हिंदुस्तानी-ग़ज़ल अलग से साहित्य की कोई बिधा नहीं है बल्कि उसमें हिन्दी-ऊर्दू की वे सभी ग़ज़लें शामिल हैं, जो आम बोलचाल की आसान हिंदुस्तानी ज़बान में कहीं गयीं हैं और उन ग़ज़लों की तहज़ीब हिन्दुस्तानी है।
आज जहाँ लोग भाषा और सम्प्रदाय में ख़ुद को बाँटे हुये बैठे हैं, वहाँ ये " ग़ज़ल " ही है जो सदियों से समाज को जोड़ने का काम कर रही है।
ग़ज़ल लोगों की ज़बाँ पर रहते-रहते, कब सद्भावना की मिसाल बन गयी किसी को पता ही नहीं चला। वक़्त ने चलते-चलते जब अपने अतीत को अदब के आइने में देखा तो उसे अहसास हुआ है कि ग़ज़ल सिर्फ़ साहित्य की विधा ही नहीं है, बल्कि समाज के हर वर्ग और हर उम्र के, लोगों के दिलों की धड़कन भी है।
दो समकालीन उर्दू और हिन्दी ग़ज़लकारों के शे'र देखिये-
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झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये,
और मैं था कि सच बोलता रह गया।
-प्रो. वसीम बरेलवी
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दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए,
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिये।
- डॉ. कुँअर बैचैन
अब अगर ये दोनों शे'र देवनागरी लिपि की जगह फ़ारसी लिपि में लिख दिए जायें, तो भी किसी शे'र में कुछ भी नहीं बदलेगा। क्योंकि लिपि सदैव ही किसी भाषा की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं करती। जैसे कि जब हम सैलफोन पर हिन्दी का कोई मैसेज रोमन लिपि में टाइप करते हैं तो वह मैसेज रोमन लिपि में टाइप होने के बाबजूद भी अंग्रेजी भाषा का नहीं कहलाता, वह हिन्दी-भाषा का ही कहलाएगा। अतः ये शे'र ज़बान के लिहाज से उर्दू-अदब के भी हैं और हिन्दी-साहित्य के भी हैं।
... अब चलो क्रिया-शब्दों (Verbs) से देखते हैं, क्योंकि किसी भाषा के क्रियापद उसके अपने होते हैं और वे भाषा को भी प्रमाणित करते हैं। जबकि संज्ञापदों (Noun) की स्थिति लिपि वाली ही होती है, इसलिए यहाँ उसकी चर्चा करने का कोई फ़ायदा नहीं है। अब ग़ौर करने वाली बात यह है कि हिन्दी और उर्दू के क्रियापद एक जैसे ही होते हैं। इसलिये इन शेरों में क्रियापद भी एक जैसे ही हैं। अर्थात यह अशआर हिन्दी-उर्दू दोनों के ही क़रीब हैं।
चलिए अब भाषा के लिहाज से देख लेते हैं, तो दोनों शेरों में न तो मुश्किल उर्दू/फ़ारसी के अल्फाज़ हैं और न क्लिष्ट हिन्दी/संस्कृतनिष्ठ शब्द हैं। अतः यह दोनों शे'र मिश्रित हिन्दी-उर्दू वाली आसान ज़बान में हैं। जो हम लोग सुबह से लेकर शाम तक बोलते हैं । ....जो सही मायने में हिंदुस्तानी ज़बान है। हिंदुस्तानी ज़बान में हिन्दी-उर्दू के अलावा भारत में बोली जाने वाली उन सभी भाषाओं और बोलियों के शब्द शामिल हैं, जो चलन में आ गये हैं और लोग बिना किसी भाषाई झमेले के बोलते हैं।
भाषाई कट्टरता किसी भी भाषा को संकीर्ण कर देती है जबकि उदारता और सहिष्णुता भाषा को समृद्ध बनाती है। किसी भाषा या विधा को किसी जाति, क्षेत्र या धर्म की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। लेकिन इस स्थिति में एक चीज़ समझने की है, वो है संस्कृति। जिसकी विशेष भूमिका होती है,क्योंकि जब कोई विधा या शब्द दूसरी संस्कृति से आते है, तो हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि उस विधा या शब्द को उसके मूल रूप में ही सम्मान दें, फिर चाहे अरूज़ (व्याकरण) का मामला जो या तलफ़्फ़ुज़ (उच्चारण) का।
शुक्र है कि हिन्दी और उर्दू भाषाओं के बीच कोई भाषाई कट्टरता या भेदभाव नहीं है। दोनों सदियों से एक दूसरे के साथ हैं और यक़ीनन हर दिन और क़रीब आ रहीं हैं।
यूँ तो ग़ज़ल को ग़ज़ल कहना ही पर्याप्त है। ग़ज़ल के साथ कुछ भी जोड़ने की ज़रूरत नहीं है लेकिन क्या करें ग़ज़ल के साथ पहले से ही उर्दू और हिन्दी विशेषण जुड़े हुये हैं। इसलिये हम ज़बान के नजरिये से हिंदुस्तानी ग़ज़ल कह कर, हिन्दी और उर्दू ग़ज़ल के बीच की खाई पाट कर न केवल भाषाई सदभावना क़ायम करना चाहते हैं वल्कि ग़ज़ल को और भी ज़्यादा लोकप्रिय बनाना चाहते हैं। क्योंकि शायरी सुख-दुःख, आशा-निराशा हर हाल में सुकून देती है।
अब कुछ और बिंदुओं पर प्रकाश डालने से पहले भारत में ग़ज़ल के विकास पर मुख़्तसर सी चर्चा करते हैं-
【 1.】 ग़ज़ल
ग़ज़ल की शुरुआत अरब में हुई थी। ग़ज़ल का मतलब होता था- महबूब से बातचीत करना। यही कारण है कि आज भी ग़ज़ल लिखी नहीं बल्कि कही जाती है। 10 वीं शताब्दी में, विशेष रूप से ईरान और उसके आसपास फ़ारसी भाषा में खूब ग़ज़लें कहीं गयीं, वास्तव में ग़ज़ल को यहीं से पहचान मिली।
ग़ज़ल का अपना एक अरूज़ (व्याकरण) होता था, जिसके अंतर्गत निर्धारित बहरों (छन्दों) में एक ही वज़्न में सभी शे'र कहे जाते थे। साथ ही ग़ज़ल की अपनी एक तहज़ीब (संस्कृति) भी होती थी। ग़ज़ल का वो अरूज़ आज भी जस का तस प्रयोग होता है, चाहे ग़ज़ल किसी भी भाषा में क्यों न कही जाये। ऐसा न करना ग़ज़ल की सदियों पुरानी भव्य परम्परा की तौहीन मानी जाती है।
【 2. 】 ऊर्दू ग़ज़ल
भारत में 12 वीं शताब्दी में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना के बाद, साहित्यिक और सांस्कृतिक सौहार्द के रूप में ग़ज़ल भारत में आई और फिर वो हमेशा के लिए यहीं की होकर रह गयी। दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत में ग़ज़ल को ज़्यादा लोकप्रियता मिली। दिल्ली और लखनऊ के रूप में उसे दो ऐसे शायरी के गढ़ मिले जिन्होंने ऊर्दू अदब को तमाम महान शायर दिये। भारत में ग़ज़ल फ़ारसी से उर्दू में आयी इसीलिए फ़ारसी का प्रभाव उस पर हमेशा बना रहा। उर्दू ग़ज़ल नें फ़ारसी के परम्परागत अरूज़ को न केवल ज्यों का त्यों स्वीकार किया बल्कि उसे ख़ासा सम्मान भी दिया। लेकिन बाद में ग़ज़ल की मूल बहरों से बनीं, कुछ नई बहरें भी उर्दू ग़ज़ल में प्रचलित हो गयीं। आज उर्दू-ग़ज़ल के दीवान देवनागरी लिपि में भी प्रकाशित हो रहे हैं, जो भविष्य के लिये सुखद संकेत है।
【 3.】 हिन्दी ग़ज़ल
भारत में इमरजेंसी के दौरान 1975 में दुष्यन्त कुमार के ग़ज़ल-संग्रह ' साये में धूप ' के प्रकाशन के बाद हिन्दी में ग़ज़ल की परम्परा पड़ी। यहाँ हम अमीर ख़ुसरो, कबीर, निराला आदि का ज़िक्र हिंदी ग़ज़ल के जनक के रूप में नहीं कर रहे हैं। वास्तव में हिंदी-ग़ज़ल को धरातल पर आकार देने का क्रेडिट दुष्यंत कुमार को ही जाता है।
उर्दू से जब ग़ज़ल हिन्दी में आयी तो उसकी भाषा मिली-जुली उर्दू-हिन्दी थी जबकि लिपि देवनागरी थी, साथ ही उसमें नुक़्ते का चलन भी था। हिंदी ग़ज़ल ने भी फ़ारसी-उर्दू का ही शिल्प अपनाया। निःसन्देह हिन्दी-ग़ज़ल ने नये प्रतीक, बिम्ब और समसामायिक विषयों को छूकर उसे ऊँचाई प्रदान की और बहुत ही कम समय में उम्मीद से ज़्यादा ख्याति अर्जित की। इस बीच जब हिन्दी में ग़ज़ल कहने वालों की तादाद बढ़ी तो " ग़-ज़-ल " को " ग-ज-ल " बोलने वाले भी ग़ज़ल कहने लगे। कुछ लोगों ने शिल्प का कोई ध्यान नहीं रखा, तो कुछ ने हिन्दी ग़ज़ल के नाम पर संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग किया, जो ग़ज़ल में सहज नहीं थे और फ़ारसी-उर्दू की बहरों में भी आसानी से फिट नहीं होते थे। अतः ग़ज़लें बहर से ख़ारिज़ होने लगीं। ऐसे में जिस हिन्दी ग़ज़ल को लोग गंभीरता से लेने लगे थे, वहाँ हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो गयी। अतः हिन्दी ग़ज़ल वालों को व्याकरण और भाषा के प्रति सजग रहने की आवश्यकता है।
【 4.】 हिन्दुस्तानी ग़ज़ल
हिन्दी/उर्दू मिश्रित आसान ज़बान में, परम्परागत शिल्प की कसौटी पर, हिन्दुस्तानी परिवेश में कही गयी ग़ज़ल को हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहते हैं।
इन हिन्दुस्तानी ग़ज़लों को समझने के लिये किसी डिक्शनरी या अन्य किसी माध्यम की ज़रूरत नहीं होती है। ये सीधे दिल में उतरतीं हैं और ज़ुबान पर चढ़ जातीं हैं।
हिंदी और उर्दू सहित तमाम भाषाओं का साहित्य इस बात का गवाह है, कि उस भाषा की वही रचनाएँ कालजयी बनीं जो उस काल में आसान ज़बान में कहीं गयीं।
...तो आइये ! अब हिन्दुस्तानी ग़ज़ल के सफ़र में हसरत जयपुरी साहब के इस प्यारे से सन्देश के साथ आगे बढ़ते हैं ...
मुसाफिर हैं हम तो चले जा रहे हैं
बड़ा ही सुहाना ग़ज़ल का सफ़र है
आलेख
#डॉ_निशान्त_असीम
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