करो ।।

उसकी यादों को दिल में बसाया मैंने ।
जख़्म  यूँ  दिल  के मत दुखाया करो ।।

छोटी सी बातों पर तुम जो नाराज हो ।
यूँ  सितम  दिल पे  मेरे , न ढाया करो ।।

अकरम खान

ग़ज़ल 5
2122     122    122 12

चोट  खाती   रही   मुस्कराती  रही ।
दूध दुनियां को अपना पिलाती रही ।।

फब्तियां  कस  रहा  था  जमाना मगर ।
फब्तियों  को  गले  वो  लगाती  रही ।।

बहन बेटी बनी पत्नी बन के वो माँ ।
सारे रिश्ते मुकम्मल निभाती रही ।।

कितने धोखे दिये हमने कोढे़ दिये ।
सारे जुल्मों के सदमें उठाती रही ।।

जुल्म सहने की आदत ने बुजदिल किया ।
फिर भी जिंदादिली वो बढा़ती रही ।।

पेट  में  ही  इसे  मारता  नादाँ  है ।
फिर भी खुद को तसल्ली दिलाती रही ।।

आँख को बंद करके जमाना सुने ।
बेबसी वो सभी को सुनाती रही ।।

देके ममता को वो खा़क में मिल गयी ।
पर जमाने का गुलशन सजाती रही ।।

ना  धुँआ  ही  उठा सांस गुम हो गई ।
अपनी साँसों को 'अकरम' दबाती रही।।


ग़ज़ल 6
212×4
चाँदनी   रात   भर  जग  मगाती  रही ।
फिर  बहारों  के  सपनें  सजाती  रही ।।
राह  ए  इश्क  में  तो  मिली ठोकरें ।
जिंदगी  हर  कदम आजमाती रही ।।
हिज्र  की  रातें  भी आँखों  में काटी हैं ।
जिंदगी   क्यूँ   मुझे   ही  रुलाती  रही ।।
जख्म  दामन  मे  अपने  समेंटें  हुऐ ।
जिंदगी   तीरगी  को   मिटाती  रही ।।
बर्षा पानी छायी बदली यूँ रात भर ।
फिर तेरी याद मुझको सताती रही ।।


अकरम 7 
 212×4
हम सनम तुझमें ही आज खोने लगे ।
बन गये हमसफर, साथ चलने  लगे ।।

जब से तुम जिंदगी में आयी हो सनम ।
प्यार  की  राहों  में  फूल  खिलने लगे ।।

जो मुझे साथ तेरा मिला तब से ही ।
फासले किस कदर देख घटने लगे ।।

अपनी भी जिंदगी खूबसूरत होगी ।
इश्क  में  यार के हम तो होने लगे ।।

संग चलने का वादा अभी कर लिया ।
देखकर लोग  हमको वो जलने लगे ।।


 8

122  122  122  12 
खुशियों भरी थी हर जिदंगी

वो मिलकर जुदा तो नहीं हो गया ।
सनम  वेवफा  तो  नही  हो  गया ।।

जाने कौन सी बात दिल को लगी ।
सनम गमज़दा तो  नही  हो  गया ।।

मैं सच बोला था और वो शक्की थे ।
कहीं  फासला  तो  नही  हो  गया ।।

 किसी  बात पर  वो  मुझे  छोडकर ।
 कहीं  वो  खफा  तो  नहीं  हो गया ।।

पराये   हुए   अपने   ऐसा   लगा ।
कहीं  हादसा  तो  नही  हो  गया ।।

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