की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। हमें खुशी है कि यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज हाज़िर है #राहत_इन्दौरी साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
डॉ राहत इंदौरी साहब का उर्दू-अदब में खास मक़ाम है। उनकी ज़्यादातर शायरी आसान हिंदुस्तानी-ज़बान में है।
उनका शे'र कहने का अपना एक अलग अंदाज़ है जिसे दुनिया भर में पसन्द किया जाता है। उनकी शायरी में दौरे-हाज़िर की तस्वीर भी है और मुहब्बत की रवायत भी।
यही कारण है कि उनके शे'र हर प्रोफेशन का व्यक्ति कोड करता है।
तो आइये समाआत फ़रमाते हैं डॉ राहत इन्दौरी साहब की हिंदुस्तानी ग़ज़लें ...
#ग़ज़लें
/ 01 /
दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए
मौत का ज़हर है फ़ज़ाओं में
अब कहाँ जा के साँस ली जाए
बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ
ये नदी कैसे पार की जाए
अगले वक़्तों के ज़ख़्म भरने लगे
आज फिर कोई भूल की जाए
लफ़्ज़ धरती पे सर पटकते हैं
गुम्बदों में सदा न दी जाए
/ 02 /
हौसले ज़िंदगी के देखते हैं
चलिए कुछ रोज़ जी के देखते हैं
नींद पिछली सदी की ज़ख़्मी है
ख़्वाब अगली सदी के देखते हैं
रोज़ हम इक अँधेरी धुँद के पार
क़ाफ़िले रौशनी के देखते हैं
धूप इतनी कराहती क्यूँ है
छाँव के ज़ख़्म सी के देखते हैं
टुकटुकी बाँध ली है आँखों ने
रास्ते वापसी के देखते हैं
/ 03 /
पुराने शहरों के मंज़र निकलने लगते हैं
ज़मीं जहाँ भी खुले घर निकलने लगते हैं
मैं खोलता हूँ सदफ़ मोतियों के चक्कर में
मगर यहाँ भी समन्दर निकलने लगते हैं
हसीन लगते हैं जाड़ों में सुबह के मंज़र
सितारे धूप पहनकर निकलने लगते हैं
बुरे दिनों से बचाना मुझे मेरे मौला
क़रीबी दोस्त भी बचकर निकलने लगते हैं
बुलन्दियों का तसव्वुर भी ख़ूब होता है
कभी कभी तो मेरे पर निकलने लगते हैं
#चन्द_शेर_समआत_फ़रमाइये
◆
न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा
◆
तूफ़ानों से आँख मिलाओ सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो तैर के दरिया पार करो
◆
जुबां तो खोल, नजर तो मिला, जवाब तो दे
मैं कितनी बार लुटा हूँ, हिसाब तो दे
◆
ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था
◆
मेरा नसीब, मेरे हाथ कट गए वरना
मैं तेरी माँग में सिन्दूर भरने वाला था
◆
दो गज सही ये मेरी मिलकियत तो हैं
ऐ मौत तूने मुझे ज़मीदार कर दिया
◆
रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है
◆
हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते
◆
शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे
◆
नींद से मेरा ताल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख़्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यूं हैं
◆
एक चिंगारी नज़र आई थी बस्ती में उसे
वो अलग हट गया आँधी को इशारा कर के
◆
आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो
◆
अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए
कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए
प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम
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