ये किस मुक़ाम पे ले आई मुझको तन्हाई
के अपने साथ भी इक पल नहीं रहा जाता।
मैं तेज़ धूप में राज़ी था बैठने के लिए
वो मेरा साया अगर ओढ़ने को आ जाता।
ये राहगीर मिरे शह्र का नहीं वर्ना
मिरे मकान में पत्थर तो फेंकता जाता।
अब उसके लौटने की आस छोड़ दी मैंने
अब अपने आप को धोका नहीं दिया जाता।
अगर मैं रौशनी से क़ुर्बतें नहीं रखता
तो मेरा साया मुझे छोड़कर चला जाता।
फिर इक ख़याल ने घुटने पकड़ लिए वर्ना
मैं अपने आप से बाहिर निकल के आ जाता।
#@रघुनंदन शर्मा "दानिश"@#
के अपने साथ भी इक पल नहीं रहा जाता।
मैं तेज़ धूप में राज़ी था बैठने के लिए
वो मेरा साया अगर ओढ़ने को आ जाता।
ये राहगीर मिरे शह्र का नहीं वर्ना
मिरे मकान में पत्थर तो फेंकता जाता।
अब उसके लौटने की आस छोड़ दी मैंने
अब अपने आप को धोका नहीं दिया जाता।
अगर मैं रौशनी से क़ुर्बतें नहीं रखता
तो मेरा साया मुझे छोड़कर चला जाता।
फिर इक ख़याल ने घुटने पकड़ लिए वर्ना
मैं अपने आप से बाहिर निकल के आ जाता।
#@रघुनंदन शर्मा "दानिश"@#
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