पाट दिखाई दिए अलग से.
बचपन और जवानी के दो
घाट दिखाई दिए अलग से.
कैसी आँखें चकाचौंध थीं
हाथों में थर-थर कम्पन था.
धड़कन धाड़-धाड़ चलती थी,
घबराया सा अल्हड़पन था.
भरे जेठ की दोपहरी में,
लू भी शीतलहर बन गुज़री.
बेचैनी की हर कर्कश ध्वनि,
सन्नाटा बनकर आ पसरी.
एक छुअन से मौन हो गए मन के सभी मुखर सम्वाद.
वो जो इक अहसास रहा था, हुआ न उसके बाद.
अब भी सिहरन भर देती है पहले चुम्बन वाली याद.
कवि आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ.
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