की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। खुशी है कि यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज लेकर आये हैं #गोपालदास_नीरज जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
नीरज जी का जन्म 1925 में अलीगढ़ में हुआ था और 92 वर्ष की अवस्था में 2018 में, वे संसार से विदा हो गये।
नीरज जी को एक गीतकार के रूप में खासी ख्याति मिली, लेकिन वे एक परिपक्व ग़ज़लकार भी थे। उनकी कुछ ग़ज़लें जहाँ ख़ालिस उर्दू में हैं तो कुछ शुद्ध हिंदी में हैं।
लेकिन हम खासतौर से सिर्फ़ #हिन्दुस्तानी_ज़बान वाली कुछ ग़ज़लें और कुछ शे'र चुन कर लाये हैं ...
#ग़ज़लें
/ 01 /
ख़ुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की
खिड़की खुली है फिर कोई उन के मकान की
हारे हुए परिंद ज़रा उड़ के देख तू
आ जाएगी ज़मीन पे छत आसमान की
ज्यूँ लूट लें कहार ही दुल्हन की पालकी
हालत यही है आज कल हिन्दोस्तान की
'नीरज' से बढ़ के और धनी कौन है यहाँ
उस के हृदय में पीर है सारे जहान की
/ 02 /
जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला
मेरे स्वागत को हर एक जेब से ख़ंजर निकला
डूब कर जिसमे उबर पाया न मैं जीवन भर,
एक आँसू का वो कतरा तो समंदर निकला
मेरे होठों पे दुआ उसकी ज़ुबाँ पे ग़ाली
जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला
ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा
मेरा सब रूप वो मिट्टी की धरोहर निकला
रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिसने खाई,
वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला ।
/ 03 /
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए
प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए।
मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए
जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आँसु तेरी पलकों से उठाया जाए
/ 04 /
अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई ।
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई ।
आप मत पूछिये क्या हम पे सफ़र में गुज़री
था लुटेरों का जहाँ गाँव वहीं रात हुई ।
ज़िंदगी भर तो हुई गुफ़्तुगू ग़ैरों से मगर
आज तक हमसे हमारी न मुलाकात हुई
मैंने सोचा कि मेरे देश की हालत क्या है
एक क़ातिल से तभी मेरी मुलाक़ात हुई
#चन्द_शेर_और_समात_फ़रमाइये ...
हम तिरी चाह में ऐ यार वहाँ तक पहुँचे
होश ये भी न जहाँ हैं कि कहाँ तक पहुँचे
◆
तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा ।
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा ।
◆
एक इस आस पे अब तक है मेरी बन्द ज़बाँ,
कल को शायद मेरी आवाज़ वहाँ तक पहुँचे
◆
इतने मसरूफ़ थे हम जाने की तैयारी में,
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था।
◆
अब दोस्त मैं कहूं या उनको कहूं मैं दुश्मन
जो मुस्कुरा रहे हैं,खंजर छुपा के अपने पीछे
◆
है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए
◆
जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा
◆
जिस में मज़हब के हर इक रोग का लिक्खा है इलाज
वो किताब हम ने किसी रिंद के घर देखी है
◆
उस को क्या ख़ाक शराबों में मज़ा आएगा
जिस ने इक बार भी वो शोख़ नज़र देखी है
◆
बड़ा न छोटा कोई, फ़र्क़ बस नज़र का है
सभी पे चलते समय एक-सा कफ़न देखा
प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम
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