रविवार, 2 फ़रवरी 2020
हे बसन्त, क्या तुम बसन्त वह हो जिसके रंग में रंगना - आदित्य तोमर
हे बसन्त, क्या तुम बसन्त
वह हो जिसके रंग में रंगना
चाहा था बिस्मिल ने चोला
जिसकी रंगत पाने के हित
अशफ़ाक़ वीर का मन डोला
जिसकी पग बांध अभय जग में
पग-पग पर भगत सिंह बोला
डग-डग पर चाहे मौत बिछे
रग-रग से फूट उठे शोला
लेकिन भारती भवानी की
बेड़ियां काटकर जाना है
हंटरों-लाठियों का भय क्या
छाती पर गोली खाना है
फंदा फाँसी का चूम-चूम
हंसते हंसते मर जाना है
उन्हें तो एक पूरी नस्ल को तैयार करना था.
भले क़ुर्बान ख़ुद को इसलिए सौ बार करना था.
थी इतनी आख़िरी ख़्वाहिश, अगर ये हाथ खुल जाते,
महज़ इक बार फंदे से लिपटकर प्यार करना था.
हे बसन्त ! क्या तुम बसन्त
वह हो जिसकी क़समें खाकर
आज़ाद अजस्र दहाड़ा था
रविरश्मिरथी का ले प्रताप
पश्चिमी मेघ को फाड़ा था
भारत भू का बन स्वाभिमान
ध्वज बलिदानों का गाड़ा था
खांड़ा ले-लेकर हाथों में
बेड़ी को खींच उखाड़ा था
सुखदेव, राजगुरु, सान्याल,
उस रासबिहारी के मन में
राजेन्द्र लाहिड़ी, बटुकेश्वर,
कमज़ोर जतिन के भी तन में,
तुमने ही आग भरी थी क्या
उन क्रांतिसुतों के जीवन में,
केसरिया बाना, धानी चूनर, बासंती मन ले,
कैसी होली खेल गए वे बलिदानी जीवन ले,
कैसे भट परवाने शम्मए-आज़ादी पर जलकर,
गिरे दौड़कर लपटों में वे हंसकर उछल-उछलकर,
...... ...... ..... ..... ..... .... To be continued.
-
आदित्य तोमर
वज़ीरगंज, बदायूँ (उ.प्र.)
मोब. 9368656307
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