अब तक उल्टा सीधा जो कुछ लिख पाया
अगर वही कविता है तो मैं भी कवि हूँ.
वेदों में जो सदियों से पूजा गया यहाँ
बहुचर्चित अर्चित उस रवि की मैं भी छवि हूँ.
मैं भले न निराला, बच्चन और महादेवी
की कोई भी शेष निशानी देख सका.
मुझे न दिनकर के प्रचण्डतम शब्द मिले,
मैं न सुभद्रा की चौहानी देख सका.
काका हाथरसी बाबा निर्भय के युग में
उन आशीषों के तले न मैंने किये शोध.
मैं नीरज के मंचों पर कविता पढ़ न सका.
मुझको न मिले जीवन में कोई मुक्तिबोध.
दो-दो वटवृक्ष रहे थे पर, दुर्भाग्यपूर्ण
मैंने उनकी भी कभी न छायाएँ पायीं.
हा ! उर्मिलेश के बाद अवस्थी चले गए
उनकी स्मृतियाँ ही शेष बदायूँ में गायीं.
मैं नहीं किसी गर्वीले कविकुल का वंशज
मैं हूँ न महान परम्पराओं का अधिकारी.
जैसी भी है मिट्टी है इसी बदायूँ की.
जिस मिट्टी में रहती सदैव कविता ज़ारी.
हाँ भले नहीं उत्तराधिकार मिला कोई
हो भले न मेरे पीछे कहीं खड़ा कोई
लड़ने को मेरे साथ कभी न लड़ा कोई
इससे तो होता छोटा या न बड़ा कोई
मैं चन्द्रगुप्त की परम्परा गढ़ने वाला
वनसुमन समान बिन देखभाल बढ़ने वाला
दिनकर हूँ दिन पर दिन ऊपर चढ़ने वाला
मैं हूँ इस माटी की कविता पढ़ने वाला
आपने निमंत्रण दिया चला आया मैं भी
आपके प्रेम का चाहक हूँ, आभारी हूँ.
अनवरत दहकते इस साहित्यिक यज्ञ हेतु
आहुति तो एक चढ़ाने का अधिकारी हूँ.
-
आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ
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