हिंदी साहित्य वैभव

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मंगलवार, 31 मार्च 2020

6:33 pm

रणछोड़ : - बार-बार घरों से निकलने के आदी लोगो - आदित्य तोमर

#An_appeal_to_be_safe_from_Corona

बार-बार घरों से निकलने के आदी लोगो,
थोड़े दिनों हाथ से छुड़ाके रखो हाथ को.
प्रिय परिजनों की जो प्राण रक्षा चाहिए तो,
भूल जाओ बाहर के साथियों के साथ को.
विधि के विधान का नियत काल आने तक,
झुकाये ही रखना है कुछ दिनों माथ को.
नव माह गर्भजून की गुफा में तपके ही,
मार सकीं वैष्णवी भी वीर भैरवनाथ को.
-
काल वेला जब तक आती नहीं तब तक,
तिनका भी सूर्य के समक्ष अड़ जाता है.
सूरमाओं से भरी विशाल पाण्डु सेना से ज्यों,
एक जयद्रथ ही अकेला लड़ जाता है.
काल बना देता सव्यसाची को बृहन्नला तो,
सारा अर्थ पुरुषार्थ का बिगड़ जाता है.
ऐसे काल के समक्ष धीरता से होगा काम,
वीरता दिखाना सदा भारी पड़ जाता है.
-
युद्ध-बुद्ध दोनों के विशुद्ध महारथी होके,
नीतिपथ एक नया जोड़ दिया कृष्ण ने.
मानवों को मानक नया दिखाने हेतु क्या -
कथानक अचानक ही मोड़ दिया कृष्ण ने.
लड़-मरना ही युद्धनीति नहीं होती, कह -
अभिमान वीरता का तोड़ दिया कृष्ण ने.
मेरे हाथों काल कालयवन का लिखा नहीं,
यही सोचकर रण छोड़ दिया कृष्ण ने.
-..... ..... .... ..... ..... To be continued.
©
आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ (उ.प्र.)

11:23 am

याद तुम्हें बस दिन भर करना कितना अच्छा होता था - उज्जवल वशिष्ठ

याद तुम्हें बस दिन भर करना कितना अच्छा होता था।
सारी  दुनिया  झूठी  हो  पर  प्यार तो  सच्चा होता था।

अब दुनिया भी कदमों में हो  फिर भी सहमा रहता हूँ,
मेरी हर इक‌ उलझन का हल  तुमसे मिलना होता था।

आकर  मेरी  तन्हाई   के   किस्से  सब  पढ़  लेते  थे,
उसकी  यादों का  सामां  कमरे में  बिखरा होता था।

आज  अगर  इक ठुकरा दे  तो  दूजे से जा मिलते हैं,
पहले आख़िर तक बस इक साये का पीछा होता था।

मैं छत से  कूदा था  तो इसमें  मेरी  क्या  गलती  थी,
जैसा   जैसा  तुम  कहते  थे   वैसा  वैसा  होता  था।

ख़ून के रिश्तों  में भी अब  अपना  कोई हमदर्द नहीं,
पहले  अपना कह  देने से  ग़ैर भी  अपना होता था।

तुमको पाकर  ग़ज़लें कहना उज्जवल को आसान हुआ,
तुमसे  पहले तो हमसे मुश्किल से मिसरा होता था।

©  Ujjawal Vashishtha
11:20 am

ग़ज़ल :- मुहब्बत में बड़ा छोटा नहीं है - उज्ज्वल वशिष्ठ

मुहब्बत  में  बड़ा  छोटा  नहीं है।
मगर  ऐसा  कभी  होता  नहीं है।

अभी कैसे कहें हम बात दिल की,
अभी तो नाम भी पूँछा नहीं है।

न जाने  कब  बहा ले जायें आँसू,
किसी के बस में ये दरिया नहीं है।

अभी आसान है मुझको‌ डुबोना,
यकीं का पुल अभी टूटा नहीं है।

शजर सारे बरहना जिस्म क्यों हैं,
अभी मौसम तो पतझड़ का नहीं है।

तुम्हारे हाथ भी हैं आज खाली,
हमारे पास भी‌ काँसा नहीं है।

तुम्हारे शहर में मैं अजनबी हूँ,
यहाँ मुझको‌ कोई ख़तरा नहीं है।

मैं करता रहता हूँ ख़िदमत अदब की,
ये  मेरा  शौक  है  पेशा‌ नहीं  है।

© Ujjawal vasishth


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6:58 am

ग़ज़ल:- तुम्हें जिन्दगी का सहारा बनाकर - डाॅ.महालक्ष्मी सक्सेना 'मेधा'

बहर - 122   122   122   122
काफ़िया - आ
रदीफ़ - आकर

तुम्हें  जिन्दगी  का   सहारा  बनाकर।
समझ इश्क आया है ये दिल लगाकर।।

नही  दूर  दिल  से  मगर  ये  बता  दो ,
भला मौन  क्यूँ  हो मुहब्बत  जगाकर।।

सुहानी  डगर  का   सुहाना  सफ़र  है,
कभी  दूर  जाना न  सपने  दिखाकर।।

 निभाऊँ सदा हर कसम अब मुहब्बत,
 सनम  देख  लेना  कभी  आजमाकर।।

न बंगला, न गाड़ी की ख्वाहिश है 'मेधा',
रखो मुझको दुल्हन सा,दिल में सजाकर।।

डाॅ.महालक्ष्मी सक्सेना 'मेधा'
मैनपुरी
6:54 am

जहाँ ने ग़मों से उबारा नहीं है - रचना उनियाल

१२२ १२२ १२२ १२२

जहाँ    ने   ग़मों  से   उबारा   नहीं  है,
मिला  दोस्ती   का   सहारा   नहीं  है।

गया नाम लिखकर यहाँ एक आशिक़,
हुआ  कैश  सा  इक कुवाँरा  नहीं  है।

बता  ग़लतियों को  दिखाये  माँ  राहें,
बिना  बात   माने    गुज़ारा  नहीं   है।

अगर तू है काबिल पा जायेगा मंज़िल,
कभी  हिम्मतों    से  तू  हारा  नहीं  है।

कहे दिल से “रचना” मुहब्बत की बातें,
लिखे   नफ़रतें    वो  गवारा  नहीं   है।

रचना उनियाल
३१-३-२०

सोमवार, 30 मार्च 2020

7:33 am

ग़ज़ल :- तुम्हें जिन्दगी का सहारा बनाकर - महालक्ष्मी सक्सेना 'मेधा'

बहर - 122   122   122   122
काफ़िया - आ
रदीफ़ - आकर

तुम्हें  जिन्दगी  का   सहारा  बनाकर।
समझ इश्क आया है ये दिल लगाकर।।

नही  दूर  दिल  से  मगर  ये  बता  दो ,
भला मौन  क्यूँ  हो मुहब्बत  जगाकर।।

सुहानी  डगर  का   सुहाना  सफ़र  है,
कभी  दूर  जाना न  सपने  दिखाकर।।

 निभाऊँ सदा हर कसम अब मुहब्बत,
 सनम  देख  लेना  कभी  आजमाकर।।

न बंगला, न गाड़ी की ख्वाहिश है 'मेधा',
रखो मुझको दुल्हन सा,दिल में सजाकर।।

डाॅ.महालक्ष्मी सक्सेना 'मेधा'
मैनपुरी
7:29 am

ग़ज़ल:- बैर दुनिया में बढ़ाना छोड़ दो - के०आर०कुशवाह 'हंस'

बहर  : 2122,2122,212 
क़ाफ़िया  :  आना
रदीफ़  :  छोड़ दो।

बैर  दुनिया  में  बढ़ाना  छोड़  दो ।
जाम नफरत का पिलाना छोड़ दो ।।

राह  जीवन  की  कठिन  कहते सभी
खौफ  दीनो  को  दिखाना छोड़ दो ।।

भारती   की  वेदना   बढ़ती  सदा
पीठ  पर  छुरियाँ  चलाना छोड़ दो ।।

प्रेम  में   ही सार   दिखता  है हमें
क्रोध  को  दिल  में बिठाना छोड़ दो ।।

मन  बने  निर्मल  यही इक कामना
पाप  वसुधा  पर  कमाना  छोड़ दो ।।

शान  अपने  देश  की  होगी  न कम
हाथ  दुश्मन  से  मिलाना  छोड़ दो ।।

यार हँसकर घात  सुख क्या पाओगे
झूठ  की  गंगा  बहाना   छोड़   दो ।।

          के०आर० कुशवाह  "हंस"
3:34 am

ग़ज़ल :- तुम साथ न दो मेरा खुद राह बना लेंगे - सना परवीन

तुम साथ न दो मेरा  खुद राह बना लेंगे
धरती से गगन तक हम  मंजिल को' भी' पा लेंगे।

क्या आज हुआ तुमको, जो रूठ गये साजन,
हम अपने ही' शानों पर, हर बोझ उठा लेंगे।।

काँटो से' बगावत भी, क्या करना' जमाने में,
चुभते हैं' अगर तो हम, कलियों को' खिला लेंगे।।

गिरते हुए' अश्कों का, इक मोल जरूरी है,
हम दिल के' दरीचे भी, आंखों को' बना लेंगे।।

इक दर्द छुपा दिल में, मुश्किल है' समझ पाना,
हर ग़म को' 'सना' लेकिन, खुशियों से मिला लेंगे।।

सना परवीन
3:28 am

कविता - कौन बड़ा-छोटा किन बातों में हम पड़े हुए - आदित्य तोमर

क्या समाज, कैसा समाज, क्या है उसकी परिभाषा ?
यह सब कहने में थकती है कलम, उलझती भाषा.
भिन्न पंथ हों, भिन्न धर्म हों या समुदाय भले हों,
भले भिन्न लोगों के पदचिन्हों पर आप चले हों,
लेकिन यह मत ठीक नहीं स्वयं को ज्येष्ठ ही मानें.
अन्य सभी को हेय, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ ही जानें.
पूर्ण चन्द्रमा को भी आखिर घटना पड़ जाता है.
एक दिवस हर अहंकार को मिटना पड़ जाता है.
कौन बड़ा-छोटा किन बातों में हम पड़े हुए हैं.
कालचक्र में सब दूजे के आगे खड़े हुए हैं.
कैसी सुघड़, सलोनी सुंदर है सुकृति प्रकृति की.
इसके आगे राह बन्द हो जाती मानव मति की.
विधि ने तो हर जाति-धर्म को गौरव दान दिया है.
सबको शीश उठाकर जीने का सम्मान दिया है.
सभी जाति-धर्मों में उतरे महामानवों के दल.
सभी जाति-धर्मों को प्रभु ने सौंपा जीवन सम्बल.,
जब-जब मानव स्वाभिमान पर घातक पाप हुए हैं.
विक्रम, वीर शिवाजी, भामाशाह, प्रताप हुए हैं.
कहाँ, कहो, किस जाति में नहीं बिरले ख़ास हुए हैं.
महाराज अक्रूर, सूर, तुलसी, रैदास हुए हैं.
वाल्मीकि, बिरसा मुण्डा, सावित्रि, ज्योतिबा फूले,
किस डाली पर नहीं विपिन में पुष्प अनोखे झूले.
भगत, चन्द्रशेखर, बिस्मिल, अशफ़ाक़, सुभाष हमारे.
समय-समय पर उगते आये जग में नए सितारे..
अतः जातियों के विवाद पर डालो मिलकर पानी.
यही भावना लाओ हम सब ही हैं हिंदुस्तानी.
जाति-धर्म को पूछ न दुश्मन हम पर वार करेंगे.
वे तो एक तरफ़ से ही सबका संहार करेंगे.
अहंकार के वशीभूत आराती बने हुए हैं.
सच तो यह है सभी यहाँ बाराती बने हुए हैं.
घड़ी-दो घड़ी की सज-धज सब धूमिल हो जानी है.
चमक-धमक यह गमक खलक की पल में खो जानी है.
-
आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ (उ.प्र.)
2:21 am

ग़ज़ल :- चाहतों की निशानियाँ तो हो, मोहब्बत़ - राहुल शुक्ल साहिल

ग़ज़ल़ 1
बह्र- 2122  1212  22
काफ़िया - आर
रदीफ़ - कर लें क्या

तुझ से ही नैना चार कर लें क्या ।
खुद सजा तलब़गार कर लें क्या।।

चाहतों  की  निशानियाँ  तो  हो ।
मोहब्बत़ बेकरार  कर  लें  क्या ।।

आपकी   मेज़बानियाँ   तो  हों ।
प्यार की ही फुहार कर लें क्या ।।

जिन्दगी  में  भटक रहे  हैं हम ।
अब किनारे गुबार कर लें क्या ।।

आ  कभी  इन  खुली  बहारों  में ।
दिल  का  अब करार कर लें क्या ।।

 🌹डॉ० राहुल शुक्ल 'साहिल'

ग़ज़ल 2
बह्र -  212  212   212   212
काफ़िया - आ
रदीफ - हो गयी

भागते - भागते  इंतहा हो  गयी ।
देखते देखते वो जुदा  हो  गयी ।।

सोचता हूँ उसी की वफा ही मिले ।
चाहतें चाँदनी  पे  फिद़ा हो  गयी ।।

माँगता हूँ फ़िजा से उसे रात दिन ।
मन्नतों से शिला भी खुदा हो गयी ।।

कामिनी  तू  बनी  रागिनी तू बनी ।
जिन्दगी की रवानी सजा हो गयी ।।
      
रात अब थम गयी दिलरुबा आ गयी ।
संग  उसके  जवानी  जवां  हो  गयी ।।

       ©डॉ० राहुल शुक्ल साहिल
2:00 am

ग़ज़ल :- ये ख़्वाहिश न जाने कहां ले चली - राजश्री तिवारी पाण्डे

ग़ज़ल 1
काफ़िया - ईर
रदीफ़ - का

हर कोई मालिक बना है रौब है जागीर का ।
सब कहें मैं ही सिकंदर हूँ यहाँ तक़दीर का ।।

झूठ  का  देखो  सभी  ने पैरहन  पहना  हुआ ।
शौक भी रखने लगें हैं आजकल शमशीर का ।।

मौत पर किस का चला बस जानते हैं सब यहाँ ।
हार ही जाता है आखिर हर क़दम तदबीर का ।।


यूँ  कुचलते  हैं  गरीबों  को  ज़माने  के  सितम ।
ज्यों खुदा ने ही लिखा हो फलसफ़ा तहरीर का ।।

कुछ दुआएँ दो हमें की हम भी आदम जात है ।
आप जैसा शौक हम को भी नहीं जंजीर का ।।

राजश्री तिवारी पांडे

ग़ज़ल 2
बह्र- 1212    2122   2212    2
काफिया - ई
रदीफ - दे दे

बुझी बुझी सी निगाहों को रौशनी दे दे  ।
उदासियों से घिरे दिल को इक ख़ुशी दे दे ।।

कभी ये तेरी  नज़र से जहान देखा था ।
उसी नज़र को सनम फिर से रहबरी  दे दे ।।

न कोई फ़िक्र न चिंता थी तेरे होते हुये ।
उसी भरोसे की तू मुझको वापसी दे दे ।।

जवाब आने तलक इंतजार कर लेंगे ।
जवाब का तू भरोसा सही सही दे दे  ।।

मैं जिंदगी के उसी मोड पर हूँ अफसुर्दा ।
थकी  निगाह मेरी आके ताजगी दे दे ।।

मैं तुझसे मिल के बिछड़ने की सोच ही न सकूँ ।
मेरे   सनम   तू  मुझे   फिर   से  बेबसी  दे दे ।।

मैं तेरे साथ परिंदों सी फिर उड़ान भरूँ ।
कसम तुझे है  सनम फिर वो आशिकी दे दे ।।

राजश्री तिवारी पांडे

ग़ज़ल 3
बह्र - 122   122    122 12
काफिया - आ
रदीफ - कर गए

लो दिल जिस्म से यूं जुदा कर गए ।
मुहब्बत में खुद को खुदा कर गए ।।

ज़माने ने समझा था का़तिल जिसे ।
उसी  को  गले  हम  लगा  कर गए ।।

ग़ज़ल लिख रही थी गुलाबों की मैं ।
मगर   ख्वाब  कांटा चुभा कर गए ।।

बड़ी खुश्क सी ज़िंदगी जा रही ।
मेरे अश्क मुझको भिगा कर गए ।।

पशेमाँ  नहीं दिल दुखा कर मेरा ।
मुझे  मेरे  अपने  रुला  कर गए ।।

ये ख़्वाहिश न जाने कहां ले चली ।
हवस में ही कितनी  ख़ता कर गये ।।

जिन्होंने मुहब्बत की कलमें जड़ीं ।
वो दश्त-ए- मुहब्बत जला कर गए ।।

सँवरना सिखाया नहीं प्यार ने ।
 हमें तो सनम बावरा कर गए ।।

ये उनकी सियासत का अंदाज़ है ।
मेरे   ग़म  में  आँसू बहा कर गए ।।

ये   जो   मोजिज़े  हो रहे अब यहाँ  ।
उसी  सच का हम सामना कर गए ।।

राजश्री तिवारी पांडे

ग़ज़ल 4
बह्र - 221   212  1222     212
काफ़िया - आनी
रदीफ़ - तेरे लिए

हमने लिखी लहू से कहानी तेरे लिए  ।
बर्बाद कर ली अपनी जवानी तेरे लिए ।।

आब- ए- हयात  मेरे न आँसू ही बन सके ।
ठहरी नदी का बस था वो पानी तेरे लिए ।।

मेरी तड़प कराह , कभी छटपटाहटें ।
तस्वीर बन टंगीं ये निशानी तेरे लिए ।।

चारों तरफ उजाला बिखेरा सनम अभी  ।
खुशियां   भरी  हरेक  रवानी  तेरे  लिए ।।

चाहत तुम्हारी देखी है हर  बार ही नयी ।
मैं   याद   बन  गई  थी पुरानी तेरे लिए ।।

राजश्री तिवारी पांडे


ग़ज़ल 5
बह्र - 212   212  212   212
काफ़िया - अन
रदीफ़ - की हमें

याद  आती  नहीं  बालपन  की हमें ।
है ख़बर ही कहाँ अपने मन की हमें ।।

ज़िम्मेदारी  निभानी  है  घरबार की ।
फ़िक्र करनी है घर के रतन की हमें ।।

खार   के  बीच  भी फूल हँसते दिखे ।
टीस दिखती नहीं क्यों सुमन की हमें ।।

सूखते   जा रहे  फूल कलियाँ सभी ।
फ़िक्र होती नहीं क्यों चमन की हमें ।।

प्रण   लिया है  हमने यही आज से ।
अब  मिटानी जड़े हैं पतन की हमें ।।

जिंदगी   का   सबब   भूलने  से लगे ।
है ज़रूरत किसी इक किरन की हमें ।।

लुट रही लाज बाज़ार में रात दिन ।
लाज आती नहीं बाँकपन की हमें ।।

कट रहे सर शहीदों के न ला सके ।
आन अब है बचानी वतन की हमें ।।

बन जा महबूब मिट्टी को माशूका कर ।
दिल में रखनी  मुहब्बत वतन की हमें  ।।

हो  तिरंगा  अगर  पैरहन  के  लिए ।
फ़िक्र तब तो नहीं हैं बदन की हमें ।।

राजश्री तिवारी पांडे

ग़ज़ल 6
बह्र-  212    212    1222
काफ़िया - आई
रदीफ़ - है

चाँदनी    रात    मुस्कुराई     है  ।
इश्क  औ  हुस्न   की  सगाई है ।।

तक रहे होंगे मुझको छुप-छुप कर ।
उनकी  ख़ुश्बू  फ़िज़ा  में  छाई  है ।।

सुब्ह  बीती न जाने कब कैसे ।
शाम मुश्किल से झिलमिलाई है।।

बर्फ़ होने लगी थीं यह आँखें ।
उनके आने से जान आई है ।।

हिज्र के,रात दिन, हुये रुखसत ।
अब  मसर्रत   हयात   लाई  है।।

आज तशरीफ चांद ले लाया ।
चांदनी  ने  ज़िया  लुटाई  है ।।

प्यार पर तुमने ऐ जहाँ वालों ।
क्यों  हमेशा  छुरी  चलाई  है ।।

राजश्री ने भी कितनी मुश्किल से ।
प्यार  की  दुनिया  इक  बसाई है।।

राजश्री तिवारी पांडे

ग़ज़ल 7
बह्र - 122    122  122  122
काफ़िया - आरी
रदीफ़ - ऩज़र है

बड़ी  खूबसूरत  तुम्हारी नज़र है ।
नचाती है मुझको मदारी नज़र है ।।

पड़ीं जिस परिंदे पे तेरी निगाहें  ।
फँसा जाल में , वो शिकारी नज़र है ।।

पड़े जो जिगर पे तो बचना न मुमकिन ।
बड़ी तेज पैनी है आरी नज़र है ।।

बयाँ क्या करूँ मैं तुम्हारी नज़र का  ।
पड़ी जिसपे उसपे ही भारी नज़र है ।।

तुम्हें देखकर चैन मिलता कहाँ हैं ।
कसक छोड़ जाती दुधारी नज़र है ।।

सवालों में घिर के जले आग सी जो ।
ये किस की मुहब्बत की मारी नज़र है ।।

गुमां हो रहा है अदाओं के रुख से ।
ख़ुदा ने  भी तेरी उतारी नज़र है ।।

तुम्हें चुन के लाए हैं सारे जहां से ।
कहो तेज़ कितनी हमारी नज़र है ।।

राजश्री तिवारी पाण्डे
1:57 am

बढ़ा लो फासले यारों वफ़ाएं अब नही मिलतीं - सना परवीन

गजल  1
बह्र - 1222 × 4
काफ़िया - एं स्वर
रदीफ़ - अब नही मिलतीं

बढ़ा लो फासले यारों वफ़ाएं अब नही मिलतीं ।
नजर जो फेर ली जब से अदाएं अब नही मिलतीं ।।

सुनाऊँ हाल मै दिल का सुनूं मै किस तरह उसको ।
हुआ खामोश जब से वो सदाएं अब नही मिलतीं ।।

किये वो जा रहा बेख़ौफ़ होकर के गुनाहों को ।
 दिलों को तोड़ने की भी सजाएं अब नही मिलतीं ।।

बड़ी ही बे समझ थी मै  ,न समझी माँ के दामन को ।
बचाऊँ खुद को मै कैसे दुवाएं अब नही मिलतीं ।।

नशीली शाम का मंजर बड़ा ही तल्ख लगता है ।
फिरूँ मै ढूंढती हरदम फजाएं अब नही मिलती ।।

सना परवीन 'मेहनाज'

गजल 2
बह्र - 221 1222 221 1222
काफ़िया - आ स्वर
रदीफ़ -  लेंगे

तुम  साथ  न  दो  मेरा  खुद  राह बना  लेंगे ।
धरती से गगन तक हम मंजिल को भी पा लेंगे ।।

क्या आज हुआ तुमको जो रूठ गये साजन ।
हम अपने ही शानों पर हर बोझ उठा  लेंगे ।।

काँटो  से  बगावत भी  क्या करना जमाने में ।
चुभते हैं अगर तो हम, कलियों को खिला लेंगे।।

गिरते हुए अश्कों का इक मोल जरूरी है ।
हम दिल के दरीचे भी आंखों को बना लेंगे ।।

इक दर्द छुपा दिल में, मुश्किल है समझ पाना ।
हर ग़म को सना लेकिन, खुशियों से मिला लेंगे ।।

सना परवीन 'महनाज'

गजल 3
बह्र - 221 1222 122 1222
काफ़िया - आर
रदीफ़ - कर लू मैं

फुरकत के लम्हों में नैन अब चार कर लूं मैं ।
दानिशतां  सनम  मेरे  तुझे  प्यार कर लूं मैं ।।

खुद को भुला दुं खो जाऊं कुछ इस तरह तुझमें ।
होने   लगी   हूं   अब   तेरी  इकरार  कर  लूं मैं ।।

शरमा के यूँ नज़रें उठ के झुक ही गई मेरी ।
खामोश होठों से अब यूँ इजहार कर लूं मैं ।।

तसव्वुर में हमनशी छू कर के तुझको देखूँ ।
दिल मे रख के तुझको बातें हजार कर लूं मैं ।।

हो   जाऊं   मैं   फना  कुछ ऐसे काम आऊं ।
आगोश में भरके तुझे खुद पे वार कर लूं मैं ।।

सना परवीन 'महनाज'

शनिवार, 28 मार्च 2020

9:21 pm

बुलाती है मगर जाने का नईं :- राहत इन्दौरी


बुलाती है मगर जाने का नईं
ये दुनिया है इधर जाने का नईं

मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर
मगर हद से गुजर जाने का नईं

सितारें नोच कर ले जाऊँगा
मैं खाली हाथ घर जाने का नईं

वबा फैली हुई है हर तरफ
अभी माहौल मर जाने का नईं

वो गर्दन नापता है नाप ले
मगर जालिम से डर जाने का नईं


:- राहत इन्दौरी


शुक्रवार, 27 मार्च 2020

9:08 am

जिंदगी

मेरे  दिल से ही  निकले  उदगार ...आप के  द्वार ....

ज़िन्दगी .....
शुरुआत ....एक  ल्फ़्ज़  ....
फिर ...अज़ब ...
फिर ....  ग़ज़ब ...
फिर ...ताज्जुब ....
अंत ...एक मज़हब .....

आपका अपना 
वीरेन्द्र  कौशल

मंगलवार, 24 मार्च 2020

9:02 pm

नया किरदार - Vj Bagchi

पुराने किरदार से निकल,
तू नए किरदार में ढल जाना,
तन्हाई में ना खोकर,
आशाओं में टहल आना,
गरीबों की महफ़िल में जाकर,
अमीरी का पता लगाना,
वो कैसे खुश रहते है वहां,
ज़रा हमें भी बताना,
तकलीफों की किल्लत किन्हें नहीं,
सब्र की महफ़िल सजाना,
ये कदम फ़रेबी हो ना जाएं,
हौसलों से इन्हें बढ़ाना,
अंजाम-ए-वफ़ा का दौर भी, 
आता है, कभी-कभी,
यूँ अश्कों में ना डूब जाना......
मुअस्सर-ए-तस्कीन रूह को हो,
एहतिज़ाज़ न करना, मुस्कुराना,
क्या कहेगा ज़माना, 
क्या समझेगा ज़माना,
यह सब भूल जाना...
डर किस बात का, ए'तिमाद बरत,
आसिफ़ है तू, खुद ही को समझाना,
पुराने किरदार से निकल,
तू नए किरदार में ढल जाना,
तन्हाई में ना खोकर,
आशाओं में टहल आना।

"Vj Bagchi"

मगहर 
संत कबीर नगर
उत्तर प्रदेश

सोमवार, 23 मार्च 2020

6:06 am

ग़ज़ल :- आईना जो कहे, वही सच है - डिम्पल शर्मा


ग़ज़ल
बहर-2122      1212       22
क़ाफिया - से हैं
रदीफ - आ का

आज कल लोग, सब जुदा से हैं ।
जो  अभी  हैं  यहाँ, ख़ुदा  से  हैं ।।

आईना  जो  कहे,  वही  सच  है ।
देख  अपने  ख़फा  ख़फा  से  हैं ।।

वो मुहब्बत करें,खनक सुनकर ।
यार  रिश्ते, दग़ा.. सजा  से  हैं ।।

है अभी हाल जो फ़कीरी का ।
उम्र  तन्हा  कटी  दिला  से  हैं ।।

तंग जो जेब,मुँह छिपाते हैं ।
हम जुबाँ बंद, ना-ख़ुदा से हैं।।

ना-ख़ुदा - जहाज़ का कप्तान

© डिम्पल शर्मा

रविवार, 22 मार्च 2020

10:06 pm

ग़ज़ल :- ज़िंदगी गुज़रे ज़रा - से प्यार में - रवि रश्मि 'अनुभूति '


बहर --- 2122    2122    212
काफिया - आर
रदीफ- में

ज़िंदगी गुज़रे ज़रा - से प्यार में ।
क्या रखा है जीत में सुन हार में ।।

रोकते  काँटे  हमारे  प्यार  को ।
काट सकते ज़िंदगी हम ख़ार में ।।

गुनगुनाते हैं सदा हम गीत ही ।
चल पड़ें हम गीत की गुंजार में ।।

मिल सके जो साथ तेरा सुन ज़रा  ।
क्या रखा है फिर किसी श्रृंगार में ।।

जीत तेरी हो कि मेरी सुन सजन ।
खुशनुमा हो हम जियें संसार में ।।

रंग भर लो प्यार के दिल में  सभी ।
भर सकें खुशियाँ सभी त्योहार में ।।

प्यार से मिलजुल रहें देखो सदा ।
क्या रखा है व्यर्थ की तक़रार में ।।

डगमगाती कश्तियाँ डरना नहीं ।
बस भरोसा तुम रखो पतवार में ।।

नफ़रतों की छोड़ कर दुनिया ज़रा ।
ढूँढ़ लो जादू ज़रा - सा प्यार में ।।

(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '
4.3.2020 , 4:44पीएम पर रचित ।

10:03 pm

ग़ज़ल :- बीत गईं हैं कितनी शामें हर मौसम तन्हाई में - रचना उनियाल

रदीफ़- है
क़ाफ़िया-आरा.....स्वर
2×15

आज  अगर दिल मान सके ये हर इंसान  हमारा है ।
हो जाये  हर  मुश्किल आसाँ  ढूँढे  कौन सहारा है ।।

गुल ही महकाता है गुलशन बाग खिलाये बनमाली ।
काँटे चुभते वनमाली के   गुल क़िस्मत की धारा है ।।

भीग  रही है दुनिया सारी दौलत की इस बारिश में ।
छोड़ चलेगा  इस दौलत को बनकर  ही बेचारा है ।।

इल्ज़ामों  की हर बेड़ी को तोड़  सकेगा दिल कैसे ।
दर्द सहे  सौ वार जहाँ पर उसने दिल को मारा है ।।

बीत  गईं  हैं कितनी  शामें  हर मौसम  तन्हाई में,
दिल में उठते अहसासों ने फिर से आज उबारा है।

फूल खिलें  हैं क्यारी क्यारी रंग अनेकों ढंग नये ।
भारत  प्यारा देश हमारा  सब देशों से प्यारा है ।।

एक तमन्ना कहती “रचना” फिर से धरती  पे आयें ।
मिल  जायेंगे राम ज़मीं पर श्याम हमारा न्यारा है ।।

© रचना उनियाल

शनिवार, 21 मार्च 2020

6:17 am

डॉ_वशीर_बद्र - पूरा इंटरव्यू यहाँ पढ़े - डा_निशान्त_असीम

#ग़ज़ल_की_भाषा_हिंदुस्तानी_है
#डॉ_वशीर_बद्र
( पूरा इंटरव्यू यहाँ पढ़े ) पद्मश्री बशीर साहब की शायरी अदब और आम-जनमानस में ख़ास मक़ाम रखती है। हिंदुस्तानी-भाषा के इस हरदिल-अजीज शायर को उर्दू वाले उर्दू का और हिन्दी वाले हिन्दी का समझते हैं, इतनी मुहब्बत शायद ही किसी शायर को मिली हो। वर्ष 2005 में वे बदायूँ-महोत्सव में मुशायरा पढ़ने आये थे, उस अवसर पर उन्हें फ़ानी-शकील अवार्ड से नवाजा गया था। उसी समय उनका यह इंटरव्यू मुझ नाचीज़ ने लिया था, जो संजय शर्मा जी के सम्पादन में लखनऊ से प्रकाशित  #वीक_एंड_टाइम्स  में 05 मार्च 2005 को प्रकाशित हुआ था।
तो चलिये मेरे साथ उन ऐतिहासिक लम्हों में ...


असीम : शायरी के गढ़ और शकील-फ़ानी की सरज़मीं पर, उन्हीं के नाम का अवार्ड पा कर कैसा लग रहा है ?

बद्र साहब : ... मैं इसे अल्फ़ाज़ों में बयां नहीं कर सकता। मुझे फ़क्र है कि बदायूँ-शरीफ़ के लोगों ने मुझे इस अवार्ड के क़ाबिल समझा। जिसके लिए मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ। यह इस ज़मी की कशिश ही है कि मैं यहाँ खिंचा चला आता हूँ।

असीम : शायरी के इस मक़ाम पर पहुँच कर कैसा महसूस करते हैं ?

बद्र साहब : ठीक वैसा ही जैसा एक आम आदमी महसूस करता है। ख़ुशी होती है कि मेरे चाहने वाले मुझसे इतनी मुहब्बत करते हैं।...मग़र अब ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गयीं हैं।

असीम : किस तरह की ज़िम्मेदारियाँ ?

बद्र साहब : यही कि जो भी लिखूँ उसके ज़रिये लोगों को कुछ न कुछ नसीहत या पैग़ाम मिले, उन्हें  ऐसा लगे जैसे कि मैंने उनकी बात कह दी।

असीम : ' उनकी बात ' से क्या मतलब है ?

बद्र साहब : ..... ( गम्भीरता से ) आज ज़िन्दगी की रफ़्तार बहुत तेज़ है। कल्चर, एटमॉस्फियर सब कुछ बदला है, जिसकी वजह से आदमी के न सिर्फ़ दुःख-दर्द बढ़े हैं बल्कि वो जज़्बाती भी हुआ है। ऐसे में उसे अगर एक शेर ऐसा मिल जाये जो उसे हार्डली टच करता हो तो यक़ीनन उसे सुकून मिलेगा और उसे वो याद रखेगा। फिर वो शेर मेरा हो, आपका हो या किसी और का हो।

असीम : एक्चुअल में आप शायरी किसे मानते हैं ?

बद्र साहब : एक शायर के नज़रिए से, जो हर तरह से ग्रामर का एहतराम करती हो और एक आम आदमी की नज़र से, वो बिना परेशानी या डिक्शनरी के सबकी समझ में आये और जो मैंने अभी कहा कि हार्डली टच करे।

असीम : मीर, दाग़, ग़ालिब, फ़ानी , जिगर में आप किसे पसन्द करते हैं ?

बद्र साहब : ये तो ऐसे ही हुआ जैसे कि आप कहें कि आसमान का कौन सा तारा आपको पसन्द है। ...सभी की शायरी का अपना मिजाज है, अपना मुकाम है। लेकिन लिट्रेचर की नज़र से ग़ालिब और मीर पर भारत और पाकिस्तान की यूनिवर्सिटीज में काफ़ी काम हुआ है।

असीम : पाकिस्तान का ज़िक्र हुआ तो, आप एक शायर के नाते भारत और पाकिस्तान के सम्बंधो को किस नज़र से देखते हैं ?

बद्र साहब : बिल्कुल एक आम हिंदुस्तानी की नज़र से, अभी तो उस दिन की शाम भी नहीं हुई है, जिसकी सुबह में हम साथ-साथ रहते थे। दोनों की अवाम चाहती है कि आपस में प्यार हो, अम्न हो, मैंने तो बहुत पहले ये शेर कहा था -
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे,
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिंदा न हों।

असीम : आज हिन्दी में भी ग़ज़ल कही जा रही है, हिन्दी वाले इसे दुष्यन्त कुमार की परम्परा मानते हैं। क्या ग़ज़ल को हिन्दी-उर्दू में बांटा जा सकता है ?

बद्र साहब : शायरी को जाति या भाषा के नाम पर नहीं बाँटा जा सकता है। ...सच तो ये है कि हिन्दी-उर्दू एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, यह तो दुष्यन्त साहब ने भी कहा था। ग़ज़ल की अपनी एक तहज़ीब है उसे भाषाओं के नज़रिये से नहीं बांट सकते। वास्तव में आज की, ग़ज़ल की भाषा हिंदुस्तानी है। भाषा की हिस्ट्री में पढ़े तो हमें पता चलेगा कि उर्दू-हिन्दी अलग नहीं हैं, बस लिखबट का फ़र्क है। यह दोनों संस्कृत भाषा की मुश्किल से नवीं-दसवीं पीढ़ी हैं। ...अब इसे थोड़ा माडर्न टच दे दिया गया है। यह हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी मिक्स हिंदुस्तानी ज़बान पूरे हिंदुस्तान में बोली और समझी जाती है। शायरी और कविता की भी यही भाषा है, मेरा यह शेर देखिये -
ये साहिल है यहाँ तो,
मछलियाँ कपड़े बदलती हैं।
बताइये इसे आप क्या कहेंगे, हिन्दी या उर्दू ?

असीम : आपके कुछ दीवान देवनागरी-लिपि में भी प्रकाशित हुये हैं, इसके पीछे कोई ख़ास वजह ?

बद्र साहब : वो इसलिए कि उसे हिन्दी-भाषी.....( रुकने के बाद कुछ देर सोच कर ) .... बल्कि हिन्दुस्तानी कहूँ तो अच्छा रहेगा... जानने वाले और देवनागरी-लिपि में लिखने-पढ़ने वाले भी उसे पढ़ सकें। क्योंकि देश में ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता है।

असीम : आपने फ़िल्मों में गीत लिखने के प्रति दिलचस्पी क्यों नहीं दिखायी ?

बद्र साहब : क्योंकि वहाँ आज की तारीख़ में शायरी को शायरी रख पाना बहुत मुश्किल काम है। इसलिए मैंने ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई, ऑफ़र तो बहुत आये, आज भी आते हैं।

असीम : आज देश अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है, शायरी के जरिये आपने उन्हें उठाने या उनका हल देने की कोशिश की ?

बद्र साहब : सवाल अच्छा किया आपने... बिल्कुल कोशिश की। वैसे भी शायरी या लिट्रेचर को समाज और देश का आइना कहा जाता है। मैंने उसी आईने को दिखाने की लगातार कोशिश की है और कर रहा हूँ। चन्द अशआर देखिये-
जब भी बादलों में घिरता है,
चाँद लगता है आदमी की तरह।
रात का इंतज़ार कौन करे,
आजकल दिन में क्या नहीं होता।

असीम : आज आपको देश की सबसे बड़ी प्रॉब्लम कौन सी लगती है ?

बद्र साहब : मेरे ख़्याल से ग़रीबी और भ्रष्टाचार ही देश की मेन प्रॉब्लम हैं। यह खत्म हो जायें तो यक़ीनन हर तरफ़ अम्न होगा।

असीम : पद्मश्री पाने के बाद कुछ और पाने की तम्मना है ?

बद्र साहब : ... बस अपने सामईन से यूँ ही प्यार और इज्ज़त मिलती रहे, जिससे ज़िन्दगी का बाक़ी सफ़र मुहब्बत से कट जाये।

असीम : आमीन ! आखिर में कोई पैग़ाम देशवासियों के लिये ....

बद्र साहब : सभी देशवासी मिल-जुल कर अमन और प्रेम के दीपक जलाते रहें, जिससे न केवल हिंदुस्तान बल्कि सारी दुनियाँ मुहब्बत से जगमगा उठे।

साक्षात्कार
#डा_निशान्त_असीम
संस्थापक/अध्यक्ष : हिन्दुस्तानी ग़ज़ल अकादमी ( रजि.)

गुरुवार, 19 मार्च 2020

10:10 pm

हिन्दुस्तानी ग़ज़ल क्या है आइये समझते है -डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
हिंदुस्तानी-ग़ज़ल अलग से साहित्य की कोई बिधा नहीं है बल्कि उसमें हिन्दी-ऊर्दू की वे सभी ग़ज़लें शामिल हैं, जो आम बोलचाल की आसान हिंदुस्तानी ज़बान में कहीं गयीं हैं और उन ग़ज़लों की तहज़ीब हिन्दुस्तानी है।

आज जहाँ लोग भाषा और सम्प्रदाय में ख़ुद को बाँटे हुये बैठे हैं, वहाँ  ये " ग़ज़ल " ही है जो सदियों से समाज को जोड़ने का काम कर रही है।
ग़ज़ल लोगों की ज़बाँ पर रहते-रहते, कब सद्भावना की मिसाल बन गयी किसी को पता ही नहीं चला। वक़्त ने चलते-चलते जब अपने अतीत को अदब के आइने में देखा तो उसे अहसास हुआ है कि ग़ज़ल सिर्फ़ साहित्य की विधा ही नहीं है, बल्कि समाज के हर वर्ग और हर उम्र के, लोगों के दिलों की धड़कन भी है।
दो समकालीन उर्दू और हिन्दी ग़ज़लकारों के शे'र देखिये-

झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये,
और मैं था कि सच बोलता रह गया।
-प्रो. वसीम बरेलवी

दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए,
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिये।
- डॉ. कुँअर बैचैन

अब अगर ये दोनों शे'र देवनागरी लिपि की जगह फ़ारसी लिपि में लिख दिए जायें, तो भी किसी शे'र  में कुछ भी नहीं बदलेगा। क्योंकि लिपि सदैव ही किसी भाषा की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं करती। जैसे कि जब हम सैलफोन पर  हिन्दी का कोई मैसेज रोमन लिपि में टाइप करते हैं तो वह मैसेज रोमन लिपि में टाइप होने के बाबजूद भी अंग्रेजी भाषा का नहीं कहलाता, वह हिन्दी-भाषा का ही कहलाएगा। अतः ये शे'र ज़बान के लिहाज से उर्दू-अदब के भी हैं और हिन्दी-साहित्य के भी हैं।
 ... अब चलो क्रिया-शब्दों (Verbs) से देखते हैं, क्योंकि किसी भाषा के क्रियापद उसके अपने होते हैं और वे भाषा को भी प्रमाणित करते हैं। जबकि संज्ञापदों (Noun) की स्थिति लिपि वाली ही होती है, इसलिए यहाँ उसकी चर्चा करने का कोई फ़ायदा नहीं है। अब ग़ौर करने वाली बात यह है कि हिन्दी और उर्दू के क्रियापद एक जैसे ही होते हैं। इसलिये इन शेरों में क्रियापद भी एक जैसे ही हैं। अर्थात यह अशआर हिन्दी-उर्दू दोनों के ही क़रीब हैं।
चलिए अब भाषा के लिहाज से देख लेते हैं, तो दोनों शेरों में न तो मुश्किल उर्दू/फ़ारसी के अल्फाज़ हैं और न क्लिष्ट हिन्दी/संस्कृतनिष्ठ शब्द हैं। अतः यह दोनों शे'र मिश्रित हिन्दी-उर्दू वाली आसान ज़बान में हैं। जो हम लोग सुबह से लेकर शाम तक बोलते हैं । ....जो सही मायने में हिंदुस्तानी ज़बान है। हिंदुस्तानी ज़बान में हिन्दी-उर्दू के अलावा भारत में बोली जाने वाली उन सभी भाषाओं और बोलियों के शब्द शामिल हैं, जो चलन में आ गये हैं और लोग बिना किसी भाषाई झमेले के बोलते हैं।
भाषाई कट्टरता किसी भी भाषा को संकीर्ण कर देती है जबकि  उदारता और सहिष्णुता भाषा को समृद्ध बनाती है। किसी भाषा या विधा को किसी जाति, क्षेत्र या धर्म की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। लेकिन इस स्थिति में एक चीज़ समझने की है, वो है संस्कृति। जिसकी विशेष भूमिका होती है,क्योंकि जब कोई विधा या शब्द दूसरी संस्कृति से आते है, तो हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि उस विधा या शब्द को  उसके मूल रूप में ही सम्मान दें, फिर चाहे अरूज़ (व्याकरण) का मामला जो या तलफ़्फ़ुज़ (उच्चारण) का।
शुक्र है कि हिन्दी और उर्दू भाषाओं के बीच कोई भाषाई कट्टरता या भेदभाव नहीं है। दोनों सदियों से एक दूसरे के साथ हैं और यक़ीनन हर दिन और क़रीब आ रहीं हैं।
यूँ तो ग़ज़ल को ग़ज़ल कहना ही पर्याप्त है। ग़ज़ल के साथ कुछ भी जोड़ने की ज़रूरत नहीं है लेकिन क्या करें ग़ज़ल के साथ पहले से ही उर्दू और हिन्दी विशेषण जुड़े हुये हैं। इसलिये हम ज़बान के नजरिये से हिंदुस्तानी ग़ज़ल कह कर, हिन्दी और उर्दू ग़ज़ल के बीच की खाई पाट कर न केवल भाषाई सदभावना क़ायम करना चाहते हैं वल्कि ग़ज़ल को और भी ज़्यादा लोकप्रिय बनाना चाहते हैं। क्योंकि शायरी सुख-दुःख, आशा-निराशा हर हाल में सुकून देती है।
अब कुछ और बिंदुओं पर प्रकाश डालने से पहले भारत में ग़ज़ल के विकास पर मुख़्तसर सी चर्चा करते हैं-

【 1.】  ग़ज़ल

ग़ज़ल की शुरुआत अरब में हुई थी। ग़ज़ल का मतलब होता था- महबूब से बातचीत करना। यही कारण है कि आज भी ग़ज़ल लिखी नहीं बल्कि कही जाती है। 10 वीं शताब्दी में, विशेष रूप से ईरान और उसके आसपास फ़ारसी भाषा में खूब ग़ज़लें कहीं गयीं, वास्तव में ग़ज़ल को यहीं से पहचान मिली।
ग़ज़ल का अपना एक अरूज़ (व्याकरण) होता था, जिसके अंतर्गत निर्धारित बहरों (छन्दों) में एक ही वज़्न में सभी शे'र कहे जाते थे। साथ ही ग़ज़ल की अपनी एक तहज़ीब (संस्कृति) भी होती थी। ग़ज़ल का वो अरूज़ आज भी जस का तस प्रयोग होता है, चाहे ग़ज़ल किसी भी भाषा में क्यों न कही जाये। ऐसा न करना ग़ज़ल की सदियों पुरानी भव्य परम्परा की तौहीन मानी जाती है।

【 2. 】 ऊर्दू ग़ज़ल

भारत में 12 वीं शताब्दी में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना के बाद, साहित्यिक और सांस्कृतिक सौहार्द के रूप में ग़ज़ल भारत में आई और फिर वो हमेशा के लिए यहीं की होकर रह गयी। दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत में ग़ज़ल को ज़्यादा लोकप्रियता मिली। दिल्ली और लखनऊ के रूप में उसे दो ऐसे शायरी के गढ़ मिले जिन्होंने ऊर्दू अदब को तमाम महान शायर दिये। भारत में ग़ज़ल फ़ारसी से उर्दू में आयी इसीलिए फ़ारसी का प्रभाव उस पर हमेशा बना रहा। उर्दू ग़ज़ल नें फ़ारसी के परम्परागत अरूज़ को न केवल ज्यों का त्यों स्वीकार किया बल्कि उसे ख़ासा सम्मान भी दिया। लेकिन बाद में ग़ज़ल की मूल बहरों से बनीं, कुछ नई बहरें भी उर्दू ग़ज़ल में प्रचलित हो गयीं। आज उर्दू-ग़ज़ल के दीवान  देवनागरी लिपि में भी प्रकाशित हो रहे हैं, जो भविष्य के लिये सुखद संकेत है।

【 3.】 हिन्दी ग़ज़ल

भारत में इमरजेंसी के दौरान 1975 में दुष्यन्त कुमार के ग़ज़ल-संग्रह ' साये में धूप ' के प्रकाशन के बाद हिन्दी में ग़ज़ल की परम्परा पड़ी। यहाँ हम अमीर ख़ुसरो, कबीर, निराला आदि का ज़िक्र हिंदी ग़ज़ल के जनक के रूप में नहीं कर रहे हैं। वास्तव में हिंदी-ग़ज़ल को धरातल पर आकार देने का क्रेडिट दुष्यंत कुमार को ही जाता है।
उर्दू से जब ग़ज़ल हिन्दी में आयी तो उसकी भाषा मिली-जुली उर्दू-हिन्दी थी जबकि लिपि देवनागरी थी, साथ ही उसमें नुक़्ते का चलन भी था। हिंदी ग़ज़ल ने भी फ़ारसी-उर्दू का ही शिल्प अपनाया। निःसन्देह हिन्दी-ग़ज़ल ने नये प्रतीक, बिम्ब और समसामायिक विषयों को छूकर उसे ऊँचाई प्रदान की और बहुत ही कम समय में उम्मीद से ज़्यादा ख्याति अर्जित की। इस बीच जब हिन्दी में ग़ज़ल कहने वालों की तादाद बढ़ी तो " ग़-ज़-ल " को " ग-ज-ल " बोलने वाले भी ग़ज़ल कहने लगे। कुछ लोगों ने शिल्प का कोई ध्यान नहीं रखा, तो कुछ ने हिन्दी ग़ज़ल के नाम पर संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग किया, जो ग़ज़ल में सहज नहीं थे और फ़ारसी-उर्दू की बहरों में भी आसानी से फिट नहीं होते थे। अतः ग़ज़लें बहर से ख़ारिज़ होने लगीं। ऐसे में जिस हिन्दी ग़ज़ल को लोग गंभीरता से लेने लगे थे, वहाँ हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो गयी। अतः हिन्दी ग़ज़ल वालों को व्याकरण और भाषा के प्रति सजग रहने की आवश्यकता है।

【 4.】 हिन्दुस्तानी ग़ज़ल

हिन्दी/उर्दू मिश्रित आसान ज़बान में, परम्परागत शिल्प की कसौटी पर, हिन्दुस्तानी परिवेश में कही गयी ग़ज़ल को हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहते हैं। 
इन हिन्दुस्तानी ग़ज़लों को समझने के लिये किसी डिक्शनरी या अन्य किसी माध्यम की ज़रूरत नहीं होती है। ये सीधे दिल में उतरतीं हैं और ज़ुबान पर चढ़ जातीं हैं।
हिंदी और उर्दू  सहित तमाम भाषाओं का साहित्य इस बात का गवाह है, कि उस भाषा की वही रचनाएँ कालजयी बनीं जो उस काल में आसान ज़बान में कहीं गयीं।
...तो आइये ! अब हिन्दुस्तानी ग़ज़ल के सफ़र में हसरत जयपुरी साहब के इस प्यारे से सन्देश के साथ आगे बढ़ते हैं ...
मुसाफिर हैं हम तो चले जा रहे हैं
बड़ा ही सुहाना ग़ज़ल का सफ़र है

आलेख
#डॉ_निशान्त_असीम

मंगलवार, 10 मार्च 2020

5:29 pm

हिंदुस्तानी-ग़ज़ल अलग से साहित्य की कोई विधा नहीं है

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल
हिंदुस्तानी-ग़ज़ल अलग से साहित्य की कोई विधा नहीं है बल्कि उसमें हिन्दी-ऊर्दू की वे सभी ग़ज़लें शामिल हैं, जो आम बोलचाल की आसान हिंदुस्तानी ज़बान में कहीं गयीं हों और उन ग़ज़लों की तहज़ीब हिन्दुस्तानी हो।

आज जहाँ लोग भाषा और सम्प्रदाय में ख़ुद को बाँटे हुये बैठे हैं, वहाँ  ये " ग़ज़ल " ही है जो सदियों से समाज को जोड़ने का काम कर रही है।
ग़ज़ल लोगों की ज़बाँ पर रहते-रहते, कब सदभावना की मिसाल बन गयी किसी को पता ही नहीं चला। वक़्त ने चलते-चलते जब अपने अतीत को अदब के आइने में देखा तो उसे अहसास हुआ है कि ग़ज़ल सिर्फ़ साहित्य की विधा नहीं है, बल्कि समाज के हर वर्ग और उम्र के, लोगों के दिलों की धड़कन भी है।
दो समकालीन उर्दू और हिन्दी ग़ज़लकारों के शे'र देखिये-

झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये,
और मैं था कि सच बोलता रह गया।
-प्रो. वसीम बरेलवी

दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए,
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिये।
- डॉ. कुँअर बैचैन

अब यदि ये दोनों शे'र देवनागरी लिपि की जगह फ़ारसी लिपि में लिख दिए जायें, तो भी किसी शे'र  में कुछ भी नहीं बदलेगा। क्योंकि लिपि सदैव ही किसी भाषा की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं करती। जैसे कि जब हम सैलफोन पर  हिन्दी का कोई मैसेज रोमन लिपि में टाइप करते हैं तो वह मैसेज रोमन लिपि में टाइप होने के बाबजूद भी अंग्रेजी भाषा का नहीं कहलाता, वह हिन्दी-भाषा का ही कहलाएगा। अतः ये शे'र ज़बान के लिहाज से उर्दू-अदब के भी हैं और हिन्दी-साहित्य के भी हैं।
 ... अब चलो क्रिया-शब्दों (Verbs) से देखते हैं, क्योंकि किसी भाषा के क्रियापद उसके अपने होते हैं और वे भाषा को भी प्रमाणित करते हैं। जबकि संज्ञापदों (Noun) की स्थिति लिपि वाली ही होती है, इसलिए यहाँ उसकी चर्चा करने का कोई फ़ायदा नहीं है। अब ग़ौर करने वाली बात यह है कि हिन्दी और उर्दू के क्रियापद एक जैसे ही होते हैं। इसलिये इन शेरों में क्रियापद भी एक जैसे ही हैं। अर्थात यह अशआर हिन्दी-उर्दू दोनों के ही क़रीब हैं।
चलिए अब भाषा के लिहाज से देख लेते हैं, तो दोनों शेरों में न तो मुश्किल उर्दू/फ़ारसी के अल्फाज़ हैं और न क्लिष्ट हिन्दी/संस्कृतनिष्ठ शब्द हैं। अतः यह दोनों शे'र मिश्रित हिन्दी-उर्दू वाली आसान ज़बान में हैं। जो हम लोग सुबह से लेकर शाम तक बोलते हैं । ....जो सही मायने में हिंदुस्तानी ज़बान है। हिंदुस्तानी ज़बान में हिन्दी-उर्दू के अलावा भारत में बोली जाने वाली उन सभी भाषाओं और बोलियों के शब्द शामिल हैं, जो चलन में आ गये हैं और लोग बिना किसी भाषाई झमेले के बोलते हैं।
भाषाई कट्टरता किसी भी भाषा को संकीर्ण कर देती है जबकि  उदारता और सहिष्णुता भाषा को समृद्ध बनाती है। किसी भाषा या विधा को किसी जाति, क्षेत्र या धर्म की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। लेकिन इस स्थिति में एक चीज़ समझने की है, वो है संस्कृति। जिसकी विशेष भूमिका होती है,क्योंकि जब कोई विधा या शब्द दूसरी संस्कृति से आते है, तो हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि उस विधा या शब्द को  उसके मूल रूप में ही सम्मान दें, फिर चाहे अरूज़ (व्याकरण) का मामला जो या तलफ़्फ़ुज़ (उच्चारण) का।
शुक्र है कि हिन्दी और उर्दू भाषाओं के बीच कोई भाषाई कट्टरता या भेदभाव नहीं है। दोनों सदियों से एक दूसरे के साथ हैं और यक़ीनन हर दिन और क़रीब आ रहीं हैं।
यूँ तो ग़ज़ल को ग़ज़ल कहना ही पर्याप्त है। ग़ज़ल के साथ कुछ भी जोड़ने की ज़रूरत नहीं है लेकिन क्या करें ग़ज़ल के साथ पहले से ही उर्दू और हिन्दी विशेषण जुड़े हुये हैं। इसलिये हम ज़बान के नजरिये से हिंदुस्तानी ग़ज़ल कह कर, हिन्दी और उर्दू ग़ज़ल के बीच की खाई पाट कर न केवल भाषाई सदभावना क़ायम करना चाहते हैं वल्कि ग़ज़ल को और भी ज़्यादा लोकप्रिय बनाना चाहते हैं। क्योंकि शायरी सुख-दुःख, आशा-निराशा हर हाल में सुकून देती है।
अब कुछ और बिंदुओं पर प्रकाश डालने से पहले भारत में ग़ज़ल के विकास पर मुख़्तसर सी चर्चा करते हैं-

【 1.】  ग़ज़ल

ग़ज़ल की शुरुआत अरब में हुई थी। ग़ज़ल का मतलब होता था- महबूब से बातचीत करना। यही कारण है कि आज भी ग़ज़ल लिखी नहीं बल्कि कही जाती है। 10 वीं शताब्दी में, विशेष रूप से ईरान और उसके आसपास फ़ारसी भाषा में खूब ग़ज़लें कहीं गयीं, वास्तव में ग़ज़ल को यहीं से पहचान मिली।
ग़ज़ल का अपना एक अरूज़ (व्याकरण) होता था, जिसके अंतर्गत निर्धारित बहरों (छन्दों) में एक ही वज़्न में सभी शे'र कहे जाते थे। साथ ही ग़ज़ल की अपनी एक तहज़ीब (संस्कृति) भी होती थी। ग़ज़ल का वो अरूज़ आज भी जस का तस प्रयोग होता है, चाहे ग़ज़ल किसी भी भाषा में क्यों न कही जाये। ऐसा न करना ग़ज़ल की सदियों पुरानी भव्य परम्परा की तौहीन मानी जाती है।

【 2. 】 ऊर्दू ग़ज़ल

भारत में 12 वीं शताब्दी में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना के बाद, साहित्यिक और सांस्कृतिक सौहार्द के रूप में ग़ज़ल भारत में आई और फिर वो हमेशा के लिए यहीं की होकर रह गयी। दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत में ग़ज़ल को ज़्यादा लोकप्रियता मिली। दिल्ली और लखनऊ के रूप में उसे दो ऐसे शायरी के गढ़ मिले जिन्होंने ऊर्दू अदब को तमाम महान शायर दिये। भारत में ग़ज़ल फ़ारसी से उर्दू में आयी इसीलिए फ़ारसी का प्रभाव उस पर हमेशा बना रहा। उर्दू ग़ज़ल नें फ़ारसी के परम्परागत अरूज़ को न केवल ज्यों का त्यों स्वीकार किया बल्कि उसे ख़ासा सम्मान भी दिया। लेकिन बाद में ग़ज़ल की मूल बहरों से बनीं, कुछ नई बहरें भी उर्दू ग़ज़ल में प्रचलित हो गयीं। आज उर्दू-ग़ज़ल के दीवान  देवनागरी लिपि में भी प्रकाशित हो रहे हैं।

【 3.】 हिन्दी ग़ज़ल

भारत में इमरजेंसी के दौरान 1975 में दुष्यन्त कुमार के ग़ज़ल-संग्रह ' साये में धूप ' के प्रकाशन के बाद हिन्दी में ग़ज़ल की परम्परा पड़ी। यहाँ हम अमीर ख़ुसरो, कबीर, निराला आदि का ज़िक्र हिंदी ग़ज़ल के जनक के रूप में नहीं कर रहे हैं। वास्तव में हिंदी-ग़ज़ल को धरातल पर आकार देने का क्रेडिट दुष्यंत कुमार को ही जाता है।
उर्दू से जब ग़ज़ल हिन्दी में आयी तो उसकी भाषा मिली-जुली उर्दू-हिन्दी थी जबकि लिपि देवनागरी थी, साथ ही उसमें नुक़्ते का चलन भी था। हिंदी ग़ज़ल ने भी फ़ारसी-उर्दू का ही शिल्प अपनाया। निःसन्देह हिन्दी-ग़ज़ल ने नये प्रतीक, बिम्ब और समसामायिक विषयों को छूकर उसे ऊँचाई प्रदान की और बहुत ही कम समय में उम्मीद से ज़्यादा ख्याति अर्जित की। इस बीच जब हिन्दी में ग़ज़ल कहने वालों की तादाद बढ़ी तो " ग़-ज़-ल " को " ग-ज-ल " बोलने वाले भी ग़ज़ल कहने लगे। कुछ लोगों ने शिल्प का कोई ध्यान नहीं रखा, तो कुछ ने हिन्दी ग़ज़ल के नाम पर संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग किया, जो ग़ज़ल में सहज नहीं थे और फ़ारसी-उर्दू की बहरों में भी आसानी से फिट नहीं होते थे। अतः ग़ज़लें बहर से ख़ारिज़ होने लगीं। ऐसे में जिस हिन्दी ग़ज़ल को लोग गंभीरता से लेने लगे थे, वहाँ हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो गयी। अतः हिन्दी ग़ज़ल वालों को व्याकरण और भाषा के प्रति सजग रहने की आवश्यकता है।

【 4.】 हिन्दुस्तानी ग़ज़ल

हिन्दी/उर्दू मिश्रित आसान ज़बान में, परम्परागत शिल्प की कसौटी पर, हिन्दुस्तानी परिवेश में कही गयी ग़ज़ल को हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहते हैं। 
इन हिन्दुस्तानी ग़ज़लों को समझने के लिये किसी डिक्शनरी या अन्य किसी माध्यम की ज़रूरत नहीं होती है। ये सीधे दिल में उतरती हैं और असर भी करते हैं।
हिंदी और उर्दू  सहित तमाम भाषाओं का साहित्य इस बात का गवाह है, कि उस भाषा की वही रचनाएँ कालजयी बनीं जो उस काल में आसान ज़बान में कहीं गयीं।
...तो आइये ! अब हिन्दुस्तानी ग़ज़ल के सफ़र में हमसफर बनकर आगे बढ़ते हैं ...
मुसाफिर हैं हम तो चले जा रहे हैं
बड़ा ही सुहाना ग़ज़ल का सफ़र है
-हसरत जयपुरी

आपका अपना
#डॉ_निशान्त_असीम

सोमवार, 9 मार्च 2020

9:05 pm

मौत के आने तक हर क़दम

रचना प्रकाशन हेतु प्रमाण पत्र
To,
    सम्पादक महोदय
     हिंदी साहित्य वैभव पत्रिका

श्रीमान जी,
       सविनय निवेदन यह है कि मेरी यह रचना(ग़ज़ल) नितांत मौलिक,अप्रकाशित और अप्रसारित है और मैं इसके प्रकाशन हिंदी साहित्य वैभव पत्रिका को देता हूँ!आशा है मेरी इस रचना का यथासम्भव उपयोग आपकी पत्रिका में हो सकेगा
      धन्यवाद
    भवदीय
बलजीत सिंह बेनाम
सम्प्रति:संगीत अध्यापक
उपलब्धियाँ:विविध मुशायरों व सभा संगोष्ठियों में काव्य पाठ
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
विभिन्न मंचों द्वारा सम्मानित
आकाशवाणी हिसार और रोहतक से काव्य पाठ
सम्पर्क सूत्र:103/19 पुरानी कचहरी कॉलोनी
हाँसी:125033
मोबाईल:9996266210

ग़ज़ल
मैंने पहले न देखी कभी
या ख़ुदा इस क़दर सादगी

रोशनी में छुपी तीरगी
तीरगी में छुपी रोशनी

पेट भर तुम भी खाओ मियाँ
शायरी शायरी शायरी

मौत के आने तक हर क़दम
ज़िन्दगी है लहू चूसती

राज़ तुम हो छुपाते अगर
लो ज़ुबाँ हमने भी अपनी सी
 

मंगलवार, 3 मार्च 2020

1:57 am

दिल से निकले ज़ज्बात. ..सांझा आपके साथ ...

मान्यवर  मित्रों ,
लो क्ल लो बात ......

दिल से  निकले  ज़ज्बात. ..सांझा  आपके  साथ ...

कैसे मनायें होली .....

नित देश में खेल रहे अब खून की होली 
कैसे मनें प्यार सौहार्द और रंगों वाली होली 
रंग हुये बेरंग और व्यवहार भी अपना खोया 
चेहरे हुये सब बदरंग अब कैसे मनायें होली 

आपका अपना 
वीरेन्द्र  कौशल

सोमवार, 2 मार्च 2020

5:39 am

निदा_फ़ाज़ली साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। खुशी है कि यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज पेश कर रहे हैं #निदा_फ़ाज़ली साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
निदा फ़ाज़ली साहब ( 1938 - 2016 ) उर्दू-अदब के बेहतरीन और संजीदा शायर थे, लेकिन उनकी शायरी की भाषा आम हिंदुस्तानी ज़बान थी। यही उनकी पॉपलरटी की ख़ास वजह थी।
उनकी कुछ खूबसूरत ग़ज़लें और कुछ शे'र देखिये ...

#ग़ज़लें

/ 01 /

अपना ग़म ले के कहीं और न जाया जाए
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए

जिन चराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं
उन चराग़ों को हवाओं से बचाया जाए

ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन अभी औरों को सताया जाए

बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए

क्या हुआ शहर को कुछ भी तो दिखाई दे कहीं
यूँ किया जाए कभी ख़ुद को रुलाया जाए

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये

/ 02 /

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता

कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हम ज़बाँ नहीं मिलता

चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

/ 03 /

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है

अच्छा-सा कोई मौसम तन्हा-सा कोई आलम
हर वक़्त का रोना तो बेकार का रोना है

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है

ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है

आवारा मिज़ाजी ने फैला दिया आंगन को
आकाश की चादर है धरती का बिछौना है

#चन्द_शेर_और_हाज़िर_हैं ...

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना

एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक
जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शमा जलाने से रही

अब किसी से भी शिकायत न रही
जाने किस किस से गिला था पहले

कहता है कोई कुछ तो समझता है कोई कुछ
लफ़्ज़ों से जुदा हो गए लफ़्ज़ों के मआनी

ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो

कुछ लोग यूँ ही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं
हर एक से अपनी भी तबीअ'त नहीं मिलती

बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया

बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता

नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए
इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई

हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए
कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाये

यक़ीन चाँद पे सूरज में ऐतबार भी रख
मगर निगाह में थोड़ा सा इंतज़ार भी रख

ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते-मिलाते रहिये

कुछ तबीअत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत न हुई
जिस को चाहा उसे अपना न सकेजो मिला उस से मोहब्बत न हुई

ये शहर है कि नुमाइश लगी हुई है कोई
जो आदमी भी मिला बन के इश्तिहार मिला

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

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