की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। हमें खुशी है कि यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज लेकर आये हैं #कुँअर_बेचैन जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
डॉ बेचैन मूलतः हिन्दी के कवि हैं और आजकल ग़ाज़ियाबाद में रहते हैं। यूँ तो उन्हें एक गीतकर के रूप में सारी दुनिया जानती है लेकिन उनकी हिन्दुस्तानी-ग़ज़लें भी खासी लोकप्रिय हैं। उन्होंने अपनी गज़लों में नई सोच के साथ नये प्रतीकों का प्रयोग करने में कभी संकोच नहीं किया।
...तो आइये पढ़ते हैं उनकी हिन्दुस्तानी-ज़बान वाली शायरी ....
#ग़ज़लें
/ 01 /
औरों के भी ग़म में ज़रा रो लूँ तो सुबह हो
दामन पे लगे दाग़ों को धो लूँ तो सुबह हो
कुछ दिन से मेरे दिल में नई चाह जगी है
सर रख के तेरी गोद में सो लूँ तो सुबह हो
पर बाँध के बैठा हूँ नशेमन में अभी तक
आँखों के साथ पंख भी खोलूँ तो सुबह हो
लफ़्ज़ों में छुपा रहता है इक नूर का आलम
यह सोच के हर लफ़्ज़ को बोलूँ तो सुबह हो
जो दिल के समुन्दर में है अंधियार की कश्ती
अंधियार की कश्ती को डुबो लूँ तो सुबह हो
खुश्बू की तरह रहती है जो जिस्म के भीतर
उस गन्ध को साँसों में समो लूँ तो सुबह हो
दुनिया में मुहब्बत-सा 'कुँअर' कुछ भी नहीं है
हर दिल में इसी रंग को घोलूँ तो सुबह हो
/ 02 /
हम कहाँ रुस्वा हुए रुसवाइयों को क्या ख़बर
डूबकर उबरे न क्यूँ गहराइयों को क्या ख़बर
ज़ख़्म क्यों गहरे हुए होते रहे होते गए
जिस्म से बिछुड़ी हुई परछाइयों को क्या ख़बर
क्यों तड़पती ही रहीं दिल में हमारे बिजलियाँ
क्यों ये दिल बादल बना अंगड़ाइयों को क्या ख़बर
कौन सी पागल धुनें पागल बनातीं हैं हमें
होंठ से लिपटी हुई शहनाइयों को क्या ख़बर
किस क़दर तन्हा हुए हम शहर की इस भीड़ में
यह भटकती भीड़ की तन्हाइयों को क्या ख़बर
कब कहाँ घायल हुईं पागल नदी की उँगलियाँ
बर्फ़ में ठहरी हुई ऊँचाइयों को क्या ख़बर
क्यों पुराना दर्द उठ्ठा है किसी दिल में कुँअर
यह ग़ज़ल गाती हुई पुरवाइयों को क्या ख़बर
/ 03 /
चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया
जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया
सूखा पुराना ज़ख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया
आतीं न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों, मेरी राह में आने का शुक्रिया
आँसू-सा माँ की गोद में आकर सिमट गया
नज़रों से अपनी मुझको गिराने का शुक्रिया
अब यह हुआ कि दुनिया ही लगती है मुझको घर
यूँ मेरे घर में आग लगाने का शुक्रिया
ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया
अब मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे `कुँअर' रूठ जाने का शुक्रिया
#चन्द_शेर_समात_फ़रमाइये
दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना
◆
ये लफ़्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल
अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल
◆
तुम जिन को कह रहे हो मिरे क़दमों के निशाँ
वो सब तो मेरे पाँव के छालों के दाग़ हैं
◆
हो के मायूस न यूँ शाम से ढलते रहिए
ज़िंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिए
◆
इस वक़्त अपने तेवर पूरे शबाब पर हैं
सारे जहाँ से कह दो हम इंक़लाब पर हैं
◆
कोई नहीं है देखने वाला तो क्या हुआ
तेरी तरफ़ नहीं है उजाला तो क्या हुआ
◆
उस ने फेंका मुझ पे पत्थर और मैं पानी की तरह
और ऊँचा और ऊँचा और ऊँचा हो गया
प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम
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