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रविवार, 19 अगस्त 2018

कुछ ख्वाहिशें थी मेरी , जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी । - जसवंत लाल

कुछ ख्वाहिशें थी मेरी , 
जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।
कुछ अरमानों की झोपड़िया , 
मजबूरियों से ढ़ह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

बचपन में देखे थे मैने , 
बड़े-बड़े और प्यारे सपने ।
लेकिन जवानी में आते-आते ,
सपनों की दुनिया बह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

कोशिस बहुत की थी मैने ,
बड़ा अफसर बन जाने की ।
वक्त के आगे एक ना चली ,
बस घर की जिम्मेदारी रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

सपने में गड़गड़ाहट हुई ,
उम्मीदों की बिजलियां भी चमकी ।
लेकिन किस्मत की बारिश से जमीन ,
अंदर से सुखी रह गयी  ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

कभी थी मरने की ख्वाहिश ,
कभी होती जीने की इच्छा ।
इस जिंदगी की कशमकश में ,
नैया , डूबती-डूबती रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

वो दिन भी देखे थे मैंने , 
जब यमराज मेरे पास से गुजरे ।
शायद कुछ उपकार किये थे हमने ,
तभी फिर से , ये जिंदगी रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

छोटी सी उम्र है लेकिन ,
छाछ , फूँक-फूँक कर पीता हूँ ।
तजुर्बों से आया  फ़न लेकिन ,
ख्वाहिश , अधूरी रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

सूट-बूट और पीए-सीए ,
सरकारी गाड़ी की ख्वाहिश ।
लेकिन किस्मत का खेल निराला ,
कलम हाथ में रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

थाम ले , "जसवंत" तू कलम ,
और निरन्तर लिखता जा ।
देख फिर सुहाने सपने  ,
ये कलम मुझसे कह रही ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।
                    जसवंत लाल खटीक
                   
                    रतना का गुड़ा ,देवगढ़


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