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सोमवार, 2 मार्च 2020

निदा_फ़ाज़ली साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। खुशी है कि यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज पेश कर रहे हैं #निदा_फ़ाज़ली साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
निदा फ़ाज़ली साहब ( 1938 - 2016 ) उर्दू-अदब के बेहतरीन और संजीदा शायर थे, लेकिन उनकी शायरी की भाषा आम हिंदुस्तानी ज़बान थी। यही उनकी पॉपलरटी की ख़ास वजह थी।
उनकी कुछ खूबसूरत ग़ज़लें और कुछ शे'र देखिये ...

#ग़ज़लें

/ 01 /

अपना ग़म ले के कहीं और न जाया जाए
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए

जिन चराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं
उन चराग़ों को हवाओं से बचाया जाए

ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन अभी औरों को सताया जाए

बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए

क्या हुआ शहर को कुछ भी तो दिखाई दे कहीं
यूँ किया जाए कभी ख़ुद को रुलाया जाए

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये

/ 02 /

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता

कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हम ज़बाँ नहीं मिलता

चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

/ 03 /

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है

अच्छा-सा कोई मौसम तन्हा-सा कोई आलम
हर वक़्त का रोना तो बेकार का रोना है

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है

ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है

आवारा मिज़ाजी ने फैला दिया आंगन को
आकाश की चादर है धरती का बिछौना है

#चन्द_शेर_और_हाज़िर_हैं ...

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना

एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक
जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शमा जलाने से रही

अब किसी से भी शिकायत न रही
जाने किस किस से गिला था पहले

कहता है कोई कुछ तो समझता है कोई कुछ
लफ़्ज़ों से जुदा हो गए लफ़्ज़ों के मआनी

ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो

कुछ लोग यूँ ही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं
हर एक से अपनी भी तबीअ'त नहीं मिलती

बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया

बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता

नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए
इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई

हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए
कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाये

यक़ीन चाँद पे सूरज में ऐतबार भी रख
मगर निगाह में थोड़ा सा इंतज़ार भी रख

ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते-मिलाते रहिये

कुछ तबीअत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत न हुई
जिस को चाहा उसे अपना न सकेजो मिला उस से मोहब्बत न हुई

ये शहर है कि नुमाइश लगी हुई है कोई
जो आदमी भी मिला बन के इश्तिहार मिला

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

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