क्या लखा किसी ने ऋतु बसन्त का अरुणोदय ?
क्या कहीं किसी ने गुनी चाप उसके पग की.?
क्या हुआ भास जन-मन को सुरभि झकोरों का ?
मुंद सकीं आँख क्या आह्लादित होकर जग की.?
क्या सुमन किसी डाली पर थिरके इतराये ?
भौंरों की गुँजन ध्वनि निद्रा को तोड़ सकी ?
भद्रा के योग हटे क्या ? भरणी धरिणी यह
श्रंगार हेतु तंद्रिल मुद्रा को छोड़ सकी ?
हैं कहाँ असंख्य छत्रपों की वे सेनाएँ
जो कभी सेम की हरकारा बन आती थीं,
बरसातों को जो देख-देख मुसकाती थीं,
चढ़ती आँधी को आँख दिखा धमकाती थीं,
यह क्या बसन्त जब तेजहीन रवि रश्मिरथी
विरथी हो हार रहे कोहरे से बिना लड़े.
वे भी दिन थे जब कविता में यह ऋतु बसन्त,
ऋतुराज नाम पाकर किरीट तक जा पहुँची,
ये भी दिन हैं जब मंजुल कोमलता खोकर,
कल्पना काव्य की कंकरीट तक आ पहुँची.
-
आदित्य तोमर
वज़ीरगंज, बदायूँ (उ.प्र.)
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