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सोमवार, 30 मार्च 2020

ग़ज़ल :- ये ख़्वाहिश न जाने कहां ले चली - राजश्री तिवारी पाण्डे

ग़ज़ल 1
काफ़िया - ईर
रदीफ़ - का

हर कोई मालिक बना है रौब है जागीर का ।
सब कहें मैं ही सिकंदर हूँ यहाँ तक़दीर का ।।

झूठ  का  देखो  सभी  ने पैरहन  पहना  हुआ ।
शौक भी रखने लगें हैं आजकल शमशीर का ।।

मौत पर किस का चला बस जानते हैं सब यहाँ ।
हार ही जाता है आखिर हर क़दम तदबीर का ।।


यूँ  कुचलते  हैं  गरीबों  को  ज़माने  के  सितम ।
ज्यों खुदा ने ही लिखा हो फलसफ़ा तहरीर का ।।

कुछ दुआएँ दो हमें की हम भी आदम जात है ।
आप जैसा शौक हम को भी नहीं जंजीर का ।।

राजश्री तिवारी पांडे

ग़ज़ल 2
बह्र- 1212    2122   2212    2
काफिया - ई
रदीफ - दे दे

बुझी बुझी सी निगाहों को रौशनी दे दे  ।
उदासियों से घिरे दिल को इक ख़ुशी दे दे ।।

कभी ये तेरी  नज़र से जहान देखा था ।
उसी नज़र को सनम फिर से रहबरी  दे दे ।।

न कोई फ़िक्र न चिंता थी तेरे होते हुये ।
उसी भरोसे की तू मुझको वापसी दे दे ।।

जवाब आने तलक इंतजार कर लेंगे ।
जवाब का तू भरोसा सही सही दे दे  ।।

मैं जिंदगी के उसी मोड पर हूँ अफसुर्दा ।
थकी  निगाह मेरी आके ताजगी दे दे ।।

मैं तुझसे मिल के बिछड़ने की सोच ही न सकूँ ।
मेरे   सनम   तू  मुझे   फिर   से  बेबसी  दे दे ।।

मैं तेरे साथ परिंदों सी फिर उड़ान भरूँ ।
कसम तुझे है  सनम फिर वो आशिकी दे दे ।।

राजश्री तिवारी पांडे

ग़ज़ल 3
बह्र - 122   122    122 12
काफिया - आ
रदीफ - कर गए

लो दिल जिस्म से यूं जुदा कर गए ।
मुहब्बत में खुद को खुदा कर गए ।।

ज़माने ने समझा था का़तिल जिसे ।
उसी  को  गले  हम  लगा  कर गए ।।

ग़ज़ल लिख रही थी गुलाबों की मैं ।
मगर   ख्वाब  कांटा चुभा कर गए ।।

बड़ी खुश्क सी ज़िंदगी जा रही ।
मेरे अश्क मुझको भिगा कर गए ।।

पशेमाँ  नहीं दिल दुखा कर मेरा ।
मुझे  मेरे  अपने  रुला  कर गए ।।

ये ख़्वाहिश न जाने कहां ले चली ।
हवस में ही कितनी  ख़ता कर गये ।।

जिन्होंने मुहब्बत की कलमें जड़ीं ।
वो दश्त-ए- मुहब्बत जला कर गए ।।

सँवरना सिखाया नहीं प्यार ने ।
 हमें तो सनम बावरा कर गए ।।

ये उनकी सियासत का अंदाज़ है ।
मेरे   ग़म  में  आँसू बहा कर गए ।।

ये   जो   मोजिज़े  हो रहे अब यहाँ  ।
उसी  सच का हम सामना कर गए ।।

राजश्री तिवारी पांडे

ग़ज़ल 4
बह्र - 221   212  1222     212
काफ़िया - आनी
रदीफ़ - तेरे लिए

हमने लिखी लहू से कहानी तेरे लिए  ।
बर्बाद कर ली अपनी जवानी तेरे लिए ।।

आब- ए- हयात  मेरे न आँसू ही बन सके ।
ठहरी नदी का बस था वो पानी तेरे लिए ।।

मेरी तड़प कराह , कभी छटपटाहटें ।
तस्वीर बन टंगीं ये निशानी तेरे लिए ।।

चारों तरफ उजाला बिखेरा सनम अभी  ।
खुशियां   भरी  हरेक  रवानी  तेरे  लिए ।।

चाहत तुम्हारी देखी है हर  बार ही नयी ।
मैं   याद   बन  गई  थी पुरानी तेरे लिए ।।

राजश्री तिवारी पांडे


ग़ज़ल 5
बह्र - 212   212  212   212
काफ़िया - अन
रदीफ़ - की हमें

याद  आती  नहीं  बालपन  की हमें ।
है ख़बर ही कहाँ अपने मन की हमें ।।

ज़िम्मेदारी  निभानी  है  घरबार की ।
फ़िक्र करनी है घर के रतन की हमें ।।

खार   के  बीच  भी फूल हँसते दिखे ।
टीस दिखती नहीं क्यों सुमन की हमें ।।

सूखते   जा रहे  फूल कलियाँ सभी ।
फ़िक्र होती नहीं क्यों चमन की हमें ।।

प्रण   लिया है  हमने यही आज से ।
अब  मिटानी जड़े हैं पतन की हमें ।।

जिंदगी   का   सबब   भूलने  से लगे ।
है ज़रूरत किसी इक किरन की हमें ।।

लुट रही लाज बाज़ार में रात दिन ।
लाज आती नहीं बाँकपन की हमें ।।

कट रहे सर शहीदों के न ला सके ।
आन अब है बचानी वतन की हमें ।।

बन जा महबूब मिट्टी को माशूका कर ।
दिल में रखनी  मुहब्बत वतन की हमें  ।।

हो  तिरंगा  अगर  पैरहन  के  लिए ।
फ़िक्र तब तो नहीं हैं बदन की हमें ।।

राजश्री तिवारी पांडे

ग़ज़ल 6
बह्र-  212    212    1222
काफ़िया - आई
रदीफ़ - है

चाँदनी    रात    मुस्कुराई     है  ।
इश्क  औ  हुस्न   की  सगाई है ।।

तक रहे होंगे मुझको छुप-छुप कर ।
उनकी  ख़ुश्बू  फ़िज़ा  में  छाई  है ।।

सुब्ह  बीती न जाने कब कैसे ।
शाम मुश्किल से झिलमिलाई है।।

बर्फ़ होने लगी थीं यह आँखें ।
उनके आने से जान आई है ।।

हिज्र के,रात दिन, हुये रुखसत ।
अब  मसर्रत   हयात   लाई  है।।

आज तशरीफ चांद ले लाया ।
चांदनी  ने  ज़िया  लुटाई  है ।।

प्यार पर तुमने ऐ जहाँ वालों ।
क्यों  हमेशा  छुरी  चलाई  है ।।

राजश्री ने भी कितनी मुश्किल से ।
प्यार  की  दुनिया  इक  बसाई है।।

राजश्री तिवारी पांडे

ग़ज़ल 7
बह्र - 122    122  122  122
काफ़िया - आरी
रदीफ़ - ऩज़र है

बड़ी  खूबसूरत  तुम्हारी नज़र है ।
नचाती है मुझको मदारी नज़र है ।।

पड़ीं जिस परिंदे पे तेरी निगाहें  ।
फँसा जाल में , वो शिकारी नज़र है ।।

पड़े जो जिगर पे तो बचना न मुमकिन ।
बड़ी तेज पैनी है आरी नज़र है ।।

बयाँ क्या करूँ मैं तुम्हारी नज़र का  ।
पड़ी जिसपे उसपे ही भारी नज़र है ।।

तुम्हें देखकर चैन मिलता कहाँ हैं ।
कसक छोड़ जाती दुधारी नज़र है ।।

सवालों में घिर के जले आग सी जो ।
ये किस की मुहब्बत की मारी नज़र है ।।

गुमां हो रहा है अदाओं के रुख से ।
ख़ुदा ने  भी तेरी उतारी नज़र है ।।

तुम्हें चुन के लाए हैं सारे जहां से ।
कहो तेज़ कितनी हमारी नज़र है ।।

राजश्री तिवारी पाण्डे

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