ताज़ा ग़ज़ल :-
वो ज़माना न सही इतना तो दे सकता था
मुझको इक दोस्त मेरे जैसा तो दे सकता था।
देने वाले का इरादा न था कुछ देने का
वर्ना दरिया न सही क़तरा तो दे सकता था।
क्यूँ नहीं आने दिया बज़्म में उस गूँगे को
वो हमें लफ़्ज़ नहीं लहजा तो दे सकता था।
कैसे अफ़सोस न हो लाश न मिल पाने का
मैं उसे साँस नहीं कांधा तो दे सकता था।
वो नहीं चाहता था यादों से बेचैन रहूँ
वर्ना जाते हुए इक बोसा तो दे सकता था।
रघुनंदन शर्मा "दानिश"
वो ज़माना न सही इतना तो दे सकता था
मुझको इक दोस्त मेरे जैसा तो दे सकता था।
देने वाले का इरादा न था कुछ देने का
वर्ना दरिया न सही क़तरा तो दे सकता था।
क्यूँ नहीं आने दिया बज़्म में उस गूँगे को
वो हमें लफ़्ज़ नहीं लहजा तो दे सकता था।
कैसे अफ़सोस न हो लाश न मिल पाने का
मैं उसे साँस नहीं कांधा तो दे सकता था।
वो नहीं चाहता था यादों से बेचैन रहूँ
वर्ना जाते हुए इक बोसा तो दे सकता था।
रघुनंदन शर्मा "दानिश"
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