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मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

मुनव्वर_राना साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। हमें खुशी है कि ये कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज पेश है #मुनव्वर_राना साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
#राना साहब बेशक उर्दू अदब का बेशक़ीमती नगीना हैं। लेकिन उस नगीने की चमक में हिन्दुस्तानी ज़बान की झिलमिल है।
यही कारण है कि उनकी शायरी दुनिया भर के लोगों के दिलों में मुनव्वर (रोशन) है।
राना साहब मानवीय-संवेदनाओं के शायर हैं, उनके यहाँ जज़्बातों का जो व्यवहार है वह कहीं और नहीं मिलता।
' माँ ' की ममता को जिस तरह राना साहब नें व्यक्त किया वह अकल्पनीय है ....

#माँ_पर_उनके_चन्द_मशूहर_शेर_पढ़िये

किसी को घर मिला, हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

जब तक रहा हूँ धूप में चादर बना रहा
मैं अपनी माँ का आखिरी ज़ेवर बना रहा

ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ

हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिए
माँ ! हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे

ख़ुद को इस भीड़ में तन्हा नहीं होने देंगे
माँ तुझे हम अभी बूढ़ा नहीं होने देंगे

अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है

माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

मुझे कढ़े हुए तकिये की क्या ज़रूरत है
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है

झुक के मिलते हैं बुजुर्गों से हमारे बच्चे
फूल पर बाग की मिट्टी का असर होता है

#ग़ज़लें

/ 01 /

मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
अब इस से ज़ियादा मैं तिरा हो नहीं सकता

दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें
रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता

बस तू मिरी आवाज़ से आवाज़ मिला दे
फिर देख कि इस शहर में क्या हो नहीं सकता

ऐ मौत मुझे तू ने मुसीबत से निकाला
सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता

पेशानी को सज्दे भी अता कर मिरे मौला
आँखों से तो ये क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता

/ 02/

भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है
मोहब्बत करने वाला इस लिए बरबाद रहता है

अगर सोने के पिंजड़े में भी रहता है तो क़ैदी है
परिंदा तो वही होता है जो आज़ाद रहता है

चमन में घूमने फिरने के कुछ आदाब होते हैं
उधर हरगिज़ नहीं जाना उधर सय्याद रहता है

लिपट जाती है सारे रास्तों की याद बचपन में
जिधर से भी गुज़रता हूँ मैं रस्ता याद रहता है

हमें भी अपने अच्छे दिन अभी तक याद हैं 'राना'
हर इक इंसान को अपना ज़माना याद रहता है

/ 03 /

अलमारी से ख़त उस के पुराने निकल आए
फिर से मिरे चेहरे पे ये दाने निकल आए

माँ बैठ के तकती थी जहाँ से मिरा रस्ता
मिट्टी के हटाते ही ख़ज़ाने निकल आए

मुमकिन है हमें गाँव भी पहचान न पाए
बचपन में ही हम घर से कमाने निकल आए

ऐ रेत के ज़र्रे तिरा एहसान बहुत है
आँखों को भिगोने के बहाने निकल आए

अब तेरे बुलाने से भी हम आ नहीं सकते
हम तुझ से बहुत आगे ज़माने निकल आए

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

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