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रविवार, 5 अप्रैल 2020

कृति :- कालिका शतक से कुछ छन्द - आदित्य तोमर

कृति - कालिका शतक से कुछ छन्द

काल की है काल, महाकाली नेत्र लाल-लाल,
धार करवाल आज धरती पे आओ माँ।

व्यथित, विदग्ध भक्त पापियों से हो रहे हैं,
मुण्ड काट-काट मुण्डमाल में बढाओ माँ।

दिया वरदान था जो भक्त रक्षणार्थ अम्ब,
करो न विलम्ब वह वचन निभाओ माँ।

चहुँ ओर काल सी है कालिमा कराल काली,
उसे अनुपान कर दरश दिखाओ माँ।
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सुन-सुन माँ पुकार, लेके हाथ में कटार, कर- 
कर के प्रहार अन्तणी निकाल दे।

चीर-फाड़ वक्ष, नख खोपड़ी में गाड़ कर
शोणित का पान कर खोपड़ी उछाल दे।

दैत्य बलवान, वीर्यवान, शौर्यवान भट,
तोमर-त्रिशूल से उतार आज भाल दे।

तीर-तलवार-तनुत्राण सारे काट डाल,
पटक-पटक मार मेदिनी पे डाल दे।।
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कालिका भवानी, हे शिवानी, तेरा नाम माता,
देव, ऋषि, मुनि सभी जपते चले गए।

जपते गए जो एकमनमग्न होके तुझे,
काज या अकाज सभी सधते चले गए।

सधते गए हैं कीर्तिमान रणक्षेत्र में भी,
काव्यवीर भी तो तुझे भजते चले गए।

भजते गए हैं मेरी कविता के शब्द तुझे,
मान-उपमान सभी सजते चले गए।।
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धर्म के विरुद्ध छिड़ा युद्ध, कर्म अवरुद्ध,
सदपरिणाम मिलें, आर-पार कीजिये।

धरणी पे बचे नहीं कोई भी दनुज कहीं,
ऐसे महाअस्त्र का कठोर वार कीजिये।

राजपूतों को दिया जो देशरक्षा का सुकर्म,
सुप्त पड़े हैं जगाओ, ललकार दीजिये।

ठाकुरों के हाथ नहीं आज तलवार कोई,
कलम को तलवार वाली धार दीजिये।।
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जहाँ देखता हूँ लप-लप लपलपा जीभ
चाहती है भर लेना खप्पर जो खाली है।

पीछे-पीछे कदमों पे दौड़ा आ रहा है काल
काल से भी दो कदम आगे दौड़ी काली है।

यत्र-तत्र जगती में भक्ति के मिटे हैं चिन्ह
खिन्न इसी बात से हो खडग उठा ली है।

बरसों पुरानी बासी मुण्डमाला रही फेंक
ताज़ी मुण्डमाला एक चाहती कपाली है।
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कालिका ने देखा जब देवगण हार रहे,
जौहर न सह पा रहे हैं रक्तबीज के।

खप्पर-खडग को उठाके एक झटके से
कूद पड़ी माता रणक्षेत्र में पसीज के।

किन्तु जब रक्तकणों से उठे हज़ारों दैत्य,
फिर खोल ही दिया विशाल मुख खीझ के।

रक्त, मज्जा, मांस रक्तबीज का चबाया ऐसे
जैसे बच्चा रोटी खा रहा हो दूध-मीज के।
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मैंने तो सुना था बड़े-बड़े भटों से लड़ी तू,
दुखियों को दिया त्राण दुष्टों को सँहारकर।

जब-जब किसी ने सताया तेरे भक्तों को तो,
दौड़ी-दौड़ी चली आई तलवार धार कर।

किन्तु क्या हुआ कि विपदा न दीखती है मेरी,
अस्त्र-शस्त्र खुन्न हो गए क्या दैत्य मारकर?

या तो आज तू ही सामने उतर आ माँ काली,
या मैं अपना ही शीश रख दूँ उतारकर।।
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आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ

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