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गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

जीवन की बहती नदिया के

जीवन की बहती नदिया के
पाट दिखाई दिए अलग से.
बचपन और जवानी के दो
घाट दिखाई दिए अलग से.
कैसी आँखें चकाचौंध थीं
हाथों में थर-थर कम्पन था.
धड़कन धाड़-धाड़ चलती थी,
घबराया सा अल्हड़पन था.
भरे जेठ की दोपहरी में,
लू भी शीतलहर बन गुज़री.
बेचैनी की हर कर्कश ध्वनि,
सन्नाटा बनकर आ पसरी.
एक छुअन से मौन हो गए मन के सभी मुखर सम्वाद.
वो जो इक अहसास रहा था, हुआ न उसके बाद.

अब भी सिहरन भर देती है पहले चुम्बन वाली याद.

कवि आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ.

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